Coronavirus / कोरोना की सुरक्षित और कारगर वैक्सीन के लिए और कितना इंतजार करना होगा?

AMAR UJALA : Aug 30, 2020, 02:54 PM
Coronavirus: 11 अगस्त 2020 को टीवी स्क्रीन पर आकर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ये दावा करते हैं कि उनके वैज्ञानिकों ने कोरोना वायरस के खिलाफ कारगर वैक्सीन तैयार कर ली है। रूस ने इस वैक्सीन को नाम दिया स्पुतनिक-वी। रूसी भाषा में 'स्पुतनिक' का अर्थ होता है सैटेलाइट। सोवियत यूनियन ने साल 1957 में विश्व का पहला सैटेलाइट बनाया था। उसका नाम भी स्पुतनिक ही रखा गया था।

वैक्सीन के नाम से ऐसा प्रतीत हुआ कि रूस एक बार फिर अमेरिका को ये जताना चाहता है कि जिस तरह वर्षों पहले अंतरिक्ष की रेस में सोवियत संघ ने अमेरिका को पछाड़ा था, उसी तरह वैक्सीन की रेस में रूस ने अमेरिका को मात दे दी है। रूसी राष्ट्रपति ने दावा किया कि उनकी बेटी को इस नई वैक्सीन का डोज दिया गया है और वो पूरी तरह स्वस्थ है।

लेकिन कोरोना वैक्सीन को लेकर पुतिन के दावों पर वैज्ञानिकों को संदेह है। रूस ने ये वैक्सीन लगभग 76 लोगों पर आजमाई, जबकि परीक्षण का तीसरा दौर बाकी है जिसमें किसी वैक्सीन को हजारों लोगों पर आजमाकर परखा जाता है। रूस भले ही अपने देश में इस वैक्सीन का इस्तेमाल करे, लेकिन दुनिया के बाकी देश इस पर अपनी मंजूरी की मोहर नहीं लगाना चाहेंगे। दुनियाभर के वैज्ञानिक कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने की कोशिशों में दिन-रात जुटे हुए हैं।

वैक्सीन जल्द बनाने का दबाव

कोरोना वायरस की पहली वैक्सीन कब तक बन सकती है, इस सवाल पर कोलंबिया यूनिवर्सिटी में वॉयरोलोजिस्ट एंजेला रैसमसन कहती हैं, "मुझे लगता है कि बहुत जल्दी होगा तब भी, साल 2020 के आख़िरी तक या साल 2021 के पहले कुछ महीनों तक ही कोरोना की वैक्सीन बन पाएगी, उससे पहले नहीं।"

कोरोना महामारी पर काबू पाने के लिए दुनियाभर के रिसर्च इंस्टीट्यूट और फॉर्मास्यूटिकल कंपनियां सौ से ज्यादा वैक्सीन पर काम कर रही हैं। चीन की तीन, अमरीका की दो और ब्रिटेन की एक वैक्सीन, विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक परीक्षण के अंतिम चरण में पहुंच चुकी हैं।

एंजेला रैसमसन के मुताबिक, ''इनमें तीन अलग टेक्नोलॉजी प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल हो रहा है। सब इस तरह काम करते हैं कि पहले इम्यून सिस्टम में कोरोना वायरस का पता लगाते हैं और फिर उस हिसाब से एंटीबॉडीज तैयार करते हैं।'' ब्रिटेन में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और ग्लोबल ड्रग्स फर्म-एस्टरजेनेका साथ मिलकर जो वैक्सीन बना रहे हैं, उसमें कोरोना वायरस से मिलते-जुलते वायरस का इस्तेमाल किया जा रहा है, जो आमतौर पर सिर्फ चिम्पैंजी पर असर करता है।

वहीं अमेरिका में दवा कंपनी मोडर्ना जिस mRNA वैक्सीन पर काम कर रही है, उसमें जेनेटिक मटैरियल की मदद से स्पाइक प्रोटीन तैयार किया जाता है। और तीसरी विधि वो है जिस पर चीन में सायनोवेक बायोटैक (Sinovac Biotech) दवा कंपनी काम कर रही है जिसमें इलाज के लिए वायरस का ही इस्तेमाल किया जाता है।

