बिहार / प्रवासियों को लेकर नीतीश के सुर बदलने के मायने, लॉकडाउन में लौटे 23 लाख लोगों के वोट क्यों हैं खास

AajTak : Aug 29, 2020, 07:10 AM
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस वर्ष के स्वतंत्रता दिवस भाषण में यह खास तौर पर जिक्र किया कि राज्य के क्वारनटीन सेंटर्स में 15 लाख से अधिक प्रवासियों का ध्यान रखा गया जो लॉकडाउन के दौरान गृहराज्य वापस आ गए। मुख्यमंत्री ये बताना भी नहीं भूले कि हर एक प्रवासी को लौटने के बाद 5,300 रुपये दिए गए।

नीतीश कुमार ने कहा कि राज्य सरकार ने लॉकडाउन के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे लगभग 21 लाख बिहार के लोगों में से हर एक के बैंक खाते में सीधे 1,000-1,000 रुपए भेजे। संयोग से, कुछ महीने पहले ही, जब देश भर में लॉकडाउन शुरू हुआ तो कुमार प्रवासियों को वापस लेने के खिलाफ थे। 15 अगस्त को, वे अपने भाषण के पहले कुछ अंशों में ही प्रवासियों को अपनी सरकार की ओर से दी गई मदद का उल्लेख करते दिखे। चुनाव की ओर बढ़ रहे राज्य के मुख्यमंत्री के लहजे में बदलाव साफ देखा जा सकता था। ये अपने आप में ही प्रवासी वोट की अहमियत को दर्शाता है।


प्रवासियों को लुभाने की कोशिश की वजह?

गरीब कल्याण रोजगार अभियान (जीकेआरए) पोर्टल के मुताबिक कोरोना महामारी के दौरान 23।6 लाख प्रवासियों की बिहार में घर वापसी हुई है। ये आंकड़ा और किसी भी राज्य में लौटे प्रवासियों की संख्या की तुलना में कहीं ज्यादा है। यह संख्या 2015 के विधानसभा चुनाव में इस वर्ग की ओर से डाले गए कुल मतों से 6 प्रतिशत से अधिक है। 

बिहार के 38 में से 16 जिलों का डेटा बताता है कि वहां 5 प्रतिशत से अधिक कामकाजी पुरुषों की आबादी अंतर्राज्यीय प्रवासियों की हैं। उनमें से बड़ी संख्या में अपने मूल स्थानों पर लौट आए हैं। बिहार में अक्टूबर-नवंबर में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। ऐसे में मुख्यमंत्री कुमार प्रवासियों की चिंताओं को लेकर बहुत सतर्क हैं। 

इन 16 जिलों में राज्य की कुल 243 विधानसभा सीटों में से 123 सीटें आती हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक प्रवासियों के बीच कुमार को लेकर नाराजगी नजर आती है। ये शायद महामारी के दौरान लॉकडाउन में उन्हें पेश आई दिक्कतों की वजह से है।;


बिहार के प्रवासी: इतिहास और उनकी बढ़ती संख्या

2011 की जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश के बाद प्रवासियों के मूल वाला बिहार दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। भारत में कुल अंतर्राज्यीय प्रवासियों में से करीब 14 प्रतिशत (या 75 लाख) बिहार से हैं।

बिहार में रोजगार के अवसरों की कमी कम उद्योगों की वजह से है (यहां केवल 8 प्रतिशत श्रम बल औद्योगिक गतिविधियों में लगा हुआ है, जबकि भारत में ये औसत 23 प्रतिशत का है)। यह एक ऐसा राज्य है जहाँ 91।2 प्रतिशत (कृषि जनगणना 2015-16 के मुताबिक) घरों के पास मामूली खेती की जमीन (यानी एक हेक्टेयर से कम) है। अधिक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इन घरों में, ऑपरेशनल लैंड होल्डिंग्स (जोत की जमीन) का औसत आकार सिर्फ 0।25 हेक्टेयर है।

कम उद्योगों और कम लैंड होल्डिंग क्षमता ने कई लोगों को गरीबी और भुखमरी की ओर धकेल दिया है। 2012 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार की आबादी का एक तिहाई (34 प्रतिशत) हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे था। ऐसी स्थिति ने यहां के लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार की तलाश में दूसरे राज्यों का रुख करने को मजबूर किया।

हरित क्रांति से पहले, बिहार से अधिकतर प्रवासी काम की तलाश में पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल जाते थे। यह ट्रेंड 70 के दशक में बदल गया, जब कृषि और औद्योगिक गतिविधियों में अवसरों की बहुतायत की वजह से उनके पसंदीदा स्थान पंजाब और हरियाणा बन गए। 

1990 के दशक में,  काम की तलाश के लिए पसंद वाली जगहों में अधिक उद्योगों वाले दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक जुड़ गए। ट्रेंड बताता है कि बिहार से काम के लिए बाहर जाने वाले लोगों की संख्या लगातार बढती रही। सिर्फ 2007-12 की अवधि अपवाद है। उस अवधि में सर्विस सेक्टर के बढ़ने से राज्य में रोजगार के कुछ अवसर राज्य में उत्पन्न हुए।


बिहार चुनाव नतीजों पर प्रवासी वोटों का असर

आवास और शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय के तहत आने वाले प्रवासन कार्यकारी समूह की 2017 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 17 जिले ही पुरुषों में कुल अंतर्राज्यीय प्रवासन का 25 फीसदी हिस्सा देते हैं। इनमें से छह जिले बिहार से हैं- मधुबनी, दरभंगा, सिवान, सारण, समस्तीपुर और पटना।

