संसद : कोरोना के संकटकाल में हमारी संसदीय संस्थाएं लॉकडाउन क्यों हैं?

संसद - कोरोना के संकटकाल में हमारी संसदीय संस्थाएं लॉकडाउन क्यों हैं?
| Updated on: 01-Jun-2020 09:52 AM IST
Jaipur | क्या भारत में लोकतंत्र की संस्था संसद कोरोना महामारी के दौर में आपको कहीं नजर आई? राज्य की विधानसभाएं तक नहीं दिख रही। कहीं यह महामारी लोकतंत्र को खत्म तो नहीं कर रही। पूरी विधायिका मौन नजर आ रही है। एक उदाहरण देखिए। पिछले दिनों एक-एक करके छह राज्य सरकारों ने अपने यहाँ श्रम क़ानूनों को तीन साल के लिए स्थगित करने का आनन-फानन में ऐलान कर दिया। ऐसा सिर्फ़ भाजपा शासित राज्यों ने ही नहीं बल्कि कांग्रेस शासित राज्यों ने भी किया जबकि यह फ़ैसला राज्य सरकारें नहीं कर सकतीं, क्योंकि यह विषय संविधान की समवर्ती सूची में आता है। तो क्या संसद की बगैर मंजूरी के यह फैसला किया जा सकता है? संविधान ने संसद के बनाए क़ानूनों को स्थगित करने या उनमें संशोधन करने का अधिकार राज्यों को नहीं दिया है, लेकिन कोरोना संकट की आड़ में राज्य बेधड़क अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चले गए।

हमें देखना होगा कि कोरोना की लड़ाई में लोकतांत्रिक संस्थाएं कमजोर तो नहीं हो रही। जब संविधान में यह प्रावधान है कि सरकार संसद की मंज़ूरी के बगैर सरकारी ख़जाने का एक पैसा ख़र्च नहीं कर सकती। कोरोना संकट की चुनौतियों का सामना करने और ढहती अर्थव्यवस्था को थामने के लिए घोषित किए गए 20 लाख करोड़ रुपए के पैकेज़ और नए आर्थिक सुधार लागू करने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। दोनों मामलों में प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने ऐलान तो कर दिया, लेकिन संसद की मंज़ूरी लेना ज़रूरी नहीं समझा। आप देखिए कि अमरीका, ब्रिटेन जैसे कई देशों में भी राहत पैकेज घोषित किए गए हैं, लेकिन ऐसा करने के पहले वहाँ की सरकारों ने विपक्षी दलों से सुझाव मांगे और पैकेज को संसद से मंज़ूरी की मुहर लगवाने के बाद ही पैकेज घोषित किया।

बीबीसी हिन्दी पर हुई एक रिपोर्ट का अवलोकन करेंगे तो पाएंगे कि बजट और वित्त विधेयक के पारित होने से सरकार को यही मंज़ूरी मिलती है इसलिए अभी कोई नहीं जानता, यहाँ तक कि शायद कैबिनेट भी नहीं कि 20 लाख करोड़ रुपये के पैकेज में से जो 2 लाख करोड़ रुपए वास्तविक राहत के रूप में तात्कालिक तौर पर ख़र्च हुए हैं, वे 23 मार्च को पारित हुए मौजूदा बजटीय प्रावधानों के अतिरिक्त हैं अथवा उसके लिए अन्य मदों के ख़र्च में कटौती की गई है। आपको जानकारी आश्चर्य होगा कि एक लोकतांत्रिक देश में पिछले दो महीने से देश में जो कुछ हो रहा है, उसका फ़ैसला सिर्फ़ और सिर्फ़ सरकार और नौकरशाह कर रहे हैं। 

आप सोशल डिस्टेंसिंग की बात कहते हुए कह सकते हैं कि लॉकडाउन के कायदे टूटेंगे, कोरोना फैलेगा, ये.. वो..। लेकिन यह कितना सच है आप खुद जानते ही हैं। राज्यसभा, लोकसभा जैसे बड़े सदनों की छोड़िए संसद की स्थाई समितियों की बैठक् तक नहीं हो पा रही। इसमें कुछेक लोग होते हैं, जिन अध्यक्षों ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिए अनुमति मांगी है। उन्हें दी नहीं जा रही। वीडियो कान्फ्रेंसिंग से तो कोरोना नहीं फैलता। परन्तु लगता है नौकरशाह और सरकार ही सारे निर्णय करना चाहते है। 

सोशल या फिजिकल डिस्टेंसिंग बनाए रखने की ज़रूरत की वजह से संसद का कामकाज चल पाना संभव नहीं है लेकिन यह दलील बेदम है, क्योंकि इसी कोरोना काल में दुनिया के तमाम देशों में सांसदों ने अपने-अपने देश की संसद में अपनी जनता की तकलीफों का मुद्दा उठाया है और उठा रहे हैं.

उन्होंने अपनी सरकारों से कामकाज का हिसाब लिया है और ले रहे हैं। लॉकडाउन प्रोटोकॉल और फिजिकल डिस्टेंसिंग की अनिवार्यता का ध्यान रखते हुए तमाम देशों में सांसदों की सीमित मौजूदगी वाले संक्षिप्त सत्रों का या वीडियो कांफ्रेंसिंग वाली तकनीक का सहारा लेकर 'वर्चुअल पार्लियामेंट्री सेशन' का आयोजन किया गया है। कई देशों ने संसद सत्र में सदस्यों की संख्या को सीमित रखा है, तो कुछ देशों में सिर्फ़ संसदीय समितियों की बैठकें ही हो रही हैं।

इंटरनेशनल पार्लियामेंट्री यूनियन (आईपीयू) एक ऐसी वैश्विक संस्था है, जो दुनिया भर के देशों की संसदों के बीच संवाद और समन्वय का एक मंच है।

कोरोना महामारी के इस संकटकाल में दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों की संसदीय गतिविधियों का ब्योरा इस संस्था की वेबसाइट पर उपलब्ध है। लेकिन दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र यानी भारत की संसदीय गतिविधि का कोई ब्योरा आपको वहाँ नहीं मिलेगा। ज़ाहिर है, इस कोरोना काल में भारत की संसद पूरी तरह निष्क्रिय रही है और अब भी उसके सक्रिय होने के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं।

संसद का बजट सत्र कोरोना के नाम पर दस दिन पहले  खत्म किया गया, लेकिन आज तक वापस नहीं बुलाया गया। राज्यों की विधानसभाएं भी मौन है। पार्टी कोई भी हो, सरकार किसी भी दल की हो, इन हालातों से ये ही लगता है कि हुक्मरान और नौकरशाह देश को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं, न कोई सवाल उठे और न जवाब देना पड़े। ऐसे में हम महामारी से तो इस महान देश के लोगों के त्याग, समर्पण और जज्बे की बदौलत लड़ लेंगे, लेकिन क्या लोकतांत्रिक आस्थाओं को कमजोर होने से रोक पाएंगे।

— प्रदीप बीदावत

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