इन सभी वैक्सीन का सेफ्टी और इम्यून रिस्पांस जानने के लिए अपेक्षाकृत कम लोगों पर परीक्षण हो चुका है। उसके बाद फेज 3 ट्रायल की बारी है। एंजेला रैसमसन के मुताबिक, ''फेज 3 ट्रायल के लिए कई लोगों को वैक्सीन दी जाती है, हजारों लोगों पर उसे आजमाकर देखा जाता है। फिर देखा जाता है कि जब ये लोग सामान्य जिंदगी में वायरस के संपर्क में आते हैं तो कितने महफूज रहते हैं। बाकी लोगों से उनकी तुलना की जाती है और यदि वो बीमार नहीं पड़ते तो माना जाता है कि वैक्सीन सही तरीके से अपना काम कर रही है।''

वैक्सीन का ट्रायल जब पशुओं पर किया जाता है तो बात अलग होती है। लेकिन जब वही ट्रायल इंसानों पर किया जाता है, तो इस बात का खासतौर पर ख्याल रखा जाता है कि उनकी हेल्थ से किसी तरह का खिलवाड़ ना हो। एंजेला रैसमसन के अनुसार, ''इसके लिए ट्रायल पार्टिसिपेंट्स का रिक्रूटमेंट किया जाता है, जो उन इलाकों में रहते हैं जहां वायरस का ख़तरा ज्यादा है। यही वजह है कि जिन देशों में कोरोना के मामले कम हैं, वो अपनी वैक्सीन के फेज 3 के ट्रायल ब्राजील जैसे देशों में कर रहे हैं जहां संक्रमण के मामले बहुत अधिक हैं।''

वैज्ञानिकों पर वैक्सीन जल्द से जल्द बनाने का दबाव है और इसके साथ अन्य ख़तरें भी जुड़े हुए हैं। एंजेला रैसमसन का मानना है, ''अगर आपके पास समय नहीं है और आप बहुत जल्दी में काम कर रहे हैं तो डेटा को ठीक से समझ नहीं पाएंगे। ट्रायल पार्टिसिपेंट्स के लिए आप उन लोगों को रिक्रूट नहीं कर पाएंगे जो वाकई रिस्क जोन में रहते हैं।'' इसका नतीजा ये होता है कि वैक्सीन के ट्रायल के सटीक नतीजे नहीं मिलते और सटीक नतीजे नहीं मिलने पर कोई वैक्सीन कामयाब नहीं हो सकती।

वैक्सीन की मांग कैसे पूरी होगी?

प्रयोगशाला में वैक्सीन विकसित करना एक बात है और लाखों-करोड़ों लोगों के लिए बड़े पैमाने पर वैक्सीन का निर्माण करना दूसरी बात। वैक्सीन का निर्माण इतने बड़े पैमाने पर आखिर कैसे होगा? इस सवाल पर अमेरिका में येल इंस्टीट्यूट ऑफ ग्लोबल हेल्थ के डायरेक्टर साद उमर कहते हैं, "हमने इससे पहले, इतने बड़े पैमाने पर कभी कोई वैक्सीन नहीं बनाई। वैक्सीन का लाइसेंस मिलने के बाद उसका उत्पादन बढ़ाया जाता है। कोरोना वायरस ने जिस हिसाब से हाहाकार मचाया है, उतने ही बड़े पैमाने पर वैक्सीन के लिए निवेश किया जा रहा है। फिर भले ही उस निवेश का एक हिस्सा बेकार चला जाए।"

