Aravalli Hills: अरावली का संकट: खनन से सिकुड़ती पर्वतमाला, 1990 से अब तक की पूरी कहानी

Aravalli Hills - अरावली का संकट: खनन से सिकुड़ती पर्वतमाला, 1990 से अब तक की पूरी कहानी
| Updated on: 23-Dec-2025 05:50 PM IST
अरावली पर्वतमाला, जो दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान और गुजरात के लिए एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक ढाल है, गंभीर संकट का सामना कर रही है। खनन गतिविधियों के कारण यह प्राचीन पर्वत श्रृंखला लगातार सिकुड़ती जा रही है, जिससे पर्यावरणविदों और आम जनता में गहरी चिंता व्याप्त है। कुछ राज्यों में तो स्थिति इतनी भयावह हो गई है कि अरावली पर्वत का आधा हिस्सा या कहीं-कहीं तो पूरी की पूरी पहाड़ी ही गायब हो चुकी है। खनन के जरिए पहाड़ों से पत्थरों का बड़े पैमाने पर निष्कर्षण किया गया है, जिससे अरावली की स्थिति कंकाल जैसी हो गई है। यह मुद्दा, जो दशकों से पर्यावरण संरक्षण की बहस का केंद्र रहा है, सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया फैसले के बाद एक बार फिर गरमा गया है। सोशल मीडिया पर भी अरावली को बचाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं, जो इसकी पारिस्थितिकीय महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।

1990 के दशक में अरावली क्षेत्र में अवैध खनन की शिकायतें तेजी से बढ़ने लगीं। इन गतिविधियों के कारण पर्यावरणीय क्षरण, वायु प्रदूषण और जल संकट जैसे गंभीर मुद्दे सामने आने लगे, जिससे इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा नकारात्मक प्रभाव पड़ा और इन चिंताओं को देखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार हस्तक्षेप किया और 1992 में अरावली के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में खनन पर रोक लगा दी। हालांकि, बड़े पैमाने पर प्रतिबंध 2000 के दशक में ही लागू हुए और हरियाणा के कोट और आलमपुर में अरावली रेंज में अवैध खनन की शिकायतों की जांच के लिए सेंट्रल एम्पावर्ड कमेटी (सीईसी) का गठन किया गया। अक्टूबर 2002 में, सीईसी ने अपनी रिपोर्ट में पाया कि खनन से पहाड़ियां नष्ट हो रही हैं और पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंच रही है, जिसके बाद हरियाणा और राजस्थान में अरावली में खनन पर पूर्ण रोक लगा दी गई।

गहलोत सरकार की अपील और मर्फी फॉर्मूला (2003)

सीईसी की सिफारिशों और सुप्रीम कोर्ट के पूर्ण प्रतिबंध के बाद, तत्कालीन अशोक गहलोत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की। कोर्ट ने राजस्थान में मौजूदा खनन पट्टों पर खनन जारी रखने की अनुमति दी, लेकिन नए पट्टों पर रोक लगा दी। यह फैसला खनन उद्योग के लिए एक अस्थायी राहत लेकर आया, लेकिन पर्यावरणवादियों ने इसे अपर्याप्त माना, क्योंकि यह समस्या के मूल कारण को संबोधित नहीं कर रहा था और इस संकट के समाधान के लिए, गहलोत सरकार ने 2003 में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने अमेरिकी भू-आकृति विशेषज्ञ रिचर्ड मर्फी के सिद्धांत को आधार बनाया, जिसके अनुसार समुद्र तल से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ी को ही अरावली माना गया। 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली न मानते हुए खनन योग्य घोषित किया गया। यह फॉर्मूला अत्यंत विवादास्पद साबित हुआ, क्योंकि इसने अरावली के कई निचले इलाकों को खनन के लिए खोल दिया, जिससे पर्यावरण संरक्षण के प्रयासों को बड़ा झटका लगा।

वसुंधरा राजे सरकार और खनन गतिविधियों में वृद्धि (2003-2005)

दिसंबर 2003 में, वसुंधरा राजे सत्ता में आईं और उनके शासनकाल में इसी मर्फी फॉर्मूले के आधार पर खनन पट्टे दिए जाने लगे। इस नीति के कारण खनन गतिविधियों में तेजी से वृद्धि हुई, जिससे पर्यावरणीय चिंताएं और भी गहरी हो गईं। खनन लॉबी को इस फॉर्मूले से काफी फायदा हुआ, लेकिन अरावली के नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर इसका विनाशकारी प्रभाव पड़ा और मामला एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां पर्यावरण संरक्षण के लिए याचिकाएं दायर की गईं।

सुप्रीम कोर्ट के नए प्रतिबंध और पर्यावरणीय मूल्यांकन की अनिवार्यता (2005-2009)

