India-US Tariff War: ऑफिस टेबल पर रखे मोबाइल फोन की घंटी बजते ही अशोक मारू की आंखों में उम्मीद की चमक आती है। लेकिन कॉल सुनने के बाद यह उम्मीद नाउम्मीदी में बदल जाती है। जाहिर तौर पर यह वह कॉल नहीं थी, जिसका उन्हें पिछले दो-तीन सप्ताह से इंतजार है। ऐसा दिनभर में अशोक मारू के साथ कई बार होता है। यह हाल सिर्फ उनका नहीं, बल्कि राजस्थान के हजारों एक्सपोर्टर्स का है, जिनका व्यवसाय ट्रंप टैरिफ के बाद बुरी तरह प्रभावित हुआ है।
सबसे ज्यादा दिक्कत उन एक्सपोर्टर्स को हो रही है, जिनके पास ऑर्डर थे। उन्होंने बड़ा निवेश कर माल समय पर तैयार भी कर लिया, लेकिन ट्रंप द्वारा अचानक लगाए गए टैरिफ ने स्थिति बदल दी। ग्राहकों ने बढ़ी हुई कीमतों पर माल खरीदने से इनकार कर दिया। नतीजा, करोड़ों रुपये का माल फैक्ट्रियों और गोदामों में अटक गया। न पुराना माल बिक रहा है, न नए ग्राहक मिल रहे।
बगरू इंडस्ट्रियल एरिया, जो कभी हैंडीक्राफ्ट, टेराकोटा, पेपर वर्क, गारमेंट, स्टोन और फर्नीचर के मैन्युफैक्चरर्स और एक्सपोर्टर्स की चहल-पहल से गुलज़ार रहता था, अब सन्नाटे में डूबा है। इस क्षेत्र का अधिकांश माल अमेरिका जाता था, लेकिन टैरिफ के बाद यहां कम से कम 5-6 हजार लोगों का रोजगार प्रभावित हुआ है। पूरे राजस्थान में यह संख्या करीब 7 लाख के आसपास पहुंचती है।
कुछ सप्ताह पहले तक यहां मशीनों का शोर और मजदूरों की आवाजाही थी। अब अधिकतर ब्लॉक्स में सन्नाटा पसरा है। काम न होने से पिछले तीन सप्ताह में कई मजदूर अपने गांव लौट गए।
अशोक मारू की फर्नीचर फैक्ट्री में पहले 25-30 लोग काम करते थे। अब केवल 4-5 बचे हैं। वे कहते हैं, “ट्रंप टैरिफ के बाद कोई भी खरीदार 50% (25%+25%) महंगी कीमत में माल नहीं खरीद रहा। बायर्स एक्सपोर्टर्स से डिस्काउंट मांग रहे हैं, और एक्सपोर्टर हमसे। हमारी भी मजबूरी है, उनकी भी। हमारे ऑर्डर होल्ड हो गए, सारा पैसा अटक गया।”
मारू आगे बताते हैं, “लोग कहते हैं, नया बाजार ढूंढ लो। रातों-रात नया बाजार कहां से ढूंढें? लेबर भी सब समझती है। टैरिफ की खबरें आने के बाद जब माल रुकने लगा, तो अधिकतर अपने गांव चले गए। जो थोड़ी-बहुत लेबर बची है, वह लोकल है और जैसे-तैसे छोटा-मोटा काम निकालकर अपने परिवारों के लिए रोजी-रोटी का इंतजाम कर रही है।”
फर्नीचर ही नहीं, हैंडीक्राफ्ट और अन्य उद्योगों की स्थिति भी खराब है। अशोक मारू की फैक्ट्री में काम करने वाले देवा कहते हैं, “मेरे साथ काम करने वाले कई साथियों की नौकरी चली गई। उनके परिवारों के भूखों मरने की नौबत आ गई है। हम कारीगर हैं, हमें सिर्फ यही काम आता है। अब कई लोग दिहाड़ी मजदूरी के लिए भी तैयार हैं, पर कोई रास्ता नहीं दिख रहा।”
अमेरिका को स्टोन एक्सपोर्ट करने वाली कंपनी ग्लोबल सर्फेसेस लिमिटेड के जनरल मैनेजर वरुण लालवानी कहते हैं, “सबसे बुरा यह है कि अधिकतर ऑर्डर होल्ड हो गए। हम 25% टैरिफ पर जैसे-तैसे सर्वाइव कर सकते हैं, लेकिन 25% पेनल्टी नहीं भुगत सकते। अभी तक हमने एक भी कर्मचारी को नौकरी से नहीं हटाया, लेकिन हम भी नहीं जानते कि इस स्थिति को कितने समय तक बनाए रख सकते हैं।”
नए एक्सपोर्टर्स के लिए यह दौर और भी मुश्किल है। हैंडीक्राफ्ट व्यापारी हर्ष सिंघी, जिन्होंने आईआईटी से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद अच्छी नौकरी छोड़कर बैंक से लोन लेकर यह व्यवसाय शुरू किया, बताते हैं, “नवंबर-दिसंबर में बड़ा ऑर्डर मिला था। जैसे-तैसे पैसा अरेंज कर दिन-रात मेहनत से काम पूरा किया, लेकिन आखिरी समय में ऑर्डर कैंसिल हो गया। प्रोडक्शन में चल रहे माल पर भी भारी डिस्काउंट देना पड़ रहा है। कॉम्पीटिशन में मुनाफा इतना नहीं कि 50% डिस्काउंट दे सकें। माल की लागत निकालना भी भारी पड़ रहा है।”
ट्रंप टैरिफ का असर सिर्फ मैन्युफैक्चरर्स तक सीमित नहीं है। कस्टम एजेंट और ट्रांसपोर्टर हितेश शर्मा (बदला हुआ नाम) बताते हैं, “बैंक से लोन लेकर चार ट्रक लिए थे, जो एक्सपोर्टर्स का माल जयपुर के कॉन-कोर लॉजिस्टिक सेंटर या मुंद्रा पोर्ट पहुंचाते थे। अब चारों ट्रक रुक गए हैं। ड्राइवरों की सैलरी निकालना भारी पड़ रहा है। बैंक पहली किश्त चूकने पर गाड़ियां उठाने की धमकी दे रहा है।”
कॉन-कोर से जुड़े एक अधिकारी के अनुसार, पहले अमेरिका के लिए हर हफ्ते जयपुर से 378 कंटेनर जाते थे। 26 से 31 अगस्त के बीच यह संख्या घटकर 218 रह गई, और 1 से 6 सितंबर के बीच यह आधी हो गई। अब ज्यादातर कंटेनर जानवरों के चारे के लिए जा रहे हैं।
सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ स्टोन्स (सीडॉस) के वाइस चेयरमैन राकेश गुप्ता कहते हैं, “लोग आसानी से कहते हैं कि नया बाजार ढूंढ लो। लेकिन वर्षों की मेहनत से व्यापार जमता है। यह रातों-रात नहीं होता। अगर हमारे पास नया बाजार होता, तो हम टैरिफ बढ़ने का इंतजार क्यों करते?”
राजस्थान हैंडिक्राफ्ट एक्सपोर्ट्स ज्वॉइंट फॉरम के को-ऑर्डिनेटर नवनीत झालानी कहते हैं, “खबरों में 26 हजार करोड़ रुपये की राहत की बात थी, लेकिन तीन सप्ताह बाद भी न इसका खंडन हुआ, न कोई घोषणा। ऐसी अपुष्ट सूचनाएं हमारी तकलीफें और बढ़ा रही हैं।”