प्रयोगशाला से बाहर निकलकर बड़े पैमाने पर वैक्सीन बनाने के लिए कुछ बुनियादी-ढांचागत जरूरतें होती हैं, जिन्हें फॉर्मास्यूटिकल कंपनियों से आर्थिक मदद मिल रही है। अरबपति बिल गेट्स ने भी ऐसी कई फैक्ट्रीज को खड़ा करने के लिए आर्थिक मदद का वादा किया है। साद उमर के मुताबिक, ''पिछले दस वर्षों में, वैक्सीन को बनाने के लिए जरूरी बौद्धिक क्षमता का विस्तार हुआ है, जो अब पश्चिमी देशों के दायरे से बाहर निकलकर, भारत-चीन जैसे देशों में नजर आ रही है। इससे बड़े पैमाने पर वैक्सीन बनाने की गुंजाइश बढ़ गई है।"

वैक्सीन को बड़े पैमाने पर बनाने के बाद अगली चुनौती होगी उसे स्टोर करना, जिसके लिए बड़े-बड़े स्टोरेज की जरूरत होगी। दुनियाभर में सही तापमान पर सही तरीके से वैक्सीन को स्टोर करना बेहद चुनौतीपूर्ण होगा। खासकर उन देशों में जहां 24 घंटे बिजली आज भी नहीं होती। साद उमर के अनुसार, ''ध्यान देने वाली, छोटी-छोटी लेकिन बेहद महत्वपूर्ण बहुत सारी बातें होंगी, जैसे वैक्सीन रेफ्रिजेरेटर में किस तापमान पर स्टोर की जाएंगी, उन्हें सही तरीके से स्टोर करने के लिए कितना स्पेस लगेगा। डिस्ट्रीब्यूशन और स्टोरेज की प्लानिंग में ऐसी छोटी-छोटी बातों का बड़ा ख्याल रखना होगा।''

हालांकि, अन्य बीमारियों में इस्तेमाल होने वाली मौजूदा वैक्सींस का ट्रांसपोर्टेशन और स्टोरेज-नेटवर्क हमारे पास मौजूद है। लेकिन उसकी अपनी सीमाएं होंगी। साथ ही महामारी के बीच लोगों को वैक्सीन के डोज देना अपने आप में चुनौतीपूर्ण होगा। साद उमर कहते हैं, ''आप ये नहीं चाहेंगे कि वैक्सीन के लिए लोगों की लंबी-लंबी लाइन लगे, या कम जगह में बहुत सारे लोग जमा हो जाएं। आप ये नहीं चाहेंगे कि वैक्सीन पाने के लिए लोग इंफेक्शन का ख़तरा मोल लें। आप कहेंगे कि वैक्सीन तो मिल ही रही है, तो इंफेक्शन से क्या घबराना। लेकिन यही तो दिक्कत है। बेहतर से बेहतर वैक्सीन को भी असर दिखाने में कई हफ्ते लगते हैं। ज्यादातर देशों को अभी इस पर काम करना बाकी है कि मौजूदा हालात में लोगों को वैक्सीन आख़िर कैसे देंगे।''

हालांकि इस मामले में पुराना अनुभव भी काम आ सकता है, साद उमर उसकी ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ''पोलियो, स्मॉल पॉक्स, मेनिनजाइटिस के मामलों में हम वैक्सीन को लेकर, कई 'लॉजिस्टिकल चैलेंजेज' देख चुके हैं। हमारे पास 'टूल्स' पहले से मौजूद हैं, लेकिन फिर भी कोरोना वैक्सीन के लिए अब सटीक रणनीति बनाने की जरूरत है।'' लेकिन ये रणनीति भी इस बात पर निर्भर करेगी कि अलग-अलग देश एक-दूसरे के साथ किस प्रकार सहयोग करते हैं। इस सहयोग की कमी, सबसे कमजोर कड़ी साबित हो सकती है।

