News18 : Aug 28, 2020, 04:15 PM
पटना। बिहार में दो प्रमुख सियासी खेमे हैं। एक महागठबंधन (Grand Alliance) तो दूसरा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी NDA। यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि दोनों ही खेमे के प्रमुख दल (एनडीए की बीजेपी और महागठबंधन की आरजेडी (RJD) का मुख्यमंत्री नहीं होता। दरअसल, इन दोनों ही खेमों में इस बात को लेकर हमेशा रस्साकशी भी चलती रहती है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (CM Nitish Kumar) उनके खेमे में आ जाएं और बिहार की कमान संभालें। दरअसल, बिहार में सियासी समीकरण कुछ ऐसा है कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस पाले में होते हैं उसी की सरकार बनती है। यह अचंभा इसलिए है कि जिस जाति से वे आते हैं, उनकी आबादी बिहार में बमुश्किल 4 प्रतिशत ही है। आखिर क्या कारण है जो वह बिहार की सियासत को संतुलित करते हैं।
बात फैक्ट्स की करें तो 2015 में नीतीश कुमार की जेडीयू लालू यादव के आरजेडी के साथ विधानसभा चुनाव लड़ी थी। इसमें बीजेपी 24।42 प्रतिशत वोटों के साथ 53 सीटें ही जीत सकी थी। तब राष्ट्रीय जनता दल 80 सीटों के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिली थीं। यानी सत्ता की कमान नीतीश कुमार के हाथ में रही। वहीं, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने एक बार फिर बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा जो एनडीए के लिए जबरदस्त जीत लेकर आई। इस चुनाव में बिहार की लोकसभा की 40 में से 39 सीटों पर एनडीए का कब्जा हो गया था। एनडीए को 53।3 प्रतिशत वोट मिले, जबकि अकेले बीजेपी को 23.6 प्रतिशत।यही स्थिति आरजेडी के साथ भी रहती है। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी सीएम नीतीश की पार्टी जेडीयू के साथ थी तो उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 80 सीटें झटक लीं। यानी 80 प्रतिशत नंबर के साथ पास हुई और सूबे की नंबर पार्टी बनी। महागठबंधन ने 46 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, लेकिन जेडीयू के हटते ही हालत ये हो गई कि लोकसभा चुनाव 2014 में महागठबंधन के पांच दलों के साथ भी वह शून्य पर सिमट गई।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को कुल मिलाकर 53।3 प्रतिशत वोट मिले। इनमें बीजेपी को 23।6 प्रतिशत, जेडीयू को 21.8 प्रतिशत एलजेपी को 7।9 प्रतिशत वोटरों का समर्थन मिला। वहीं, आरजेडी को 15।4 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.7 प्रतिशत वोट मिले।इससे पहले हमें ये भी जानना जरूरी है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े थे तो क्या नतीजे रहे थे। ऐसे में वोट शेयर पर गौर करें तो बीजेपी को 29.9, आरजेडी को 20.5 और जेडीयू को 16, कांग्रेस को 8.6, एलजेपी को 6.5 प्रतिशत मत मिले थे।2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 30 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसने 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी के साथ लड़ी लोजपा ने सात में से छह पर जीत दर्ज की थी। आरजेडी के साथ लड़ी कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी और दो सीटों पर ही जीत मिली। वहीं, 27 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली आरजेडी महज चार सीट ही जीत सकी, जबकि अकेली 38 सीटों पर चुनाव लड़ी जेडीयू के हिस्से सिर्फ 2 सीट ही आईं।
