Aravalli Hills: अरावली रेंज विवाद: सुप्रीम कोर्ट में आज अहम सुनवाई, करोड़ों लोगों की निगाहें टिकीं

Aravalli Hills - अरावली रेंज विवाद: सुप्रीम कोर्ट में आज अहम सुनवाई, करोड़ों लोगों की निगाहें टिकीं
| Updated on: 29-Dec-2025 08:52 AM IST
अरावली पर्वतमाला, जो भारत के पारिस्थितिक संतुलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, एक बार फिर गहन कानूनी और पर्यावरणीय विवाद के केंद्र में आ गई है। इस विवाद का मूल अरावली की परिभाषा को लेकर है, जिसे केंद्र सरकार ने एक नई सिफारिश के माध्यम से बदलने का प्रस्ताव किया है। आज का दिन इस लंबी कानूनी लड़ाई में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है, क्योंकि देश की सर्वोच्च अदालत, सुप्रीम कोर्ट, इस संवेदनशील मामले पर सुनवाई करने जा रही है। करोड़ों लोगों की निगाहें सुप्रीम कोर्ट पर टिकी हैं, यह जानने के लिए कि अरावली के भविष्य को लेकर क्या दिशा-निर्देश जारी होंगे।

सुप्रीम कोर्ट की वैकेशन बेंच में सुनवाई

आज इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत की अध्यक्षता वाली वैकेशन बेंच करेगी। इस बेंच में जस्टिस जेके माहेश्वरी और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह भी शामिल होंगे, जो इस जटिल मुद्दे के विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे। यह मामला सीजेआई के वैकेशन कोर्ट में पांचवें नंबर पर सूचीबद्ध है, जो इसकी तात्कालिकता और महत्व को दर्शाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर स्वतः संज्ञान लिया है, जो यह इंगित करता है कि अदालत ने इस मुद्दे की गंभीरता और इसके संभावित दूरगामी प्रभावों को पहचाना है और यह सुनवाई केंद्र और राज्य सरकारों के लिए नए और कड़े निर्देश जारी कर सकती है, जिससे अरावली के संरक्षण की दिशा में एक नई राह खुल सकती है।

नई परिभाषा का विवाद और व्यापक विरोध

विवाद की जड़ केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की समिति की वह सिफारिश है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2025 को स्वीकार किया था। इस नए सुझाव के अनुसार, अरावली रेंज का हिस्सा केवल उन्हीं पहाड़ियों को माना जाएगा जिनकी ऊंचाई 100 मीटर या उससे अधिक है। इस परिभाषा ने पूरे देश में, विशेषकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में, तीव्र विरोध को जन्म दिया है। पर्यावरणविदों और विपक्षी दलों का तर्क है कि यह नई परिभाषा अरावली के छोटे हिस्सों को कानूनी संरक्षण से बाहर कर देगी, जिससे इन क्षेत्रों में अवैध और अनियमित खनन को बढ़ावा मिलेगा। उनका मानना है कि यह कदम पारिस्थितिकी के लिए एक बड़ा खतरा पैदा करेगा, क्योंकि अरावली न केवल जैव विविधता का। घर है, बल्कि दिल्ली-एनसीआर जैसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों के लिए एक महत्वपूर्ण जल पुनर्भरण क्षेत्र और प्रदूषण अवरोधक भी है।

अरावली का ऐतिहासिक कानूनी संरक्षण

अरावली पर्वतमाला का संरक्षण एक लंबा और जटिल कानूनी इतिहास रखता है, जो 1985 से चला आ रहा है और सुप्रीम कोर्ट ने गोदावर्मन मामले और एम. सी. मेहता मामले जैसे ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से अरावली को व्यापक संरक्षण प्रदान किया है। इन निर्णयों ने अरावली को एक नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में मान्यता दी है, जिसके संरक्षण के लिए सख्त नियमों और विनियमों की आवश्यकता है। इन कानूनी मिसालों ने यह सुनिश्चित किया है कि अरावली के किसी भी हिस्से में विकास या। खनन गतिविधियों को पर्यावरण पर उनके प्रभाव का सावधानीपूर्वक मूल्यांकन किए बिना अनुमति नहीं दी जा सकती। इसलिए, नई परिभाषा, जो इस ऐतिहासिक संरक्षण को कमजोर करने की क्षमता रखती है, ने गंभीर चिंताएं पैदा। की हैं और इसे मौजूदा कानूनी ढांचे के साथ एक विरोधाभास के रूप में देखा जा रहा है।