वैक्सीन और राष्ट्रवाद

कोरोना वायरस जब महामारी की शक्ल ले रहा था, तब अमरीका और चीन ट्रेड वॉर में उलझे हुए थे। फिर जब अमेरिका को 'प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट' की जरूरत पड़ी, दोनों के बीच में टैरिफ की मजबूत दीवार आ गई। इस बारे में वॉशिंगटन डीसी स्थित पीटरसन इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनेशनल इकोनॉमिक्स में सीनियर फैलो चेड बाउन कहते हैं, ''इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। जब पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट को लेकर इतनी कारोबारी पाबंदी हो सकती है तो राष्ट्रवाद, वैक्सीन के मामले में क्या असर दिखाएगा।''

पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट को लेकर, 'पहले मैं-पहले मैं' वाली बात सिर्फ अमरीका के साथ नहीं हुई। यूरोप में भी यही देखने में आया। कोरोना वायरस के लिए एंटी-वायरल ड्रग रैमडेसिवयर का भी यही हाल हुआ। अमेरिका ने तीन महीने का स्टॉक अपने नाम कर लिया। इस रवैये पर चेड बाउन कहते हैं, ''पहले मैं-पहले मैं करके सिर्फ अपने बारे में सोचने के कई बुरे नतीजे हो सकते हैं। ये पब्लिक हेल्थ का मामला है। महामारी को जड़ से मिटाने के लिए उस पर हर जगह काबू पाना जरूरी है। वरना समस्या बनी रहेगी। ऐसे तो यात्रा प्रतिबंध कभी ख़त्म ही नहीं होंगे।''

कोरोना वायरस से लड़ने वाली वैक्सीन दुनिया का कोई भी देश बनाए, उसे दुनिया के बाकी देशों के साथ सहयोग करना ही होगा, तभी वैक्सीन को बड़े पैमाने पर तैयार किया जा सकेगा। चेड बाउन का मानना है कि कई छोटी-छोटी, लेकिन बड़ी महत्वपूर्ण कड़ियां हैं, जिन्हें जोड़ना जरूरी है। एक उदाहरण देते हुए चेड बाउन कहते हैं, ''वैक्सीन के लिए छोटी बोतलें, ख़ास तरह की सिरिंज वगैरह की जरूरत हो सकती है जो हर देश के पास मौजूद नहीं होंगी। ऐसे में उन्हें आयात करने के सिवा कोई विकल्प नहीं होगा। वर्ल्ड ट्रेड और सप्लाई चेन के लिए हर विकल्प खुला रखना होगा। बहुत मुमकिन है कि वैक्सीन का कोई घटक ऐसा हो जिसके लिए दूसरे देश पर निर्भर रहना ही पड़े।''

फिर इस बात को भी दिमाग में रखना होगा कि वक्त की दौड़ में आगे निकलने वाली वैक्सीन जरूरी नहीं कि सबसे ज्यादा असरदार भी साबित हो। चेड बाउन के मुताबिक, ''ऐसा भी हो सकता है कि जो पहली वैक्सीन हो, जिसे बड़े पैमाने पर तैयार भी कर लिया जाए, वो बहुत असरदार ना निकले। मान लीजिए कि अमरीका ने सबसे पहले वैक्सीन बनाई, तब ऐसा भी हो सकता है कि वो अपनी वैक्सीन शेयर करने से मना कर दे।

हो ये भी सकता है कि दूसरी जो वैक्सीन यूरोप या ऑस्ट्रेलिया में बने, वो पहली वैक्सीन के मुकाबले ज्यादा असरदार साबित हो और वो देश अमरीका के साथ अपनी वैक्सीन शेयर ना करना चाहें। आपसी सहयोग की यही कमी, सबसे बड़ी कमजोरी बन सकती है।'' अंतरराष्ट्रीय राजनीति और दूसरी तकनीकी दिक्कतें अपनी जगह हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि कोरोना वायरस की वैक्सीन को लेकर हमने कुछ ज्यादा ही उम्मीदें पाल ली हैं?

मर्ज की बस एक दवा !