दूसरी ओर नीतीश कुमार का जो वोट बैंक है वह आम तौर पर पिछड़ा-अति पिछड़ा माना जाता है। लेकिन, यह केवल 21।1 प्रतिशत है। यह वोट बैंक भी छोटे-बड़े हिस्सों में बंटता है। दलित और महादलित मिलाकर 14.2%, कुर्मी 5%, कोइरी 6.4% आदिवासी 1.5% और अन्य जातियां 19.6% हैं। हालांकि, नीतीश कुमार को जिन दो जातियों का पक्का वोट मिलता है उनमें कुर्मी (नीतीश कुमार भी इसी जाति से आते हैं) और कोइरी के करीब 11।5 प्रतिशत वोट बनते हैं। इनमें से 8 से 10 प्रतिशत वोट उन्हें पक्के तौर पर मिलता रहा है।वहीं, दूसरी ओर सवर्णों में ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2%, भूमिहार 4.7%, कायस्थ 1.5% और बनिया 7.1% में से कुछ हिस्सा नीतीश कुमार को मिलता है। यही कारण है कि आरजेडी और बीजेपी के मजबूत वोट बैंक के होते हुए भी नीतीश कुमार ऐसा सियासी संतुलन बनाते हैं कि वह जिस ओर भी चले जाएं वोटों के समीकरण के लिहाज से जीत-हार का कारण बन जाता है। जाहिर है यही वजह है कि वे मोटे तौर पर 15 साल से लगातार सत्ता में हैं।
जाहिर है इतने कम वोट बैंक के साथ नीतीश कुमार खुद एक राजनीतिक ताकत तो नहीं हो सकते, लेकिन उनका साथ चाहे वो बीजेपी के साथ हो या फिर आरजेडी के साथ उसे निर्णायक बढ़त दिलाने का दम रखते हैं। दरअसल, जातिगत गठजोड़ में सीएम नीतीश ने अपने लिए 10 परसेंट का फॉर्मूला सेट (जातिगत गणित का जिसमें कुर्मी 4 प्रतिशत, कोयरी करीब छह प्रतिशत) कर लिया है जिसके इधर से उधर होने की स्थिति में सियासी बैलेंस भी उसी अनुकूल हो जाता है।दरअसल, बीजेपी और आरजेडी का अपना वोट बैंक है। सवर्ण जाति (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) के कुल वोट 17.2 प्रतिशत हैं और अगर 7.1 फीसदी वैश्य वोटर जोड़ दिए जाएं, तो यह 24.3% हो जाता है। लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में (क्रमश: 24.42% और 23.6%) यह वोट बैंक स्थिर नजर आता है। वहीं, आरजेडी के पास एम-वाय (मुस्लिम यादव) समीकरण है। 14.4 प्रतिशत यादव और 14।7 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 29।1 प्रतिशत हो जाता है। हालांकि, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आरजेडी को मिले वोट क्रमश: 15.4% और 18.5% वोट बताते हैं कि आरजेडी के आधार वोट में भी सेंध लग चुकी है।
बात फैक्ट्स की करें तो 2015 में नीतीश कुमार की जेडीयू लालू यादव के आरजेडी के साथ विधानसभा चुनाव लड़ी थी। इसमें बीजेपी 24।42 प्रतिशत वोटों के साथ 53 सीटें ही जीत सकी थी। तब राष्ट्रीय जनता दल 80 सीटों के साथ बड़ी पार्टी रही थी और जनता दल यूनाइटेड को 71 सीटें मिली थीं। यानी सत्ता की कमान नीतीश कुमार के हाथ में रही। वहीं, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू ने एक बार फिर बीजेपी के साथ चुनाव लड़ा जो एनडीए के लिए जबरदस्त जीत लेकर आई। इस चुनाव में बिहार की लोकसभा की 40 में से 39 सीटों पर एनडीए का कब्जा हो गया था। एनडीए को 53।3 प्रतिशत वोट मिले, जबकि अकेले बीजेपी को 23.6 प्रतिशत।यही स्थिति आरजेडी के साथ भी रहती है। वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में आरजेडी सीएम नीतीश की पार्टी जेडीयू के साथ थी तो उसने 101 सीटों पर चुनाव लड़ते हुए 80 सीटें झटक लीं। यानी 80 प्रतिशत नंबर के साथ पास हुई और सूबे की नंबर पार्टी बनी। महागठबंधन ने 46 प्रतिशत वोट हासिल किए थे, लेकिन जेडीयू के हटते ही हालत ये हो गई कि लोकसभा चुनाव 2014 में महागठबंधन के पांच दलों के साथ भी वह शून्य पर सिमट गई।
वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को कुल मिलाकर 53।3 प्रतिशत वोट मिले। इनमें बीजेपी को 23।6 प्रतिशत, जेडीयू को 21.8 प्रतिशत एलजेपी को 7।9 प्रतिशत वोटरों का समर्थन मिला। वहीं, आरजेडी को 15।4 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.7 प्रतिशत वोट मिले।इससे पहले हमें ये भी जानना जरूरी है कि वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में आरजेडी, जेडीयू और बीजेपी तीनों अलग-अलग चुनाव लड़े थे तो क्या नतीजे रहे थे। ऐसे में वोट शेयर पर गौर करें तो बीजेपी को 29.9, आरजेडी को 20.5 और जेडीयू को 16, कांग्रेस को 8.6, एलजेपी को 6.5 प्रतिशत मत मिले थे।2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 30 सीटों पर चुनाव लड़ी थी और उसने 22 सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी के साथ लड़ी लोजपा ने सात में से छह पर जीत दर्ज की थी। आरजेडी के साथ लड़ी कांग्रेस 12 सीटों पर चुनाव लड़ी और दो सीटों पर ही जीत मिली। वहीं, 27 सीटों पर चुनाव लड़ने वाली आरजेडी महज चार सीट ही जीत सकी, जबकि अकेली 38 सीटों पर चुनाव लड़ी जेडीयू के हिस्से सिर्फ 2 सीट ही आईं।
दूसरी ओर नीतीश कुमार का जो वोट बैंक है वह आम तौर पर पिछड़ा-अति पिछड़ा माना जाता है। लेकिन, यह केवल 21।1 प्रतिशत है। यह वोट बैंक भी छोटे-बड़े हिस्सों में बंटता है। दलित और महादलित मिलाकर 14.2%, कुर्मी 5%, कोइरी 6.4% आदिवासी 1.5% और अन्य जातियां 19.6% हैं। हालांकि, नीतीश कुमार को जिन दो जातियों का पक्का वोट मिलता है उनमें कुर्मी (नीतीश कुमार भी इसी जाति से आते हैं) और कोइरी के करीब 11।5 प्रतिशत वोट बनते हैं। इनमें से 8 से 10 प्रतिशत वोट उन्हें पक्के तौर पर मिलता रहा है।वहीं, दूसरी ओर सवर्णों में ब्राह्मण 5.7%, राजपूत 5.2%, भूमिहार 4.7%, कायस्थ 1.5% और बनिया 7.1% में से कुछ हिस्सा नीतीश कुमार को मिलता है। यही कारण है कि आरजेडी और बीजेपी के मजबूत वोट बैंक के होते हुए भी नीतीश कुमार ऐसा सियासी संतुलन बनाते हैं कि वह जिस ओर भी चले जाएं वोटों के समीकरण के लिहाज से जीत-हार का कारण बन जाता है। जाहिर है यही वजह है कि वे मोटे तौर पर 15 साल से लगातार सत्ता में हैं।
जाहिर है इतने कम वोट बैंक के साथ नीतीश कुमार खुद एक राजनीतिक ताकत तो नहीं हो सकते, लेकिन उनका साथ चाहे वो बीजेपी के साथ हो या फिर आरजेडी के साथ उसे निर्णायक बढ़त दिलाने का दम रखते हैं। दरअसल, जातिगत गठजोड़ में सीएम नीतीश ने अपने लिए 10 परसेंट का फॉर्मूला सेट (जातिगत गणित का जिसमें कुर्मी 4 प्रतिशत, कोयरी करीब छह प्रतिशत) कर लिया है जिसके इधर से उधर होने की स्थिति में सियासी बैलेंस भी उसी अनुकूल हो जाता है।दरअसल, बीजेपी और आरजेडी का अपना वोट बैंक है। सवर्ण जाति (ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, कायस्थ) के कुल वोट 17.2 प्रतिशत हैं और अगर 7.1 फीसदी वैश्य वोटर जोड़ दिए जाएं, तो यह 24.3% हो जाता है। लोकसभा और विधानसभा दोनों चुनावों में (क्रमश: 24.42% और 23.6%) यह वोट बैंक स्थिर नजर आता है। वहीं, आरजेडी के पास एम-वाय (मुस्लिम यादव) समीकरण है। 14.4 प्रतिशत यादव और 14।7 प्रतिशत मुस्लिम मिलकर 29।1 प्रतिशत हो जाता है। हालांकि, लोकसभा और विधानसभा चुनावों में आरजेडी को मिले वोट क्रमश: 15.4% और 18.5% वोट बताते हैं कि आरजेडी के आधार वोट में भी सेंध लग चुकी है।