India-China / इस डील को लेकर भारत के इनकार से परेशान चीन, कहा- गलवान का बहाना ना बनाएं

AajTak : Jul 13, 2020, 03:57 PM
भारत ने पिछले साल चीन के लिए काफी फायदेमंद मानी जा रही रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) में शामिल होने से इनकार कर दिया था। चीन समेत करीब 15 देशों ने भारत के बिना ही इस समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए थे और कहा था कि भारत अगर बाद में चाहे तो इसमें शामिल हो सकता है। हालांकि, भारतीय अधिकारियों के हवाले से कुछ रिपोर्ट्स में कहा गया है कि लद्दाख में चीन से जारी तनाव और कोरोना वायरस महामारी के मद्देनजर भारत आरसीईपी में शामिल नहीं होने के अपने फैसले पर फिर से विचार नहीं करेगा।

रिपोर्ट्स के मुताबिक, गलवान घाटी में तनाव की घटना के बाद भारत किसी भी ऐसे व्यापारिक समझौते में शामिल नहीं होगा जिससे चीन का दबदबा बढ़ने की आशंका है। भारत की डील को दोबारा ना कहने से चीनी मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया आ रही है।

चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है कि भारत को आरसीईपी से बाहर रहने के लिए चीन का बहाना नहीं बनाना चाहिए। अखबार ने लिखा है कि इन खबरों से ये चिंता बढ़ जाती है कि भारत और चीन की सेना के बीच भले ही तनाव कम करने के लिए कदम उठाए जा रहे हैं लेकिन भारत रणनीतिक और आर्थिक मामलों में चीन के खिलाफ दुश्मनी निभाना जारी रखेगा।

दरअसल, रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप यानी आरसीईपी (RCEP) आसियान देशों (ब्रुनेई, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस, मलेशिया, म्यांमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड, विएतनाम) और इनके प्रमुख एफटीए सहयोगी देश चीन, जापान, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के बीच एक मुक्त व्यापार समझौता है। इस समझौते के तहत, सदस्य देश व्यापार में एक-दूसरे को टैरिफ समेत कई तरीके की छूट देंगे।

इस समझौते में भारत को भी शामिल होना था लेकिन पार्टनर देशों से आने वाले सामान को टैरिफ फ्री करने के नुकसान को देखते हुए ऐन मौके पर इससे बाहर होने का फैसला किया था। विश्लेषकों का कहना है कि अगर भारत इस समझौते में शामिल होता तो चीन से आयात सस्ता हो जाता और भारतीय बाजार में चीनी सामान की बाढ़ आ जाती। इससे तमाम घरेलू उद्योग बर्बाद हो जाते।

समझौते के तहत, भारत को भी चीन को निर्यात करने में छूट मिलती लेकिन दिक्कत ये है कि भारत चीन को अपना सामान बेचता कम है और खरीदता ज्यादा है। ऐसे में ये समझौता चीन के लिए ज्यादा फायदेमंद है। विश्लेषकों का कहना है कि चीनी वस्तुओं के लिए एकदम से पूरा भारतीय बाजार खोलना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा क्योंकि वे हमारी तुलना में ज्यादा प्रतिस्पर्धी हैं। दूसरी बात, चीन समेत आसियान देशों के साथ पहले से ही भारत का व्यापार घाटा (यानी आयात ज्यादा, निर्यात कम) बहुत ज्यादा है। तमाम तरह की आर्थिक छूट देने से भारत का इन देशों के साथ व्यापार घाटा और बढ़ जाएगा। इन्हीं चिंताओं के मद्देनजर भारत इस समझौते में शामिल नहीं हुआ।

भारत के इस कदम को लेकर सबसे ज्यादा ऐतराज चीन को है। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, आरसीईपी की जून महीने में हुई बैठक में जोर देकर कहा गया था कि इसके दरवाजे भारत के लिए खुले हैं लेकिन भारत ने एक बार फिर इनकार कर दिया। हालांकि, आरसीईपी को दोबारा ना कहकर भारत ने इस बार समझौते में मोल-तोल की हर गुंजाइश को खत्म कर दिया है। भारत का समझौते में शामिल ना होने के लिए चीन का बहाना बनाना बीजिंग के प्रति उसकी जटिल भावनाओं को दिखाता है।

