Parliament Session: देशभक्ति को धर्म से न जोड़ें: ओवैसी ने संसद में कहा, 'वंदे मातरम्' वफादारी का टेस्ट नहीं

Parliament Session - देशभक्ति को धर्म से न जोड़ें: ओवैसी ने संसद में कहा, 'वंदे मातरम्' वफादारी का टेस्ट नहीं
| Updated on: 09-Dec-2025 09:23 AM IST
एआईएमआईएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने लोकसभा में एक महत्वपूर्ण बहस के दौरान कहा कि देशभक्ति को किसी एक धर्म या पहचान से जोड़ना भारत के संविधान के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस तरह की प्रथा से समाज में केवल और केवल फूट बढ़ेगी, जिससे राष्ट्रीय एकता कमजोर होगी। ओवैसी ने 'राष्ट्रगीत वंदे मातरम् के 150 साल' पर चर्चा में भाग लेते हुए अपने विचार व्यक्त किए, जहां उन्होंने संविधान द्वारा सभी नागरिकों को समान अधिकार देने के महत्व पर प्रकाश डाला, यह बताते हुए कि ये अधिकार किसी धार्मिक पहचान से बंधे नहीं हैं।

संवैधानिक समानता और स्वतंत्रता

ओवैसी ने अपने संबोधन में भारतीय संविधान की प्रस्तावना का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया है कि यह 'हम लोग' से शुरू होता है, न कि किसी देवी-देवता के नाम से। यह इस बात पर जोर देता है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है जहां सभी नागरिक समान हैं, चाहे उनकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो। उन्होंने कहा कि संविधान सभी नागरिकों को समान अधिकार देता है, और इन अधिकारों को किसी भी धार्मिक पहचान या प्रतीक से नहीं जोड़ा जा सकता है। यह सिद्धांत भारत के लोकतांत्रिक ढांचे की आधारशिला है, जो प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आस्था और विश्वास का पालन करने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है।

'वंदे मातरम्' और वफादारी का पैमाना

हैदराबाद के सांसद ने स्पष्ट रूप से कहा कि 'वंदे मातरम्' को किसी की वफादारी का टेस्ट नहीं बनाया जाना चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि अपने देश से प्यार करना एक बात है, लेकिन देशभक्ति को किसी धार्मिक रस्म या किताब से जोड़ना संविधान के खिलाफ है। ओवैसी ने कानूनी उदाहरणों का हवाला देते हुए इस बात पर जोर दिया कि 'वंदे मातरम्' को जबरदस्ती किसी की वफादारी का पैमाना नहीं बनाया जाना चाहिए। उनका मानना है कि इस तरह की जबरदस्ती से नागरिकों के बीच अविश्वास और अलगाव। की भावना पैदा हो सकती है, जो एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र के लिए हानिकारक है।

लोकतंत्र की नींव: विचार और आस्था की स्वतंत्रता

ओवैसी ने संविधान की प्रस्तावना में निहित सोच, बोलने, विश्वास, आस्था और पूजा की आज़ादी को भारतीय लोकतंत्र की नींव बताया। उन्होंने कहा कि देश किसी एक धर्म की प्रॉपर्टी नहीं हो सकता, बल्कि यह सभी धर्मों और पहचानों के लोगों का साझा घर है और यह स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है कि प्रत्येक नागरिक बिना किसी डर या दबाव के अपने विचारों और विश्वासों को व्यक्त कर सके, जो एक जीवंत और समावेशी समाज के लिए आवश्यक है। देशभक्ति को किसी एक धार्मिक पहचान से जोड़ना इन मौलिक स्वतंत्रताओं का उल्लंघन करता है और समाज के ताने-बाने को कमजोर करता है।

भारतीय मुसलमान और जिन्ना का विरोध

अपने भाषण के दौरान, ओवैसी ने भारतीय मुसलमानों के इतिहास पर भी प्रकाश डाला, यह कहते हुए कि वे मोहम्मद अली जिन्ना के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि यही कारण था कि उन्होंने भारत में रहने का फैसला किया, पाकिस्तान जाने का नहीं और यह निर्णय उनकी भारत के प्रति गहरी निष्ठा और देशभक्ति का प्रमाण था। उन्होंने इस बात पर भी ध्यान दिलाया कि संविधान सभा में हुई बहस के दौरान 'वंदे मातरम्' से जुड़े बदलावों पर विचार किया गया था, लेकिन प्रस्तावना को किसी देवी के नाम से शुरू करने का प्रस्ताव कभी स्वीकार नहीं किया गया, जो भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को दर्शाता है।

ऐतिहासिक संदर्भ और राजनीतिक गठबंधन

ओवैसी ने 1942 के एक ऐतिहासिक संदर्भ का भी उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा कि जिन लोगों की अक्सर तारीफ की जाती है, उनमें से कुछ के राजनीतिक पूर्वजों ने नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस, सिंध और बंगाल में जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ मिली-जुली सरकारें बनाई थीं और उन्होंने आगे कहा कि उन्हीं सरकारों ने 1. 5 लाख मुसलमानों और हिंदुओं को ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती किया था ताकि वे दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों के लिए लड़ सकें और इस ऐतिहासिक संदर्भ का उपयोग करते हुए, ओवैसी ने देशभक्ति और राजनीतिक निष्ठा के जटिल पहलुओं पर सवाल उठाए, यह सुझाव देते हुए कि इतिहास को अक्सर चुनिंदा रूप से प्रस्तुत किया जाता है। उन्होंने अपने देश से प्यार करने और देशभक्ति को किसी धार्मिक रस्म या किताब से जोड़ने के बीच एक स्पष्ट अंतर करने की आवश्यकता पर बल दिया, यह दोहराते हुए कि बाद वाला संविधान के खिलाफ है और समाज में अनावश्यक विभाजन पैदा करता है।

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