AajTak : Apr 22, 2020, 02:19 PM
दिल्ली: टेक्नोलॉजी वरदान भी है और अभिशाप भी। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाली फर्जी खबरें, बच्चों तक पहुंचने वाले जानलेवा वीडियो गेम, साइबर क्राइम, अवैध पोर्न बाजार यह सब टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के स्याह पक्ष हैं। मां-बाप बच्चों को लगातार सोशल मीडिया, वीडियो गेम से दूर रहने की सख्त हिदायत देते रहते हैं। लेकिन संकट के वक्त टेक्नोलॉजी वरदान बनकर उभरी।
ऑनलाइन एजुकेशन, आनलाइन मेंटल काउंसलिंग, और ज्यादा ऑनलाइन शॉपिंग, आनलाइन डॉक्टरों से सलाह यानी इन दिनों दुनिया असल कम वर्चुअल ज्यादा नजर आती है। मनोवैज्ञानिक कंसल्टेंट प्रतिभा कहती हैं, '' पहले काउंसिलिंग के लिए पेशेंट को बुलाया जाता था लेकिन इन दिनों हम फोन पर ही काउंसिलिंग कर रहे हैं। भारत में फोन पर काउंसलिंग का चलन पहले भी था। लेकिन बहुत ज्यादा सीमित। पर सोशल डिस्टेंसिंग के नार्म को पूरा करने के लिए अब ज्यादातर मनोवैज्ञानिक फोन पर काउंसलिंग या चैट पर परामर्श दे रहे हैं।'' डॉ। प्रतिभा कहती हैं, '' यह त्रासदी एक बड़ा सोशल चेंज लेकर आएगी। लोग सोशल डिस्टेंसिंग को हमेशा के लिए व्यवहार में शामिल करेंगे। इसके लिए उन्हें टेक्नोलॉजी एक सरल और बेहतर विकल्प आगे भी सुझाएगी।''
सच तो यह है कि पहले पेशेंट इसके लिए तैयार नहीं होते थे लेकिन अब वे खुद भी फोन पर बातचीत करना चाहते हैं। वे कहती हैं, बिना दफ्तर जाए घर की जिम्मेदारी संभालते हुए प्रोफेशनल लाइफ भी जी जा सकती है यह हमें लॉकडाउन के दौर ने सिखाया।
मिनाक्षी दिल्ली के एक स्कूल में टीचर हैं। वे भी इन दिनों ऑनलाइन क्लासेज ले रही हैं। उनका अनुभव भी कुछ वाउ के एहसास से भरा हुआ है। स्कूल से घर आने और घर से स्कूल जाने में तकरीबन 2 घंटे निकल जाते थे। यानी दो घंटे बिल्कुल यूजलेस। उसके बाद स्कूल में जाकर अपनी कक्षाएं लेना और लगातार कक्षाएं न होने पर खाली बैठना। पर अब क्लासेज भी हो जाती हैं। खुद के लिए भी वक्त मिल जाता है और घर के लिए भी। हालांकि घर में जब मेड आने लगेगी की तो काम करने का इससे बेहत फॉर्मेट फिर कुछ हो ही नहीं सकता।
नोएडा में फिजिशियन वाणी त्रिपाठी कहती हैं, '' मैं दिन में सुबह 10 बजे से शाम पांच बजे तक ऑनलाइन अपने पेशेंट से कंसल्ट करती हूं। उन्हें ऑनलाइन एग्जामिन करने के बाद मेडिसिन प्रिस्क्राइब कर देती हूं।ज्यादातर बीमारियां देखने से ही पता चल जाती हैं। क्लिनिक में भी हम ज्यादातर यही करते थे। लेकिन स्काइप या वीडियो कॉल के जरिए भी यह आसानी से किया जा सकता है यह सोचा ही नहीं था।
कुल मिलाकर हर प्रोफेशन से जुड़े लोग इस समय ऑनलाइन जिंदगी में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। तो क्या यह बदलाव स्थायी है? शायद यह बदलाव एक स्थायी विकल्प देकर जाए। और दुनिया को टेक्नोलॉजी के विध्वंसक इस्तेमाल की जगह उसके सकारात्मक इस्तेमाल के और ज्यादा तरीके सिखला कर जाए।
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक गार्डनर कहते हैं, ''लगातार किसी एक्शन को करते करते वह आत में बदल जाता है। जैसे- सुबह उठते ही ब्रश करना, खाने के बाद हाथ धोना। वगैरहा वगैरहा।'' यह आदत लर्निंग से बनती हैं। लर्निंग दबाव में या फिर कुछ टोकन मिलने पर होती है। जैसे अगर ब्रश करने के बाद बच्चे की सरहाना होती है तो वह इस व्यवहार को सीखता है। लेकिन धूल में खेलने पर अगर उसे आंख दिखाई जाती है तो वह फिर उस व्यवहार को नहीं करता।