अखबार ने लिखा है कि नवंबर 2019 में जब भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरसीईपी समिट में समझौते से बाहर होने का ऐलान किया था तो भारतीय मीडिया ने इसे चीन के दबदबे वाला या चीन प्रायोजित करार दिया था जबकि ये पूरी तरह से गलत है। अखबार ने सफाई देते हुए लिखा है कि आरसीईपी चीन के प्रभुत्व वाला या चीन समर्थित समझौता नहीं है बल्कि इसमें शामिल 14 अन्य देश कभी चीन का दबदबा नहीं होने देंगे।

ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, भारतीय अधिकारियों ने भारत के आरसीईपी में शामिल नहीं होने के पीछे सीमा विवाद का हवाला दिया है। साफ तौर पर, ये गलवान घाटी में हुए संघर्ष के बाद उमड़ी चीन विरोधी भावनाओं को रास्ता देने का तरीका है। भारत कई सालों से आरसीईपी में शामिल होने से कतराता रहा है और ये उसके मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की कमजोरी की वजह से है। हाल के वर्षों में, भारत का आरसीईपी देशों से आयात तेजी से बढ़ा है जबकि निर्यात में मुश्किल से कोई बढ़ोतरी हुई है।

अखबार ने लिखा, भारत का व्यापार घाटा (यानी आयात ज्यादा और निर्यात कम) लगातार बढ़ता जा रहा है और अगर वो इस समझौते में शामिल होता है तो ये और बढ़ जाएगा। इसीलिए भारत समझौते में तमाम शर्तें शामिल कराना चाहता है लेकिन इन्हें मानना दूसरे देशों के लिए बेहद मुश्किल है।

अखबार ने लिखा है कि भारत में मोदी सरकार के आरसीईपी से बाहर होने के फैसले को लेकर पहले से ही बहस छिड़ी हुई है। कई लोगों का तर्क है कि इससे बाहर होकर भारत एशिया-प्रशांत की बड़ी आर्थिक ताकतों के साथ साझेदारी मजबूत करने का एक बड़ा मौका खो देगा। इसके साथ ही भारत अपने दूरगामी आर्थिक विकास के रास्ते को भी ब्लॉक कर देगा। ग्लोबल टाइम्स ने भारत को नसीहत देते हुए कहा है कि भारतीय नेतृत्व को अपने दूरगामी हितों को देखने के लिए ज्यादा राजनीतिक साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है। मैन्युफैक्चरिंग के भविष्य के लिए उसे क्षणिक राजनीतिक नुकसान सहने के लिए भी तैयार होना चाहिए।

ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, अपनी अर्थव्यवस्था के आकार को देखते हुए भारत को खुद को दुनिया से अलग-थलग करने के बजाय एक बड़े आर्थिक दायरे में शामिल करना चाहिए। भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के बढ़ने की वजह से पहले से ही मुक्त व्यापार व्यवस्था चुनौतियों का सामना कर रही है, ऐसे में आरसीईपी इस क्षेत्र में एक बड़ा आर्थिक अवसर उपलब्ध करा सकता है। भारत के आर्थिक विकास के चरण को देखते हुए बहुपक्षीय मंच उसके लिए लाभदायक साबित होंगे।

ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, जून महीने में हिंसक संघर्ष के बाद से भारत की कूटनीति आवेश से प्रेरित अतार्किक चरण में पहुंच गई है। भारत चीन के साथ अपने संबंधों में इसी भावनात्मक पहलू के साथ आगे बढ़ रहा है। आरसीईपी इसका ताजा उदाहरण है। अगर भारत इस अतार्किक रवैये के साथ आगे बढ़ता है तो इससे ना केवल पूरे क्षेत्र के हितों को नुकसान पहुंचेगा बल्कि इससे उसको भी आने वाले वक्त में फायदा नहीं होगा। चीन भारत का दुश्मन नहीं है और ना ही वह भारत का दुश्मन बनेगा। भारत का असल दुश्मन वह खुद ही बन रहा है।

ग्लोबल टाइम्स ने अंत में सलाह दी है कि भारत को दुनिया और एशिया में अपने दर्जे और अपने दूरगामी राष्ट्रीय हितों का मूल्यांकन ठीक से करना चाहिए। जब ताकतवर पड़ोसी देश से सामना हो रहा हो तो भारत को अपनी स्थिति का अच्छी तरह आकलन करना चाहिए। भारत को राष्ट्रवाद भड़काने और चीन को हर बुरे हालात के लिए जिम्मेदार ठहराने के बजाय अपने आर्थिक और रणनीतिक हित पूरे करने के लिए चीन के प्रति दुश्मनी कम करनी चाहिए।

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