NASA Peregrine Mission: पहले रूस-अब अमेरिका का पेरेग्रीन मिशन फेल, चांद पर इंसान का जाना इतना मुश्किल क्यों?

NASA Peregrine Mission - पहले रूस-अब अमेरिका का पेरेग्रीन मिशन फेल, चांद पर इंसान का जाना इतना मुश्किल क्यों?
| Updated on: 11-Jan-2024 09:26 PM IST
NASA Peregrine Mission: अमेरिका का पेरेग्रीन मिशन फेल हो गया. यह मिशन अमेरिकन स्पेस एजेंसी NASA के महत्वाकांक्षी मिशन आर्टिमिस का हिस्सा था. जो अपने साथ अमेरिकी राष्ट्रपतियों के बाल, माउंट एवरेस्ट के टुकड़े लेकर चंद्रमा पर जा रहा था. नासा की सहयोगी और मिशन को डिजाइन करने वाली कंपनी एस्ट्रोबोटिक ने पुष्टि कर दी है कि ये मिशन चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग नहीं कर पाएगा. पिछले साल रूस के लूना-25 का भी यही हाल हुआ था.

भारत की स्पेस एजेंसी ISRO ने पिछले साल अगस्त में चंद्रमा के साउथ पोल पर चंद्रयान-3 की लैंडिंग कराकर एक नया इतिहास रचा था. यह वो इलाका था जहां अब तक दुनिया का कोई देश नहीं पहुचा. ये मिशन कितना कठिन था इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि भारत से पहले लांच किया गया रूस का लूना-25 और अब अमेरिका का पेरेग्रीन मिशन चांद पर पहुंचने से पहले ही फेल हो चुके हैं. खास बात ये है कि चांद पर सॉफ्ट लैंडिंग करने में असफल रहे अमेरिका और रूस सबसे ज्यादा बार चांद पर पहुंचने वाले देश हैं. खासतौर से अमेरिका ने 1969 से 1972 तक लगातार छह बार इंसानों को चांद पर लैंड कराया था. उस वक्त उन मिशनों की कंप्यूटिंग तकनीक आज के मोबाइल फोन की तुलना से बेहद कम थी.

मून मिशन की सबसे बड़ी चुनौती?

मून मिशन की सबसे बड़ी चुनौती वहां सॉफ्ट लैंडिंग है, भारत के चंद्रयान-3 के बाद अमेरिका, चीन, जापान, रूस, जापान और इजराइल चांद पर पहुंचने को बेताब हैं. संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब समेत कई मिशन कतार में लगे हैं. इनमें सबसे बड़ा मिशन अमेरिका का है, जिसे आर्टिमिस नाम दिया गया है, इस मिशन के तहत अमेरिका चांद पर लैब स्थापित करना चाहता है, जो एक मानव मिशन है. इसी से जुड़ा मिशन पेरेग्रीन नासा ने लांच किया था, जो चंद्रमा पर सॉफ्ट लैंडिंग की उम्मीद खो चुका है. इसमें नासा ने एक लैंडर भेजा था जिसे चांद पर लैंड करना था, मगर प्रोपल्शन मॉड्यूल में खराबी आने की वजह से ये क्षतिग्रस्त हो गया. इससे अमेरिका के मिशन में एक साल की देरी और हो गई.

ये मून मिशन हो चुके हैं असफल

  • अमेरिका का पैरेग्रीन-1 मिशन, जिसे इसी साल लांच किया गया था, इसे फरवरी में चांद पर लैंडिंग करनी थी, लेकिन खराबी की वजह से ये ऐसा नहीं कर पाएगा.
  • रूस ने 2023 में भारत के चंद्रयान-3 से पहले लूना-25 मिशन लांच किया था, हालांकि सॉफ्ट लैंडिंग से कुछ दूरी पर यह क्रैश हो गया था.
  • 2019 में इजराइल ने अपना मून मिशन बेरेशीट लांच किया जो एक लैंडिंंगमिशन था,लेकिन वह असफल रहा.
  • इसी साल भारत के चंद्रयान-2 ने चंद्रमा तक पहुंचने और दक्षिणी ध्रुव पर विक्रम लैंडर उतारने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहा.
  • अप्रैल 2023 में जापान का हकुतो-आर भी चांद पर लैंडिंग नहीं कर सका, क्योंकि उसका ईंधन खत्म हो चुका था.
दक्षिणी ध्रुव फतह करना जरूरी

