कोरोना अलर्ट / भारतीय वैज्ञानिकों का दावा, 2021 से पहले संभव नहीं कोरोना वैक्सीन

कोरोना वायरस के जानलेवा संक्रमण को रोकने वाली वेक्सीन तलाशने की वैश्विक दौड़ में छह भारतीय कंपनियां भी काम कर रही हैं। लेकिन शीर्ष भारतीय वैज्ञानिकों का कहना है कि संक्रमण के तेजी से दुनियाभर में फैलाव के बीच समय के विपरीत चल रही वैक्सीन खोज की दौड़ को वर्ष 2021 से पहले जीतना संभव नहीं दिख रहा है।

AMAR UJALA : Apr 16, 2020, 09:21 AM
कोरोना वायरस के जानलेवा संक्रमण को रोकने वाली वेक्सीन तलाशने की वैश्विक दौड़ में छह भारतीय कंपनियां भी काम कर रही हैं। लेकिन शीर्ष भारतीय वैज्ञानिकों का कहना है कि संक्रमण के तेजी से दुनियाभर में फैलाव के बीच समय के विपरीत चल रही वैक्सीन खोज की दौड़ को वर्ष 2021 से पहले जीतना संभव नहीं दिख रहा है।

कोरोना वायरस (कोविड-19) का संक्रमण वैश्विक स्तर पर 19 लाख से ज्यादा लोगों को पीड़ित कर चुका है, जबकि 1.26 लाख से ज्यादा लोगों की जान जा चुकी है। दुनिया भर के वैज्ञानिक इस जानलेवा महामारी का तोड़ तलाशने में जुटे हुए हैं। फरीदाबाद स्थित ट्रांसलेशनल हेल्थ साइंस एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक गगनदीप कंग के मुताबिक, कोरोना वायरस महामारी को हराने के लिए विस्तार और गति के हिसाब से वैश्विक शोध और विकास प्रयास बेहद बेमिसाल हैं।

लेकिन सीईपीआई (महामारी तैयारी नवाचार गठबंधन) के वाइस चेयरमैन पद पर भी नियुक्त कंग का यह भी कहना है कि किसी भी वैक्सीन के परीक्षण की प्रक्रिया बहुस्तरीय, जटिल और कई अन्य चुनौतियों वाली होती है। इसके चलते सार्स-कोव-2 (कोविड-19) की वैक्सीन तलाशने में भले ही अन्य बीमारियों की वैक्सीन की तरह 10 साल नहीं लगेंगे, लेकिन किसी वैक्सीन को तलाशने के बाद उसे सुरक्षित, प्रभावी और बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने के लिए कम से कम एक साल का समय अवश्य लगेगा।

केरल के राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के चीफ साइंटिफिक ऑफिसर ई. श्रीकुमार और हैदराबाद के सीएसआईआर-सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायलॉजी के निदेशक राकेश मिश्रा भी मानते हैं कि किसी वैक्सीन को तैयार करने में कई साल का समय लगता है। परीक्षण के विभिन्न स्तरों को पार करने और उसके बाद मंजूरी मिलने में लगने वाले समय के चलते इस साल कोरोना वायरस की वैक्सीन उपलब्ध होना संभव नहीं है।

लेकिन सीईपीआई (महामारी तैयारी नवाचार गठबंधन) के वाइस चेयरमैन पद पर भी नियुक्त कंग का यह भी कहना है कि किसी भी वैक्सीन के परीक्षण की प्रक्रिया बहुस्तरीय, जटिल और कई अन्य चुनौतियों वाली होती है। इसके चलते सार्स-कोव-2 (कोविड-19) की वैक्सीन तलाशने में भले ही अन्य बीमारियों की वैक्सीन की तरह 10 साल नहीं लगेंगे, लेकिन किसी वैक्सीन को तलाशने के बाद उसे सुरक्षित, प्रभावी और बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराने के लिए कम से कम एक साल का समय अवश्य लगेगा।

केरल के राजीव गांधी सेंटर फॉर बायोटेक्नोलॉजी के चीफ साइंटिफिक ऑफिसर ई. श्रीकुमार और हैदराबाद के सीएसआईआर-सेंटर फॉर सेलुलर एंड मॉलीक्यूलर बायलॉजी के निदेशक राकेश मिश्रा भी मानते हैं कि किसी वैक्सीन को तैयार करने में कई साल का समय लगता है। परीक्षण के विभिन्न स्तरों को पार करने और उसके बाद मंजूरी मिलने में लगने वाले समय के चलते इस साल कोरोना वायरस की वैक्सीन उपलब्ध होना संभव नहीं है।

इस तरह होता है वैक्सीन परीक्षण

वैक्सीन के परीक्षण की शुरुआत जानवरों से की जाती है।

लैब टेस्टिंग के दौरान जानवरों पर विभिन्न चरणों में परीक्षण होते हैं।

मानवीय चिकित्सकीय परीक्षण का पहला चरण छोटे पैमाने पर कुछ लोगों के साथ चालू होता है।

पहले चरण में इसके सुरक्षित साबित होने पर दूसरे चरण में कुछ सौ लोगों पर परीक्षण होता है।

दूसरे चरण के दौरान बीमारी के खिलाफ वैक्सीन के प्रभाव को आंका जाता है।

निर्णायक चरण में कई हजार लोगों पर वैक्सीन की बीमारी रोकने की क्षमता परखी जाती है।

निर्णायक चरण में वैक्सीन की क्षमता परखने के दौरान कई महीने का समय लगता है।

वैक्सीन तैयार होने के बाद भी यह परखा जाता है कि यह वायरस के बार-बार बदलने वाले सभी रूपों पर प्रभावी है या नहीं।

ये भारतीय कंपनियां जुटी हैं परीक्षण में

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के हिसाब से करीब 70 वैक्सीन का प्रि-क्लीनिकल परीक्षण अभी तक किया जा चुका है और कम से कम तीन को प्रयोगशाला में सफल पाए जाने पर मानवीय चिकित्सकीय परीक्षण की अनुमति मिल चुकी है।

भारत में भी जायड्स कैडिला दो वैक्सीन पर, सीरम इंस्टीट्यूट, बॉयलॉजिकल ई., भारत बायोटेक, इंडियन इम्युनोलॉजिकल्स और माइनवेक्स एक-एक वैक्सीन के परीक्षण पर काम कर रही हैं। लेकिन डब्ल्यूएचओ ने अपनी सूची में जायड्स कैडिला और सीरम इंस्टीट्यूट को ही शामिल किया है।

वैक्सीन के लिए कहां पर कितने शोध

46 फीसदी शोध चल रहे हैं उत्तरी अमेरिका में।

18-18 फीसदी हिस्सेदारी है चीन और यूरोप की।

18 फीसदी हिस्सेदारी है शेष एशिया और ऑस्ट्रेलिया की।