तो इन दिनों कोरोना काल के वक्त लोग जब काम के साथ घर को एन्जॉवाय करना सीख रहे हैं। सफर में फिजूल में खर्ज होने वक्त को बचाकर उसका और ज्यादा क्रिएटिव इस्तेमाल कर पार रहें , बच्चे मां बाप की आंखों के सामने भी हैं और स्कूल की शिक्षा भी ले रहें तो क्या फिलहाल अभी जरूरत बनी टेक्नोलॉजी हमारी आदत नहीं बन जाएगी? और शायद बच्चे शुरू से ही टेक्नोलॉजी के विध्वंसक इस्तेमाल की जगह सकारात्मक इस्तेमाल की तरफ प्रेरित भी होंगे।
ऑनलाइन एजुकेशन, आनलाइन मेंटल काउंसलिंग, और ज्यादा ऑनलाइन शॉपिंग, आनलाइन डॉक्टरों से सलाह यानी इन दिनों दुनिया असल कम वर्चुअल ज्यादा नजर आती है। मनोवैज्ञानिक कंसल्टेंट प्रतिभा कहती हैं, '' पहले काउंसिलिंग के लिए पेशेंट को बुलाया जाता था लेकिन इन दिनों हम फोन पर ही काउंसिलिंग कर रहे हैं। भारत में फोन पर काउंसलिंग का चलन पहले भी था। लेकिन बहुत ज्यादा सीमित। पर सोशल डिस्टेंसिंग के नार्म को पूरा करने के लिए अब ज्यादातर मनोवैज्ञानिक फोन पर काउंसलिंग या चैट पर परामर्श दे रहे हैं।'' डॉ। प्रतिभा कहती हैं, '' यह त्रासदी एक बड़ा सोशल चेंज लेकर आएगी। लोग सोशल डिस्टेंसिंग को हमेशा के लिए व्यवहार में शामिल करेंगे। इसके लिए उन्हें टेक्नोलॉजी एक सरल और बेहतर विकल्प आगे भी सुझाएगी।''
सच तो यह है कि पहले पेशेंट इसके लिए तैयार नहीं होते थे लेकिन अब वे खुद भी फोन पर बातचीत करना चाहते हैं। वे कहती हैं, बिना दफ्तर जाए घर की जिम्मेदारी संभालते हुए प्रोफेशनल लाइफ भी जी जा सकती है यह हमें लॉकडाउन के दौर ने सिखाया।
मिनाक्षी दिल्ली के एक स्कूल में टीचर हैं। वे भी इन दिनों ऑनलाइन क्लासेज ले रही हैं। उनका अनुभव भी कुछ वाउ के एहसास से भरा हुआ है। स्कूल से घर आने और घर से स्कूल जाने में तकरीबन 2 घंटे निकल जाते थे। यानी दो घंटे बिल्कुल यूजलेस। उसके बाद स्कूल में जाकर अपनी कक्षाएं लेना और लगातार कक्षाएं न होने पर खाली बैठना। पर अब क्लासेज भी हो जाती हैं। खुद के लिए भी वक्त मिल जाता है और घर के लिए भी। हालांकि घर में जब मेड आने लगेगी की तो काम करने का इससे बेहत फॉर्मेट फिर कुछ हो ही नहीं सकता।
नोएडा में फिजिशियन वाणी त्रिपाठी कहती हैं, '' मैं दिन में सुबह 10 बजे से शाम पांच बजे तक ऑनलाइन अपने पेशेंट से कंसल्ट करती हूं। उन्हें ऑनलाइन एग्जामिन करने के बाद मेडिसिन प्रिस्क्राइब कर देती हूं।ज्यादातर बीमारियां देखने से ही पता चल जाती हैं। क्लिनिक में भी हम ज्यादातर यही करते थे। लेकिन स्काइप या वीडियो कॉल के जरिए भी यह आसानी से किया जा सकता है यह सोचा ही नहीं था।
कुल मिलाकर हर प्रोफेशन से जुड़े लोग इस समय ऑनलाइन जिंदगी में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं। तो क्या यह बदलाव स्थायी है? शायद यह बदलाव एक स्थायी विकल्प देकर जाए। और दुनिया को टेक्नोलॉजी के विध्वंसक इस्तेमाल की जगह उसके सकारात्मक इस्तेमाल के और ज्यादा तरीके सिखला कर जाए।
अमेरिकन मनोवैज्ञानिक गार्डनर कहते हैं, ''लगातार किसी एक्शन को करते करते वह आत में बदल जाता है। जैसे- सुबह उठते ही ब्रश करना, खाने के बाद हाथ धोना। वगैरहा वगैरहा।'' यह आदत लर्निंग से बनती हैं। लर्निंग दबाव में या फिर कुछ टोकन मिलने पर होती है। जैसे अगर ब्रश करने के बाद बच्चे की सरहाना होती है तो वह इस व्यवहार को सीखता है। लेकिन धूल में खेलने पर अगर उसे आंख दिखाई जाती है तो वह फिर उस व्यवहार को नहीं करता।
तो इन दिनों कोरोना काल के वक्त लोग जब काम के साथ घर को एन्जॉवाय करना सीख रहे हैं। सफर में फिजूल में खर्ज होने वक्त को बचाकर उसका और ज्यादा क्रिएटिव इस्तेमाल कर पार रहें , बच्चे मां बाप की आंखों के सामने भी हैं और स्कूल की शिक्षा भी ले रहें तो क्या फिलहाल अभी जरूरत बनी टेक्नोलॉजी हमारी आदत नहीं बन जाएगी? और शायद बच्चे शुरू से ही टेक्नोलॉजी के विध्वंसक इस्तेमाल की जगह सकारात्मक इस्तेमाल की तरफ प्रेरित भी होंगे।