NDTV : Apr 14, 2020, 09:39 AM
नई दिल्ली: देश भर में लॉकडाउन बढ़ने के आसार के साथ दिल्ली और आसपास के ज़िलों में फंसे लाखों प्रवासी मज़दूरों की मुश्किलें अब और बढ़ती जा रही है। इन मज़दूरों को दिन में एक वक़्त का खाना मिलने में भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। ये मजदूर कहते हैं कि कोरोना का तो पता नहीं पर भूख हमें जरूर मार देगी। अचानक से हुए लॉकडाउन ने इन मजदूरों को संभलने का मौका नहीं दिया। उत्तराखंड के नैनीताल के एक गांव के रहने वाली 22 साल की महक ने आठ दिन पहले एक बच्चे को जन्म दिया है। उनके पास न अस्पताल जाने के पैसे थे न साधन। महक के पति पुरानी दिल्ली के टाउनहॉल इलाक़े में एक बिल्डिंग में मज़दूरी करते थे लॉकडाउन के कारण सबकुछ बंद है। महक बताती हैं दो दिन में बस एक बार ही खाना नसीब होता है। जमीन पर लेटी अपनी बेटी को देख गोपाल के आंसू नहीं रूकते। महक बात करते-करते बार बार भावुक हो जाती हैं कहती हैं कि दूध ही नहीं उतर रहा है क्योंकि सुबह से बस एक मुठ्ठी चावल खाया है। राज्य सरकार की तरफ से कई दावें किये जा रहे हैं लेकिन जमीन की सच्चाई कुछ अलग ही दिखती है। दिल्ली सरकार का कहना है कि सभी राशनकार्ड धारियों को राशन दे रही हैं लेकिन समस्या इन प्रवासी मज़दूरों की है जिनके पास दिल्ली का राशनकार्ड ही नहीं है। सरकार ने ऐसे प्रवासी मज़दूरों के लिए वेबसाइट में जाकर रजिस्टर करने की व्यवस्था की है लेकिन पिछले तीन दिन से रजिस्टर करने वाले पेज हैंग हो गया है।पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास अपनी झुग्गी के बाहर खड़े बिहार के सीवान ज़िले के शंकर कुमार अपने साथियों के साथ हमें अपना खाली पर्स दिखाने लगते हैं ।। पैसे ख़त्म हो गए हैं ।। राशन भी ख़त्म हो चुका है ।। झुग्गी के अंदर राशन के खाली डिब्बे पड़े हैं ।। कल पास के स्कूल में दिल्ली सरकार द्वारा खिलाए जा रहे खाने के लिए बाहर निकले तो पुलिस ने लाठी मारकर भगा दिया।प्रवासी मज़दूर सिर्फ़ सरकार द्वारा बांटे गए खाने पर निर्भर करते हैं लेकिन सरकार के पास भी खाना सीमित है और खाने वाले ज़्यादा।। बिहार बेतिया के प्रवासी मज़दूर राम सागर 5 किलोमीटर पैदल चल कर मजनू के टीले के पास वाले स्कूल में खाना लेने पहुंचे हैं घर में 6 बच्चे हैं और इस पॉलीथीन में भरी खिचड़ी से ही काम चलाना है। ये हाल सिर्फ़ पुरानी दिल्ली का ही नहीं है। यहां की संकरी गलियों में बनी इन अंधेरी इमारतों में हज़ारों मज़दूर फ़ंसे हुए है कोई मकैनिक है तो कोई सामान ढोता है। यानी रोज़ कमाने खाने वाले ।। इस 8/8 के कमरे में बिहार मोतीहारी की रहने वाली मुन्नी देवी अपनी बहन के तीन बच्चों के साथ रहने को मजबूर हैं सुबह से बस नमक चावल खाया है ।। राशनकार्ड नहीं है तो बस जो लोग खाना बांटते हैं उन्हीं के सहारे दिन कट रहा है।दिल्ली की न्यू फ़्रेंड्स कॉलोनी के फ़ुटपाथ पर पेड़ों से गिरी लकड़ियों को इकठ्ठा कर जिंदगी गुजार रहे पटना के 62 साल के सुभाष झा बताते हैं। वो यहीं इमारतों में काम करते थे लॉकडाउन के चलते यहीं पत्थर से चूल्हा बना लिया है और किसी तरह भीख मांग कर राशन बना खा रहे हैं, रात में यहां खड़े ऑटो में ही सो जाते हैं।यही हाल दिल्ली से सटे नोएडा का है , जब नोएडा की सेक्टर 9 में पड़ने वाली बस्ती में हमारी टीम पहुंची तो हमें देख सैकड़ों लोग इकट्ठा हो गए लोगों को लगा कि शायद उन्हें कोई खाना बांटने आया है लेकिन कैमरा देख अधिकतर वापस मायूस होकर तंग गलियों में लौट गए। इस बस्ती में रहने वाले झारखंड पलामू के 40 साल के जाधव लाल रिक्शा चलाते हैं और पत्नी पास की एक कोठी में बर्तन मांजती हैं लेकिन लौकडाउन के चलते रिक्शे का पहिया रूक गया है लेकिन दो बच्चों को तीन वक़्त की रोटी देना उनके लिए चुनौती बन गया है।