बंधुआ मुक्ति मोर्चा द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने अप्रैल 2005 में नए खनन पट्टों पर रोक लगा दी और कोर्ट ने पर्यावरण संरक्षण को प्राथमिकता देते हुए स्पष्ट किया कि बिना उचित पर्यावरणीय मूल्यांकन के खनन गतिविधियों की अनुमति नहीं दी जा सकती। यह फैसला पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। इसके बाद, 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा के फरीदाबाद, गुरुग्राम और मेवात जिलों में खनन पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया और यह निर्णय अवैध खनन और पर्यावरण को हो रहे गंभीर नुकसान के खिलाफ एक बड़ा और निर्णायक कदम था, जिसने इन क्षेत्रों में खनन गतिविधियों पर लगाम लगाई।

फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया की रिपोर्ट और अरावली की नई परिभाषा (2010-2025)

2010 में, फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (एफएसआई) की एक रिपोर्ट ने चौंकाने वाले खुलासे किए। रिपोर्ट में बताया गया कि राजस्थान में अवैध खनन के कारण अरावली की कई पहाड़ियां नष्ट हो रही हैं, खासकर अलवर और सिरोही जिलों में स्थिति अधिक गंभीर थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट पर संज्ञान लेते हुए अरावली को ठीक से परिभाषित करने और उसके संरक्षण के लिए विस्तृत निर्देश जारी किए और नवंबर 2025 में (जैसा कि स्रोत पाठ में उल्लेख है), केंद्र सरकार ने मर्फी फॉर्मूले को अपनाते हुए अरावली की एक नई परिभाषा दी। इसके तहत, 100 मीटर या इससे अधिक ऊंचाई वाली पहाड़ी को अरावली माना। जाएगा, और ऐसी दो पहाड़ियों के बीच 500 मीटर तक का क्षेत्र संरक्षित होगा। सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को इस परिभाषा को मंजूरी दे दी और इसे पूरे अरावली क्षेत्र में लागू कर दिया।

पॉलीगॉन लाइन से कंटूर लाइन में बदलाव का विवाद (2008-2025)

इस पूरे विवाद की एक प्रमुख वजह पॉलीगॉन लाइन से कंटूर लाइन में बदलाव है। 2008 में जीएसआई (जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया) के सर्वे में पॉलीगॉन लाइन को आधार बनाया गया था, जहां 100 मीटर या अधिक ऊंची दो पहाड़ियों के बीच 100 मीटर से कम ऊंची पहाड़ी को भी पॉलीगॉन माना जाता था। पॉलीगॉन को मुख्य पहाड़ियों का हिस्सा मानकर संरक्षण दिया जाता था, जिससे छोटे पहाड़ी क्षेत्रों को भी सुरक्षा मिलती थी और लेकिन, 2025 में इसे बदलकर कंटूर लाइन कर दिया गया, जहां पहाड़ियों की समान लाइन में छोटी पहाड़ी को कंटूर कहा गया और कंटूर में खनन की अनुमति होगी। पर्यावरण संरक्षण की मांग करने वालों का कहना है कि यह बदलाव अरावली के लगभग 90 प्रतिशत हिस्से को खनन के लिए खोल देगा, जो पारिस्थितिकी तंत्र के लिए विनाशकारी साबित हो सकता है।

अरावली का राजनीतिकरण और भविष्य की चिंताएं

अरावली का विवाद अब एक राजनीतिक मुद्दा भी बन चुका है। हरियाणा और राजस्थान में खनन लॉबी काफी मजबूत है, जो लगातार अपने हितों को साधने का प्रयास करती है। दूसरी ओर, बंधुआ मुक्ति मोर्चा और अन्य गैर-सरकारी संगठन जैसे पर्यावरण समूह अदालतों में इस लड़ाई को लड़ रहे हैं और सुप्रीम कोर्ट की 2025 की परिभाषा से खनन गतिविधियों में फिर से वृद्धि होने की आशंका है, जबकि पर्यावरणीय रिपोर्ट्स लगातार चेतावनी दे रही हैं। अरावली दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र के लिए जल संरक्षण का एक मुख्य स्रोत है, और इसके नष्ट होने से इस घनी आबादी वाले क्षेत्र में जल संकट और गहरा सकता है।

पर्यावरण मंत्रालय का दावा और विशेषज्ञों की असहमति

सुप्रीम कोर्ट की हालिया सुनवाई में पर्यावरण मंत्रालय ने दावा किया है कि खनन केवल सीमित क्षेत्र (0. 19 प्रतिशत) में ही होगा और हालांकि, विशेषज्ञ इस दावे को अपर्याप्त मानते हैं और उनका कहना है कि नई परिभाषा और कंटूर लाइन में बदलाव से अरावली के बड़े हिस्से को खनन के लिए खोल दिया जाएगा, जिससे दीर्घकालिक पर्यावरणीय क्षति होगी। यह पूरा मामला स्पष्ट करता है कि अरावली के संरक्षण की लड़ाई लंबी और जटिल रही है। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे स्थापित होगा, यह समय बताएगा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से उम्मीद है कि संरक्षण को प्राथमिकता मिलेगी और अरावली के भविष्य को सुरक्षित किया जा सकेगा।

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