Citizenship Amendment Act: केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस, 9 अप्रैल को अगली सुनवाई

Citizenship Amendment Act - केंद्र को सुप्रीम कोर्ट का नोटिस, 9 अप्रैल को अगली सुनवाई
| Updated on: 19-Mar-2024 03:33 PM IST
Citizenship Amendment Act: 2019 का नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और हाल ही में केंद्र सरकार की ओर जारी किए गए इससे संबंधित नियम संवैधानिक तौर पर दुरुस्त हैं या नहीं, इसको लेकर सुप्रीम कोर्ट में आज सुनवाई हुई. कोर्ट ने सीएए नियमों को लागू करने के खिलाफ अर्जियों पर रोक नहीं लगाई है. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए 8 अप्रैल तक का वक्त दिया है. अब इस मामले में सुनवाई 8 अप्रैल को होगी.

देश के मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिसरा की पीठ 230 से ज्यादा याचिकाओं पर सुनवाई की. पिछले हफ्ते 11 मार्च (सोमवार) को भारत सरकार सीएए के तहत नागरिकता देने वाले नियमों होले से लेकर आई जिसका अर्थ था कि चार बरस से लटका हुआ विवादित कानून सीएए लागू हो चुका है.

आज सुनवाई के दौरान एसजी ने कहा कि 236 याचिकाएं हैं और मुझे जवाब दाखिल करने के लिए समय चाहिए. सीजेआई ने कहा कि हम जवाब देने के लिए सरकार को समय देते हैं और जो आवेदन दाखिल हुए हैं उन पर नोटिस जारी करते हैं.

सीजेआई ने कहा कि जिन याचिकाओं पर नोटिस नहीं हुआ है और आवेदनों पर नोटिस नहीं हुआ है, उनको नोटिस जारी करते हैं. सीजेआई ने कहा कि सरकार को जवाब दाखिल करने देते हैं. फिर नियमों पर रोक लगाने पर सुनवाई करेंगे.

वरिष्ठ वकील विजय हंसारिया ने कहा कि असम और उत्तर पूर्व को धारा 6बी से बाहर रखा गया है. अन्य लोग पड़ोसी राज्यों से असम आएंगे. इसमें कहा गया है कि मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा धारा 6(बी)(4) से पूर्ण हैं. सीजेआई ने एसजी से पूछा कब जवाब दाखिल कर देंगे. एसजी ने कहा कि चार सप्ताह में जवाब दाखिल कर देंगे.

इसपर वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि साढ़े चार साल में नियम नहीं लागू किए गए और अब किए गए. अगर नागरिकता देनी शुरू हो गई तो याचिकाएं बेकार हो जाएंगी. सिब्बल ने कहा कि चार सप्ताह जवाब दाखिल करने के लिए ज्यादा हैं और जवाब दाखिल करने तक रोक लगाई जा सकती है.

सिब्बल ने कहा कि आखिर चार साल बाद इतनी क्या जल्दबाजी थी, जबकि पहले कोर्ट में कहा था नियम नहीं लागू होंगे. कपिल सिब्बल ने कहा कि एसजी ने 22 जनवरी, 2019 को कहा था कि हम नियम लागू नहीं करने जा रहे. ऐसे में रोक लगाने की जरूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाने से कभी इंकार नहीं किया. सीजेआई ने कहा कि हम दो सप्ताह में जवाब दाखिल करने का समय सरकार को देते हैं. एसजी ने कहा कि ठीक है.

2019 में हुआ था पारित

भारत की संसद से 11 दिसंबर, 2019 को सीएए पारित हुआ और अगले ही दिन इसे राष्ट्रपति की भी मंजूरी मिल गई. केरल के राजनीतिक दल इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) ने इसी दिन सुप्रीम कोर्ट में सीएए को चुनौती दी और फिर सैंकड़ो याचिकाएं इसके खिलाफ गुजरते वक्त के साथ दायर होती चली गईं. ये कानून 31 दिसंबर 2014 से पहले भारत आने वाले पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को नागरिकता देता है. नागरिकता को लेकर हमारे पास 1955 का कानून है जो कई बार संशोधित किया जा चुका है. सीएए भी इसी कानून में संशोधन का नाम है.

2019 में सीएए के जरिये असल नागरिकता कानून की धारा 2(1)(b) में एक नए प्रावधान को जोड़ दिया गया. इस बदलाव ने ‘अवैध प्रवासियों’ (Illegal Migrants) को नए सिरे से परिभाषित किया और पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के उन हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को अवैध प्रवासी मानने से इनकार कर दिया जो 1920 के पासपोर्ट कानून (Passport Act, 1920) और 1946 के विदेशी कानून (Foreigners Act, 1946) के तहत भारत आए थे. यानी ये सभी लोग अब नागरिकता कानून के मातहत भारत के नागरिक हो सकते थे. हां, यहीं ये बात भी दर्ज की जानी चाहिए की ये कानून देश के और दूसरे इलाकों की तरहअसम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा जैसे राज्यों के आदिवासी इलाकों में लागू नहीं होती.