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में ग्लोबल हेल्थ के प्रोफेसर रिचर्ड फीचम का मानना है कि वैक्सीन को लेकर ज्यादा उम्मीदें पालना ठीक नहीं है। उनके मुताबिक, ''एक या दो बार ऐसा होता है कि बहुत जरूरत के समय हमें अचानक कुछ ऐसा मिल जाता है, जिससे समस्या ख़त्म हो जाती है। लेकिन ये दरअसल भ्रम होता है और भविष्य के लिए ऐसा कोई नजरिया ठीक नहीं है। रिचर्ड फीचम का मानना है कि अगले कुछ महीनों में कोरोना वायरस की वैक्सीन मिल जाएगी, ऐसा मानना ख़तरे से खाली नहीं और ऐसा मानने से कोरोना के ख़िलाफ जारी लड़ाई में ध्यान भटकता है।

वो कहते हैं, "इससे ऐसा प्रतीत होता है कि वैक्सीन आते ही समस्या का समाधान हो जाएगा। इसलिए हमें ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है। लेकिन किसी 'गेम-चेंजिंग वैक्सीन' के बारे में सोचना ही बड़ी समस्या की बात है।" 'गेम चेंजिंग वैक्सीन' उस वैक्सीन को कहते हैं जो 70 प्रतिशत से अधिक असरदार हो और जिसकी डोज लेने पर कई वर्षों तक इम्युनिटी को कोई खतरा ना हो। ऐसा कई बार हो चुका है जब किसी वैक्सीन के इंतजार की वजह से कई चीजों से ध्यान हट गया और कई बातें प्राथमिकता सूची से बाहर हो गईं। फिर एक दिन आता है जब वैक्सीन के लिए उम्मीदें ही ख़त्म हो जाती हैं और तब कहीं जाकर वैज्ञानिक दूसरे विकल्प तलाशते हैं जो कई बार बड़े कामयाब होते हैं।

एचआईवी-एड्स इसका सबसे अच्छा उदाहरण कहा जा सकता है। साल 1984 में अमरीकी अधिकारियों ने दावा किया था कि एचआईवी की वैक्सीन दो वर्ष के भीतर टेस्टिंग के लिए तैयार हो जाएगी। लेकिन वैज्ञानिक एचआईवी की कोई वैक्सीन आज तक नहीं बना पाए। इसी संदर्भ में रिचर्ड फीचम का मानना है, ''1980 के दशक से 1990 के दशक तक, हमने वैक्सीन का इंतजार किया और इस दौरान हम दूसरे विकल्पों के बारे में सोच नहीं पाए।

बहुत समय गुजर जाने के बाद हमने इस बारे में गंभीरता से सोचा कि एंटी-रेट्रो-वायरल ड्रग्स को मिलाकर भी कुछ किया जा सकता है, जो बाद में गेम चेंजर साबित हुए। लेकिन एचआईवी-एड्स का पता चलने के चार दशक बाद, बेहिसाब पैसा खर्च करने के बाद, साइंटिफिक तरक्की के बावजूद हमारे पास उसकी कोई वैक्सीन नहीं है। हालांकि हमने एचआईवी का उपचार खोज लिया है जिससे वायरस को फैलने और लोगों की जान बचाने में बहुत मदद मिली है।''

किसी वैक्सीन को बनाने में आमतौर पर कई वर्ष लग जाते हैं, लेकिन वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जिस गति से काम हो रहा है, उस हिसाब से कोरोना वायरस की वैक्सीन अपेक्षाकृत कम समय में तैयार हो सकती है। कई संभावित वैक्सीन अपने परीक्षण के अंतिम चरण में पहुंच गई हैं, लेकिन फिर भी ये पता लगाने में कई महीने लग सकते हैं कि नई वैक्सीन असरदार होने के साथ पूरी तरह सुरक्षित है भी या नहीं। हालांकि इस बात की भी आशंका है कि सुरक्षित और असरदार वैक्सीन बनाने में कई बरस लग सकते हैं, या एचआईवी एड्स की तरह कोरोना वायरस की भी कभी कोई वैक्सीन ना मिले। लेकिन फिर भी आशा से आकाश बंधा है।

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