विशेष: गाँधी जयंती 2019: महान सोच वाले एक साधारण व्यक्ति थे

विशेष - गाँधी जयंती 2019: महान सोच वाले एक साधारण व्यक्ति थे
| Updated on: 02-Oct-2019 07:01 AM IST
Gandhi Jayanti 2019 | 2 अक्टूबर को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती है। महात्मा गांधी को प्यार से हम 'बापू' कहते थे। गांधी जी महान सोच वाले एक साधारण व्यक्ति थे। एक साधारण से परिवार में जन्में महात्मा गांधी अपने विचारों की वजह से हम सभी के बीच महान हो गए। अगर एक आम आदमी भी उनके विचारों का अनुसरण करें और उन्हें जीवन में उतारें जैसा की बापू ने किया तो कोई भी साधावरण व्यक्ति महान बन सकता है। 

पहली नज़र में देखें तो दक्षिण अफ्रीका का पीटरमारित्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन किसी गुज़रे ज़माने का लगता है। ख़ाली प्लेटफॉर्म, 19वीं सदी की विक्टोरियन स्टाइल की लाल ईंटों वाली इमारत, ज़ंग खा रही जालियां और लकड़ी की बनी टिकट खिड़की, सब कुछ बहुत पुराना सा लगता है। इस मामूली से स्टेशन को देखकर लगता ही नहीं कि ये वो जगह है जिसने हिंदुस्तान को बदल डाला और दुनिया की तारीख़ में एक नया पन्ना जोड़ दिया। ये बात 7 जून 1893 की है। उस वक़्त युवा वकील रहे मोहनदास करमचंद गांधी रेलगाड़ी से डरबन से प्रिटोरिया जा रहे थे। असल में वो अपने मुवक्किल दादा अब्दुल्लाह के काम से जा रहे थे. जब उनकी ट्रेन पीटरमारित्ज़बर्ग पर रुकी, तो ट्रेन के कंडक्टर ने उन्हें फ़र्स्ट क्लास के डिब्बे से निकल जाने को कहा। उस वक़्त दक्षिण अफ्रीका में ट्रेन का पहला दर्जा गोरे लोगों के लिए रिज़र्व हुआ करता था। 

जब ट्रेन से उतारे गए गांधी

ट्रेन के अंग्रेज़ कंडक्टर ने गांधी को निचले दर्जे के मुसाफ़िरों के डब्बे में जाने को कहा,जब गांधी ने कंडक्टर को अपना पहले दर्जे का टिकट दिखाया, तो भी वो माना नहीं और मोहनदास गांधी को बेइज़्ज़त कर के ट्रेन से ज़बरदस्ती उतार दिया। पीटरमारित्ज़बर्ग के प्लेटफॉर्म पर लगी एक तख़्ती ठीक उस जगह को बताती है, जहां पर गांधी को ट्रेन से धक्का देकर उतारा गया था। तख़्ती पर लिखा है कि, 'उस घटना ने महात्मा गांधी की ज़िंदगी का रुख़ मोड़ दिया। महात्मा गांधी ने वो सर्द रात पीटरमारित्ज़बर्ग के वेटिंग रूम में गुज़ारी थी, जहां पर गर्मी से बचने के लिए कोई इंतज़ाम नहीं था। इस घटना का ज़िक्र करते हुए गांधी ने अपनी आत्मकथा, 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में लिखा है कि, 'मेरे संदूक़ में मेरा ओवरकोट भी रखा था. लेकिन मैंने इस डर से अपना ओवरकोट नहीं मांगा कि कहीं मुझे फिर से बेइज़्ज़त न किया जाए। महात्मा गांधी बम्बई से 1893 में वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय मूल के एक कारोबारी की कंपनी के साथ एक साल का क़रार किया था। ये कंपनी ट्रांसवाल इलाक़े में थी। 

गांधी के साथ नस्लभेदी व्यवहार

ट्रांसवाल दक्षिण अफ्रीका का वो इलाक़ा था, जहां 17वीं सदी में डच मूल के लोगों ने आकर क़ब्ज़ा जमा लिया था। असल में ब्रिटेन ने ट्रांसवाल के दक्षिण में स्थित केप कॉलोनी को हॉलैंड के उपनिवेशवादियों से छीन लिया था, जिसके बाद वो मजबूर हो गए कि यहां आकर बस गए। गांधी के वहां पहुंचने से काफ़ी पहले से ट्रांसवाल में भारतीयों की आबादी तेज़ी से बढ़ रही थी। 1860 में भारत सरकार के साथ हुए करार के तहत ट्रांसवाल की सरकार ने वहां भारतीयों को एक शर्त पर आकर बसने में मदद करने का वादा किया. शर्त ये थी कि भारतीय मूल के लोगों को वहां के गन्ने के खेतों में बंधुआ मज़दूरी करनी होगी। लेकिन, मज़दूरी का वक़्त गुज़ार लेने पर भी भारतीय मूल के लोगों को समाज के अन्य वर्गों से मेल-जोल करने नहीं दिया जाता था। उन्हें बाहरी माना जाता था। गोरों की अल्पसंख्यक सरकार, भारतीयों पर ज़्यादा टैक्स लगाती थी। दक्षिण अफ्रीका पहुंचते ही महात्मा गांधी को नस्लीय भेदभाव का शिकार होना पड़ा। प्रिटोरिया जाने के सफ़र की घटना से पहले गांधी के साथ एक और घटना डरबन में हुई थी। जब एक अदालत में जज ने उनसे पगड़ी उतारने को कहा, तो वो अदालत से बाहर आ गए थे। 