बिहार से प्रवासन यानि माइग्रेशन इतना बड़ा है कि इसके 38 में से 16 जिले ऐसे हैं जहाँ 5 प्रतिशत से अधिक कामकाजी पुरुष आबादी अंतर्राज्यीय प्रवासी हैं। इन 16 जिलों में राज्य की कुल विधानसभा सीटों में से आधे से अधिक सीटें आती हैं। इन जिलों में से अधिकतर उत्तरी हिस्से में हैं या गंगा की सीमा से लगे हैं। 13 जिलों की प्रति व्यक्ति आय राज्य औसत से कम है।

इन जिलों में बड़ा हिस्सा पिछड़ी जाति की आबादी का है, खासकर ओबीसी और मुसलमान। बिहार की आबादी का 20 प्रतिशत से थोड़ा अधिक हिस्सा निम्न ओबीसी (कोइरी, कुर्मी और यादवों को छोड़कर) का है। पिछले तीन दशकों में, यह ओबीसी और विशेष रूप से निम्न ओबीसी रहे हैं, जिनकी राज्य में चुनावी नतीजों पर छाप साफ दिखाई दी।

1990 के दशक और 2000 के दशक की शुरुआत में, लालू प्रसाद यादव ने ओबीसी के साथ-साथ यादवों और मुसलमानों के समर्थन का फायदा लिया। उन्होंने 15 साल तक बिहार पर शासन किया। 2005 से, निम्न ओबीसी का नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन की ओर झुकाव हुआ।

बिहार के सियासी गणित को सीएसडीएस-लोकनीति सर्वेक्षण के आंकड़ों से बेहतर समझा जा सकता है। 2000 के विधानसभा चुनाव में, लालू के नेतृत्व वाले आरजेडी गठबंधन को 35 फीसदी निम्न ओबीसी वोट मिले। वहीं जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 25 फीसदी वोट मिले। 2010 विधानसभा चुनाव में, आरजेडी गठबंधन को केवल 13 प्रतिशत ओबीसी समर्थन प्राप्त हुआ, जबकि जेडीयू-बीजेपी गठबंधन को 55 प्रतिशत समर्थन मिला।

2005 में सत्ता परिवर्तन से दूसरे राज्यों को होने वाला प्रवासन बेशक न रुका हो लेकिन कानून और व्यवस्था के सुधरने, सड़क आधारभूत ढांचा बेहतर होने और दहाई के आंकड़े वाली जीडीपी वृद्धि ने लोगों की उम्मीदों को बढ़ाया। ये अधिकतर खनन और सर्विस सेक्टर की तरक्की की वजह से हुआ।

नीतीश आशा की किरण बन गए और उन्होंने जहां भी गठबंधन किया, वे अपने साथ निम्न ओबीसी वोटों का बड़ा हिस्सा ले गए।मसलन, 2010 में 55 फीसदी निम्न ओबीसी ने एनडीए को वोट दिया, लेकिन ठीक पांच साल बाद, जब नीतीश यूपीए में शामिल हुए, तो यूपीए को 35 फीसदी समर्थन मिला, जो 2010 में यूपीए को मिले 13 फीसदी समर्थन से 22 फीसदी अधिक था।

यही समर्थन, 123 सीटें जो हमारी स्टडी के तहत हैं, वहां बड़ी जीत का आधार बना। 2010 में, जेडीयू-बीजेपी गठबंधन ने 123 में से 106 सीटें जीतीं, जबकि आरजेडी केवल 16 और कांग्रेस एक पर ही विजय प्राप्त कर सकी। 2015 में जेडीयू-आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन ने 123 में से 96 सीटें जीतीं, जबकि बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए केवल 24 सीटें जीत सका।


आगे क्या?

बिहार में विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होने की संभावना है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी-जेडीयू-एलजेपी गठबंधन का शानदार प्रदर्शन रहा। उसका यूपीए के साथ उसके वोट शेयर का अंतर 20 फीसदी से अधिक था। यह स्थिति आगामी चुनाव में एनडीए को लाभ में रख सकती है।

हालांकि, चार राज्यों में हालिया विधानसभा चुनावों में दो अहम तथ्य एनडीए के लिए चिंता बढ़ाने वाले हो सकते हैं। पहला, 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद, बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए का विधानसभा चुनावों में लगातार वोट शेयर कम हो रहा है (महाराष्ट्र को छोड़कर)।

दूसरा, रिवर्स माइग्रेशन संकट नीतीश को भारी पड़ सकता है क्योंकि कई ग्राउंड रिपोर्ट्स प्रवासियों के बीच भारी नाराजगी का संकेत देती हैं। यह मुद्दा इस मायने में भी खतरनाक है कि राज्य प्रवासियों की ओर से बाहर से आने वाली राशि (रेमिटेंस) का बड़ा हिस्सा खो सकता है। बिहार में, ये रकम जीडीपी की 5 प्रतिशत से अधिक बैठती है, जो केरल के बाद देश में दूसरी सबसे अधिक है।

उस पर कोरोना महामारी संकट ने नीतीश के "विकास मॉडल" में एक फॉल्ट लाइन को उजागर किया है। 15 साल सत्ता में रहने के बावजूद, बिहार में लोगों को अभी भी भारी रोजगार संकट का सामना करना पड़ रहा है, महामारी ने स्थिति और विकट कर दी। CMIE डेटा से पता चलता है कि बिहार में बेरोजगारी दर जुलाई में 12।2 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत से 5 प्रतिशत अधिक थी। 

बिहार की वार्षिक बेरोजगारी दर 10।2 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत 5।8 प्रतिशत से बहुत अधिक थी। दहाई अंकों की बेरोजगारी दर और 23 लाख से अधिक लौटे प्रवासी। ऐसे में यक्ष प्रश्न है कि नीतीश क्या पिछले दो विधानसभा चुनावों के अपने प्रदर्शन को दोहरा सकते हैं?

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