अमेरिका, रूस और चीन के बाद चांद पर पहुंचने वाला भारत चौथा देश है, हालांकि भारत की कामयाबी इसलिए ज्यादा खास है क्योंकि वह चांद के साउथ पोल पर उतरने वाला पहला देश है. अब तक अमेरिका और रूस के जितने भी मिशन चांद पर पहुंचे हैं वह आसान क्षेत्र में उतरे हैं. पेरेग्रीन भी आसान क्षेत्र में उतरने वाला था. PTI की एक रिपोर्ट के मुताबिक साउथ पोल में बड़ी मात्रा में बर्फ और पानी है. ऐसे में किसी भी मानव मिशन के लिए इस इलाके पर पहुंचना जरूरी है. रूस का लूना-25 चंद्रयान-3 से पहले यहां पहुंचना था, लेकिन वह सॉफ्ट लैंडिंग से पहले ही क्षतिग्रस्त हो गया था. यह मिशन चांद के बोगुस्लाव्स्की क्रेटर पर उतरना था. यह वो इलाका है तो 4 वर्ग किमी क्षेत्र में फैला है, यहां ढलानें हैं-गड्ढे हैं. रूस ने इस इलाके का अध्ययन किया था, फिर भी यहां सॉफ्ट लैंडिंग नहीं करा सका.

चंद्रमा पर चुनौती हैं क्रेटर

चंद्रमा पर 1 लाख 40 हजार से ज्यादा क्रेटर हैं. जिनकी चौड़ाई 8 किलोमीअर तक है. कुछ तो सैंकड़ों किमी व्यास वाले हैं. इसके अलावा चट्टानें भी हैं. नीदरलैंड में ESA के यूरोपीय अंतरिक्ष अनुसंधान और प्रौद्योगिकी केंद्र में वरिष्ठ सिस्टम आर्किटेक्ट और मून फ्यूचर स्टडीज टीम लीड मार्कस लैंडग्राफ ने PTI को बताया कि चांद पर जाना बेहद मुश्किल है. इसके लिए हमें चंदमा के वातावरण के बारे में जानने की जरूरत है. बेशक चांद के क्रेटर के बारे में हमें जानकारी हैं, लेकिन इनका ठीक आकलन उस वक्त किया जाना चाहिए जब लैंडिंग का प्रयास किया जा रहा हो.

तकनीक विकसित हुई, लेकिन मुश्किल उतनी ही है

ESA के मून फ्यूचर स्टडीज टीम लीड मार्कस लैंडग्राफ के मुताबिक रॉकेट विज्ञान विकसित हुआ है, लेकिन मुश्किल उतनी ही है. तब अमेरिका और सोवियत संघ ही इस रेस में थे, अब चीन समेत कई नए खिलाड़ी हैं, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब जैसे देश भी इस देश में शामिल हो चुके हैं. चीन तो अपना बेस बनाने की तैयारी कर रहा है. वह मानते हें कि अपोलो युग की तुलना में आज तकनीक उन्नत हैं, ऑन बोर्ड सेंसर एक्टिव हैं. कंप्यूटर प्रणाली तेज हैं, लेकिन सिर्फ इसी से लैंडिंग आसान नहीं होती. समय के साथ चंद्रमा की परिस्थितियां बदली हैं. हाइड्रोडायनामिक्स और दहन प्रक्रियाओं में भी परिवर्तन आया है.

जोखिम समझना और उनसे बचना अलग-अलग

स्कॉटलैंड के स्ट्रैथक्लाइड विश्वविद्यालय में अंतरिक्ष यान इंजीनियरिंग के प्रोफेसर मैल्कम मैकडोनाल्ड के मुताबिक 1960 के दशक से अब तक हमारी तकनीक लगातार अपडेट हुई है. जोखिम को समझने की क्षमता में सुधार हुआ है. इनसे निपटने के उपाय भी हैं, लेकिन जब हम किसी जअिलता का समाधान करते हैं. तो गलती करने की संभावना और ज्यादा हो जाती है. जैसा की 1967 में नासा के चंद्र मिशन अपोलो-1 में हुआ था. मैकडोनाल्ड कहते हैं कि आधुनिक अंतरिक्ष यान जटिल हैं, इनका परीक्षण किया जाता है, फिर भी कोई न कोई चूक हो ही जाती है. जिससे जोखिम और बढ़ता है.

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