जब गांधी ने किया संघर्ष करने का फ़ैसला

लेकिन, गांधी के जीवन में असल बदलाव पीटरमारित्ज़बर्ग रेलवे स्टेशन पर हुई घटना के बाद आया। तभी महात्मा गांधी ने फ़ैसला किया कि वो दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ेंगे। अपनी आत्मकथा में महात्मा गांधी ने लिखा है कि, 'ऐसे मौक़े पर अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के बजाय भारत लौटना कायरता होता।  मैंने जो मुश्किलें झेलीं वो तो बहुत मामूली थीं। असल में ये रंगभेद की गंभीर बीमारी के लक्षण भर थे। मैंने तय किया कि इस रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाकर लोगों को रंगभेद की बीमारी से बचाने के लिए मुझे कम से कम कोशिश तो करनी ही चाहिए। स्थानीय गाइड शाइनी ब्राइट कहते हैं कि,'महात्मा गांधी के लिए ये मौक़ा ज्ञान प्राप्त करने का था। इससे पहले वो एक शांत और कमज़ोर इंसान थे। पीटरमारित्ज़बर्ग की घटना के बाद गांधी ने भेदभाव के आगे घुटने टेकने से इनकार कर दिया।  वो शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीक़े से रंगभेदी नीतियों के ख़िलाफ़ आंदोलन करने लगे। उन्होंने हड़ताल, विरोध-प्रदर्शन और धरनों के ज़रिए वोटिंग और काम करने में रंगभेद के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की। महात्मा गांधी को यक़ीन था कि दक्षिण अफ्रीका में रहकर ही उन्हें रंगभेद के सबसे ख़ौफ़नाक चेहरे को देखने का मौक़ा मिल सकता था। तभी वो इसका मुक़ाबला कर के उस पर जीत हासिल कर सकते थे। दक्षिण अफ्रीका में अपने तजुर्बे के आधार पर ही गांधी ने अहिंसा के हथियार सत्याग्रह की शुरुआत की. जिसमें अहिंसक तरीक़ों से विरोधी के ज़हन पर जीत हासिल करने की कोशिश होती थी। ताकि संघर्ष के दौरान दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बना रहे।

गांधी ने छेड़ा अहिंसक आंदोलन

1907 में जब ट्रांसवाल की सरकार ने एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट एक्ट बनाया तो गांधी ने इसके ख़िलाफ़ अहिंसक आंदोलन छेड़ दिया। इस क़ानून के तहत भारतीयों को दक्षिण अफ्रीका में अपना रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य कर दिया गया था। आंदोलन के दौरान गांधी को कई बार जेल जाना पड़ा. लेकिन, आख़िर में वो गोरों की सरकार से समझौता कराने में कामयाब हुए। 1914 में इंडियन रिलीफ़ एक्ट पास कर के भारतीयों पर अलग से लगने वाला टैक्स भी ख़त्म किया गया। इससे भारतीयों की शादी को भी सरकारी मान्यता मिलने लगी। 1914 में भारत लौटने के बाद महात्मा गांधी ने ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ सत्याग्रह छेड़कर भारतीयों के लिए अनिवार्य सैन्य सेवा ख़त्म कराई। इसे पहले विश्व युद्ध में भारतीयों को युद्ध लड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा था। कई दशक के स्वाधीनता आंदोलन के बाद गांधी भारत को अंग्रेज़ों से आज़ाद कराने में कामयाब हुए। महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का अमरीकी अश्वेत नेता मार्टिन लूथर किंग पर गहरा असर पड़ा था. नेल्सन मंडेला को भी गांधी से प्रेरणा मिली। महात्मा गांधी की याद में दक्षिण अफ्रीका ने फ्रीडम ऑफ़ पीटरमारित्ज़बर्ग नाम से पुरस्कार शुरू किया। इसे लेते हुए नेल्सन मंडेला ने कहा था, 'सहिष्णुता, आपसी सम्मान और एकता के जिन मूल्यों के लिए गांधी ने संघर्ष किया, उसने मेरे ऊपर गहरा असर डाला है। इसका हमारे स्वतंत्रता आंदोलन ही नहीं मेरी सोच पर भी बहुत असर पड़ा। 


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