AMAR UJALA : Apr 23, 2020, 02:54 PM
दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को एक बार फिर कठोर शब्दों में स्पष्ट कर दिया कि किसी भी हालत में आरक्षण का दायरा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकता। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से ही इंद्रा शाह ने मामले में अधिकतम 50 फीसदी आरक्षण तय करने के आदेश का हवाला देते हुए कहा कि कोई सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती।
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह टिप्पणी आंध्र प्रदेश सरकार के वर्ष 2000 के एक आदेश पर की। आंध्र सरकार ने 20 साल पहले अधिसूचित क्षेत्रों के स्कूलों की शिक्षक भर्ती में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का आदेश दिया था। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने आंध्र सरकार के इस फैसले को असांविधानिक, दुर्भाग्यपूर्ण, गैरकानूनी और मनमाना करार देते हुए दरकिनार कर दिया।पीठ ने पाया कि वर्ष 1986 में भी राज्य सरकार ने 100 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी, लेकिन ट्रिब्यूनल ने तब सरकार के इस निर्णय को खारिज कर दिया था। बाद में अदालतों ने भी ट्रिब्यूनल के फैसले को सही ठहराया था। वर्ष1998 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी अपील वापस ले ली थी।
पीठ ने कहा कि राज्य सरकार से उम्मीद है कि इसके बाद वह 100 फीसदी आरक्षण देने का गैरकानूनी काम फिर से नहीं करेगी। लेकिन राज्य सरकार ने वर्ष 2000 में दोबारा अधिसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी कर दिया।
सरकार की सोच अतार्किक व समझ से परे...संविधान पीठ ने कहा कि एक बार आदेश को खारिज किए जाने के बावजूद उसी तरह का आदेश दोबारा जारी करना बेहद दुखद है। पीठ ने यह भी कहा कि किसी भी अधिसूचित क्षेत्र में सिर्फ अनुसूचित जनजातियों के लिए 100 फीसदी आरक्षण को जायज नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही शीर्ष अदालत ने फैसले में यह भी टिप्पणी की कि केवल अनुसूचित जनजाति शिक्षकों के ही अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में पढ़ा पाने की सोच सही नहीं है और अतार्किक है। यह समझ से परे है।नहीं छीनी जाएगी शिक्षकों की नौकरीसंविधान पीठ ने भले ही राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई हो, लेकिन उसकी तरफ से इस मामले को अनोखा मानते हुए वर्ष 2000 के सरकारी आदेश के तहत हुई शिक्षकों की इन नियुक्तियों को सशर्त जारी रखने का निर्णय लिया गया है। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकार को सख्त हिदायत दी है कि भविष्य में ऐसा प्रयास नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने यह टिप्पणी आंध्र प्रदेश सरकार के वर्ष 2000 के एक आदेश पर की। आंध्र सरकार ने 20 साल पहले अधिसूचित क्षेत्रों के स्कूलों की शिक्षक भर्ती में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का आदेश दिया था। जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने आंध्र सरकार के इस फैसले को असांविधानिक, दुर्भाग्यपूर्ण, गैरकानूनी और मनमाना करार देते हुए दरकिनार कर दिया।पीठ ने पाया कि वर्ष 1986 में भी राज्य सरकार ने 100 फीसदी आरक्षण देने की घोषणा की थी, लेकिन ट्रिब्यूनल ने तब सरकार के इस निर्णय को खारिज कर दिया था। बाद में अदालतों ने भी ट्रिब्यूनल के फैसले को सही ठहराया था। वर्ष1998 में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपनी अपील वापस ले ली थी।
पीठ ने कहा कि राज्य सरकार से उम्मीद है कि इसके बाद वह 100 फीसदी आरक्षण देने का गैरकानूनी काम फिर से नहीं करेगी। लेकिन राज्य सरकार ने वर्ष 2000 में दोबारा अधिसूचित क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी कर दिया।
सरकार की सोच अतार्किक व समझ से परे...संविधान पीठ ने कहा कि एक बार आदेश को खारिज किए जाने के बावजूद उसी तरह का आदेश दोबारा जारी करना बेहद दुखद है। पीठ ने यह भी कहा कि किसी भी अधिसूचित क्षेत्र में सिर्फ अनुसूचित जनजातियों के लिए 100 फीसदी आरक्षण को जायज नहीं ठहराया जा सकता। साथ ही शीर्ष अदालत ने फैसले में यह भी टिप्पणी की कि केवल अनुसूचित जनजाति शिक्षकों के ही अनुसूचित क्षेत्रों के स्कूलों में पढ़ा पाने की सोच सही नहीं है और अतार्किक है। यह समझ से परे है।नहीं छीनी जाएगी शिक्षकों की नौकरीसंविधान पीठ ने भले ही राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाई हो, लेकिन उसकी तरफ से इस मामले को अनोखा मानते हुए वर्ष 2000 के सरकारी आदेश के तहत हुई शिक्षकों की इन नियुक्तियों को सशर्त जारी रखने का निर्णय लिया गया है। कोर्ट ने आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सरकार को सख्त हिदायत दी है कि भविष्य में ऐसा प्रयास नहीं होना चाहिए।