तीस साल में 5 CM / मंडल की राजनीति से कैसे बिहार में किनारे हो गए ब्राह्मण

AajTak : Sep 11, 2020, 08:29 AM
बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी पार्टियां अपने-अपने राजनीतिक समीकरण बनाने में जुटी हैं। ऐसे में अलग-अलग समुदाय के नेताओं को राजनीतिक दल अपने पाले में लाने की कवायद में जुटे हैं। बिहार में ब्राह्मण समुदाय की आबादी भले ही देश के दूसरे राज्यों से कम हो, लेकिन सियासी वर्चस्व में कोई कमी नहीं रही।1960 के दशक में बिहार में मैथिल ब्राह्मण राजनीतिक रूप से काफी अहम बन गए थे। यही वजह थी कि बिहार में सत्ता के सिंहासन पर 1961 से लेकर 1990 तक ब्राह्मण समुदाय के पांच नेता मुख्यमंत्री बने, लेकिन मंडल की राजनीति के बाद बिहार में ब्राह्मण सियासत पूरी तरह से किनारे लग गई। 


बिहार में ब्राह्मण सियासत

बता दें कि बिहार में अगड़ों में सबसे बड़ी आबादी ब्राह्मण समुदाय की है। सूबे में करीब 6 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं, जो करीब ढाई दर्जन विधानसभा सीटों पर हार जीत तय करते हैं। मौजूदा समय में बिहार में ब्राह्मण समुदाय के 10 विधायक हैं। सूबे में सबसे ज्यादा चार ब्राह्मण विधायक कांग्रेस से है। इसके बाद बीजेपी से तीन, जेडीयू से दो और आरजेडी से महज एक विधायक हैं।

बिहार में ब्राह्मण सियासत का दुर्ग मिथिलांचल माना जाता है। मिथिलांचल के दरभंगा, मधुबनी, झंझारपुर, सीतामढ़ी और मुजफ्फरपुर के अलावा सुपौल, सहरसा और चंपारण जिले की ज्यादातर विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण निर्णायक भूमिका में हैं। मधुबनी से बेनीपट्टी होते जो सड़क सीतामढ़ी की तरफ चली जाती है, उसी सड़क के किनारे बसा है गांव सौराठ है, जहां कभी मैथिल ब्राह्मणों की प्रसिद्ध वैवाहिक सभा लगती थी। एक दौर में यहीं से मैथिल ब्राह्मणों की सियासत बुलंद होती रही है। मिथिलांचल में राजनीतिक पार्टियां ब्राह्मणों के समीकरण को देखते हुए अपने टिकटों का बंटवारा करती रही हैं। 


60 के दशक में ब्राह्मणों के हाथ सत्ता

आजादी से बाद बिहार का ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता था। हालांकि, सत्ता की कमान 60 के दशक में मिली। 1960 से 1970 के दौरान बिहार में मैथिल ब्राह्मण राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण बन गए थे। कांग्रेस में बिनोदानंद झा और ललित नारायण मिश्र ब्राह्मण समुदाय के प्रमुख राजनीतिक नेताओं के रूप में उभरे। ललित नारायण मिश्रा केंद्र की राजनीति में सक्रिय रहे तो बिनोदानंद झा ने राज्य की सियासत में अपनी जड़ मजबूत की। 

साल 1961 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह की मृत्यु के बाद कांग्रेस विधायक दल ने अपना नेता मैथिल ब्राह्मण विनोदानंद झा को चुना था। यहीं से उन्हें राजनीतिक पहचान मिली। हालांकि, वह ठेठ मिथिला के नहीं थे बल्कि मौजूदा झारखंड इलाके से चुनाव जीतकर आते थे। इसके बाद 1972 में केदार पांडेय मुख्यमंत्री बने। केदार पांडेय पश्चिमी चंपारण इलाके से आते थे, लेकिन ब्राह्मण समुदाय के बीच अपनी साख नहीं स्थापित कर सके थे। 