कुछ कानूनी सवाल और मांगें

सीएए में तीन देशों के और धर्म के लोगों को नागरिकता के लिए तो रखना मगर इन्हीं मुल्कों के अहमदिया, हजारा और दूसरे प्रताड़ित मुसलमानों का जिक्र न करना बहुतों को नागवार गुजरा और अब मामला कोर्ट में है. सुप्रीम कोर्ट के सामने अर्जी दायर कर सीएए को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन बताया गया है. कई याचिकाकर्ताओं का दावा है कि सीएए मनमाने तरीके से धर्म के आधार पर कुछ खास समुदाय के लोगों को फायदा पहुंचाता है जबकि औरों को, खासकर मुस्लिम समुदाय को नागरिकता की सहूलियत से महदूद रखता है. कोर्ट के सामने ये सवाल होगा कि सीएए अनुच्छेद 14 और 15 उल्लंघन है या नहीं?

याचिकाकर्ताओं की मांग यह भी है कि कोर्ट मुस्लिम समुदाय के उन लोगों को लेकर सरकार को दिशानिर्देश जारी करे जिनको सीएए कानून के तहत नागरिकता से वंचित रखा गया है. याचिकाकर्ता मुस्लिम समुदाय के इन लोगों के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई को रोकने की मांग कर रहे हैं. भारत सरकार का इस पर कहना है कि विदेशी लोगों की नागरिकता को लेकर जो पुराना कानून है, वह जस का तस है और सीएए उसमें किसी तरह का छेड़छाड़ नहीं करता.

असम के कई याचिकाकर्ता सीएए को 1985 के असम समझौते के उल्लंघन के तौर पर भी देखते हैं. उनका मानना है कि ये कानून असम के मूल निवासियों की पहचान की दृष्टि से अहम ‘असम समझौते’ की अनदेखी करता है और बेहद चालाकी से उसे समाप्त करने वाला है. 1985 का ‘असम समझौता’ 24 मार्च, 1971 के बाद भारत आए लोगों को विदेशी मानता है, याचिकाकर्ताओं का दावा है कि ये समझौता धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता. असम के बहुत से लोग खासकर ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन का मानना है कि ये कानून असम में बांग्लादेश के अवैध प्रवासियों की आमद को बेतहाशा बढ़ा देगा.

ये 1 फैसला तय करेगा CAA का भविष्य?

सुप्रीम कोर्ट में नागरिकता संशोधन कानून और उससे जुड़े नियमों पर फिलहाल सुनवाई शुरू हो रही हो पर सीएए का भविष्य बहुत हद तक नागरिकता कानून ही के 1985 के एक संशोधन पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी निर्भर करता है. ये संशोधन नागरिकता कानून की धारा 6ए कही जाती है. 6ए की कानूनी वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ सुनवाई पूरी कर चुकी है.

पिछले साल 12 दिसंबर को चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस एम. एम. सुंदरेश, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिसरा की बेंच ने इस मसले (नागरिकता कानून की धारा 6ए की संवैधानिकता) पर चार दिन की सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया था.

क्या है नागरिका कानून की धारा 6ए –

साल 1985, 15 अगस्त की तारीख. केंद्र सरकार और असम आंदोलन से जुड़े नेताओं के बीच एक करार हुआ. समझौते का असल मकसद असम के मूल निवासियों की पहचान को बनाए रखना था. इसी समझौते की बातों को अमल में लाने के लिए 1955 के नागरिकता कानून में धारा 6ए का प्रावधान जोड़ा गया.

नागरिकता कानून की धारा 6ए बताती है कि असम में कौन विदेशी (फॉरेनर) है और कौन नहीं. इसके लिए ये धारा 24 मार्च 1971 की तारीख को कट-ऑफ डेट मानती है. कानून के इस प्रावधान में 1 जनवरी 1966 के बाद और 25 मार्च 1971 के पहले असम में दाखिल हुए लोगों को विदेशी कहा गया.

हालांकि, ये लोग भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते थे जहां उन्हें नागरिकता से जुड़े अधिकार मिलने मगर शुरुआत के दस साल वोट के अधिकार से वंचित रखने की बात थी. सुप्रीम कोर्ट में 24 मार्च, 1971 की इस कट ऑफ तारीख को ही चुनौती दी गई है.

अगर सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में 24 मार्च, 1971 के कट-ऑफ डेट को बरकरार रखता है और नागरिकता के लिए राज्य में दाखिल होने की इस तारीख पर मुहर लगा देता है तब भारत सरकार के महत्त्वकांक्षी कानून सीएए को असम समझौते का उल्लंघन माना जा सकता है क्योंकि 2019 का ये कानून 31 दिसंबर 2014 को नागरिकता का कट-ऑफ डेट मानता है.

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