पर्यावरणविदों और विपक्षी दलों की चिंताएं

पर्यावरणविदों और विपक्षी दलों ने नई परिभाषा के संभावित परिणामों के बारे में गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका मुख्य तर्क यह है कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को अरावली की श्रेणी से बाहर करने से इन क्षेत्रों में खनन गतिविधियों के लिए द्वार खुल जाएंगे। यह न केवल अरावली के प्राकृतिक स्वरूप को नष्ट करेगा, बल्कि क्षेत्र की जैव विविधता, भूजल स्तर और वायु गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा। दिल्ली-एनसीआर जैसे क्षेत्रों में, जहां वायु प्रदूषण एक गंभीर समस्या है, अरावली एक प्राकृतिक फिल्टर के रूप में कार्य करती है। इसकी अखंडता को कमजोर करने से इस क्षेत्र में पर्यावरणीय चुनौतियां और बढ़ सकती हैं। इसके अलावा, उनका मानना है कि यह कदम उन छोटे पहाड़ी पारिस्थितिकी तंत्रों को भी खतरे में डाल देगा जो अरावली के बड़े हिस्से का अभिन्न अंग हैं, भले ही वे व्यक्तिगत रूप से 100 मीटर की ऊंचाई तक न पहुंचते हों।

केंद्र सरकार का स्पष्टीकरण और रुख

हालांकि, केंद्र सरकार ने इन चिंताओं को 'गलतफहमी' करार दिया है और सरकार का कहना है कि नई परिभाषा का उद्देश्य अरावली के संरक्षण को कमजोर करना नहीं है, बल्कि एक स्पष्ट और वैज्ञानिक आधार पर इसकी पहचान करना है। केंद्र सरकार ने जोर देकर कहा है कि अरावली का संरक्षण जारी रहेगा। और नई परिभाषा से इसके समग्र संरक्षण प्रयासों पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार का तर्क है कि यह कदम केवल उन क्षेत्रों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने में मदद करेगा जिन्हें अरावली के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए, जिससे संरक्षण और विकास गतिविधियों के बीच संतुलन बनाना आसान हो जाएगा। हालांकि, आलोचक इस स्पष्टीकरण से संतुष्ट नहीं हैं और उनका मानना है कि यह परिभाषा अंततः खनन लॉबी के लिए रास्ता साफ करेगी।

खनन पट्टों पर केंद्र सरकार की रोक

इस बीच, हरियाणा के वन विभाग के पूर्व अधिकारी आर. पी. बलवान ने भी इस नई परिभाषा को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी है। उन्होंने गोदावर्मन मामले में एक याचिका दायर की है, जिसमें केंद्र सरकार, राजस्थान, हरियाणा और पर्यावरण मंत्रालय को पक्षकार बनाया गया है। बलवान की याचिका इस बात पर जोर देती है कि अरावली की नई। परिभाषा पर्यावरण संरक्षण के सिद्धांतों और मौजूदा कानूनी मिसालों का उल्लंघन करती है। कोर्ट ने सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी कर दिया है और इस मामले की सुनवाई शीतकालीन अवकाश के बाद होगी और यह दर्शाता है कि अरावली विवाद को विभिन्न स्तरों पर कानूनी चुनौती मिल रही है, जो इस मुद्दे की जटिलता और व्यापकता को उजागर करता है। विवाद बढ़ने और सार्वजनिक विरोध के बाद, केंद्र सरकार ने 24 दिसंबर को अरावली क्षेत्र में नए खनन पट्टों पर रोक लगाने के आदेश जारी किए।

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि अरावली श्रृंखला में किसी भी नई खनन लीज को मंजूरी नहीं दी जाएगी और सभी राज्य सरकारों को इस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाना होगा और मंत्रालय के अनुसार, इस आदेश का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र तक फैली इस सतत पर्वत श्रृंखला की रक्षा करना और अनियमित खनन को रोकना है। यह कदम सरकार की ओर से एक प्रतिक्रिया थी, जो यह दर्शाती है कि वह इस मुद्दे की गंभीरता और सार्वजनिक चिंताओं से अवगत है। हालांकि, यह रोक केवल नए खनन पट्टों पर लागू होती है, और मौजूदा खनन गतिविधियों या नई परिभाषा के दीर्घकालिक प्रभावों पर इसका क्या असर होगा, यह अभी भी स्पष्ट नहीं है आज की सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई अरावली पर्वतमाला के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण है और यह देखना होगा कि अदालत इस जटिल मुद्दे पर क्या रुख अपनाती है और क्या वह केंद्र सरकार की नई परिभाषा को बरकरार रखती है या उसे रद्द करती है। इस निर्णय का न केवल अरावली के पारिस्थितिकी तंत्र पर, बल्कि राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर के लाखों निवासियों के जीवन पर भी गहरा प्रभाव पड़ेगा। यह मामला पर्यावरण संरक्षण और विकास के बीच संतुलन खोजने। की भारत की निरंतर चुनौती का एक ज्वलंत उदाहरण है।

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