जगन्नाथ मिश्र ने ब्राह्मणों को दिलाई पहचान

हालांकि,  70 के दशक में बिहार के सीएम डॉ जगन्नाथ मिश्र ने ब्राह्मणों को राजनीति में अलग पहचान दिलायी और सूबे के तीन बार मुख्यमंत्री बने। 1975 में जगनाथ मिश्रा पहली बार मुख्यमंत्री बने और आपातकाल के दौरान सत्ता की कमान अपने हाथों में रखी। इसके बाद 1980 में दोबारा से मुख्यमंत्री बने थे। जगन्नाथ मिश्रा के बाद 1983 में ब्राह्मण समुदाय से बिंदेश्वरी दुबे मुख्यमंत्री बने और करीब तीन साल तक सत्ता की कमान अपने हाथों में रखी। इसके बाद कांग्रेस ने मैथिल ब्राह्मण समुदाय से आने वाले भागवत झा आजाद को मुख्यमंत्री बनाया।  

अस्सी के दशक के आखिरी सालों में देश की राजनीति बदलने लगी थी। बीजेपी अगड़ों के बीच अपनी जड़ें जमाने में जुटी हुई थी और जनता दल का राजनीतिक प्रभाव बढ़ रहा था। ऐसे में कांग्रेस ने जगन्नाथ मिश्रा को तीसरी बार 1989 में बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का दांव चला। उन्हीं के नेतृत्व में 1990 में बिहार चुनाव हुए। बिहार में जनता दल ओबीसी समुदाय के बीच अपनी मजबूत पकड़ बना चुका था, जिसके चलते जगन्नाथ मिश्रा कांग्रेस को जीत नहीं दिला सके। 


1990 के बाद से ब्राह्मण हाशिए पर

1990 के बाद बिहार की सियासत पूरी तरह से बदल गई। मंडल कमीशन लागू होने के बाद बिहार की राजनीति में ओबीसी समुदाय की जबरदस्त पकड़ बनी। लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने और अपना अलग राजनीतिक समीकरण बनाया। जिसमें उन्होंने ब्राह्मण, भूमिहार और कायस्थ समुदाय की बजाय यादव, ओबीसी, मुस्लिम और दलित समुदाय के अलावा राजपूतों को एक साथ लाकर अपना दुर्ग मजबूत किया। इसके बाद नीतीश कुमार ने भी सत्ता संभाली, लेकिन ब्राह्मणों को कोई खास अहमियत नहीं मिली। 

बिहार में पिछले तीन दशकों से ब्राह्मण पूरी तरह से हाशिए पर चले गए।1990 के बाद कांग्रेस न कभी बिहार की सत्ता में आई और न ही कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री बन सका। हालांकि, 2015 के चुनाव में कांग्रेस के सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक जरूर जीतने में कामयाब रहे थे। हालांकि, बीजेपी के राजनीतिक उदय के बाद ब्राह्मण समुदाय का बड़ा तबका उसके साथ है, लेकिन कांग्रेस भी अपनी पकड़ बनाए हुए है। मंडल की राजनीति के बाद भले बिहार में ब्राह्मण साइडलाइन हो गए हों, लेकिन  मिथिलांचल क्षेत्र में आज भी ब्राह्मणों की आबादी इतनी है कि वह जीत-हार के समीकरण में सबसे अहम फैक्टर है, जिन्हें नजरअंदादज किसी भी राजनीतिक दल के लिए आसान नहीं है। 


बिहार में मौजूदा ब्राह्मण चेहरा

बिहार की राजनीति बदली और धीरे-धीरे ब्राह्मण सियासत हाशिए पर चली गई। हालांकि आरजेडी मनोज झा को राज्यसभा सांसद बनाकर ब्राह्मणों को जरूर संदेश देने की कोशिश कर रही है। इसके अलावा शिवानंद तिवारी को अपने साथ रखा है। वहीं, बीजेपी के पास ब्राह्मण चेहरे के तौर पर मंगल पांडेय और अश्विनी चौबे जैसे नेता मौजूद हैं तो जेडीयू के पास ब्राह्मण नेता के तौर संजय झा हैं। वहीं, कांग्रेस में मदन मोहन झा ब्राह्मण चेहरा माने जाते हैं और बिहार में पार्टी की कमान उन्हीं के हाथों में है। इसके अलावा पूर्व सीएम भगवत आजाद झा के बेटे और पूर्व सांसद कीर्ति झा आजाद भी अब कांग्रेस के साथ हैं।

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