Crude Oil Price: ईरान-इजरायल और महंगा होगा कच्चा तेल, क्या पहले भी भारत हो चुका है फेल?

Crude Oil Price - ईरान-इजरायल और महंगा होगा कच्चा तेल, क्या पहले भी भारत हो चुका है फेल?
| Updated on: 23-Jun-2025 06:00 PM IST

Crude Oil Price: ईरान और इजराइल के बीच जारी संघर्ष में अमेरिका के कूदने से मध्य पूर्व (मिडिल ईस्ट) की पहले से सुलगती परिस्थितियाँ और भी गंभीर हो गई हैं। अमेरिका ने ईरान की परमाणु इकाइयों पर हमले किए हैं, जिससे यह क्षेत्र एक बार फिर वैश्विक उथल-पुथल का केंद्र बन गया है। इसका असर सिर्फ कूटनीतिक मोर्चे तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि इसकी गूंज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था में महसूस की जा सकती है—खासकर उन देशों में जो कच्चे तेल के आयात पर निर्भर हैं। भारत इस संकट का सबसे बड़ा और सीधा उदाहरण है।

मिडिल ईस्ट में तनाव और कच्चे तेल की कीमतों में उछाल

ईरान एक प्रमुख तेल उत्पादक देश है और स्ट्रेट ऑफ होर्मुज़ जैसे अहम समुद्री मार्ग पर उसका नियंत्रण है। हाल ही में ईरान ने इस मार्ग को बंद करने का इरादा जताया है, जिससे वैश्विक तेल आपूर्ति पर गंभीर असर पड़ सकता है। पहले ही तेल की कीमतों में 14–15% का उछाल आ चुका है। अगर यह मार्ग बंद होता है, तो विशेषज्ञों का मानना है कि कीमतें 110–120 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच सकती हैं।

भारत की अर्थव्यवस्था पर असर

भारत अपनी जरूरत का लगभग 90% कच्चा तेल आयात करता है। ऐसे में तेल की कीमतों में तेज उछाल भारत के इंपोर्ट बिल, रुपए की वैल्यू, महंगाई और अंततः जीडीपी ग्रोथ पर नकारात्मक असर डाल सकता है। हर बार जब तेल महंगा होता है, भारत में महंगाई बढ़ती है, व्यापार घाटा चौड़ा होता है और विकास दर धीमी पड़ जाती है।

इतिहास की झलक: 2008 का संकट

2008 में जब तेल की कीमतें 147 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई थीं, तब भारत की जीडीपी ग्रोथ 3.1% तक लुड़क गई थी, जो सामान्यतः 7–8% के बीच रहती है। इसके बाद 2011–12 में जब फिर से तेल महंगे हुए, तो जीडीपी वृद्धि दर 5.2% पर सिमट गई थी। वहीं, 2008 से 2012 के बीच औसत सालाना महंगाई दर 9.9% रही, जबकि आज यह 5.5% पर है।

आज की स्थिति अलग क्यों है?

हालांकि वर्तमान में कच्चे तेल की कीमतें 75–80 डॉलर प्रति बैरल के बीच हैं, जो 2008 के पीक से काफी कम हैं। महंगाई समायोजित वास्तविक कीमतों की बात करें तो आज की दरें 2008 के मुकाबले 66% कम हैं। इसके पीछे एक बड़ी वजह अमेरिका का ऑयल प्रोडक्शन है। 2012 से अब तक अमेरिका ने अपने उत्पादन को दोगुना कर लिया है और वह अब दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक बन चुका है।

इसका मतलब यह है कि भले ही मिडिल ईस्ट में तनाव बढ़े, लेकिन सप्लाई में विविधता और अमेरिकी उत्पादन के कारण वैश्विक कीमतें नियंत्रण में रह सकती हैं। यही वजह है कि इस बार तेल संकट का असर उतना तीव्र नहीं हो सकता जितना 2008 या 2012 में देखने को मिला था।

क्या इतिहास फिर खुद को दोहराएगा?

आज भारत के पास अधिक रणनीतिक तेल भंडार हैं, बेहतर मौद्रिक नीति है, और एफडीआई जैसी बाहरी पूंजी की आवक बनी हुई है। इसके अलावा देश में ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों जैसे सौर और पवन ऊर्जा पर तेजी से काम हो रहा है।

फिर भी यह तय है कि यदि तेल की कीमतें 100 डॉलर के पार लंबे समय तक बनी रहती हैं, तो भारत की इकोनॉमी पर दबाव बढ़ेगा। ऐसे में सरकार को नीतिगत फैसले लेने होंगे जैसे सब्सिडी पुनर्संतुलन, टैक्स में कटौती या सार्वजनिक खर्च में नियंत्रण।

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