Asim Munir / पाकिस्तान में आर्मी चीफ मुनीर होंगे राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर, परमाणु हथियारों की कमान भी मिलेगी

पाकिस्तान में 27वें संविधान संशोधन विधेयक के तहत आर्मी चीफ आसिम मुनीर को चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेज (CDF) बनाया जा रहा है। इससे उन्हें तीनों सेनाओं और परमाणु हथियारों की कमान मिल जाएगी, जिससे वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी ज्यादा ताकतवर हो जाएंगे। यह विधेयक न्यायपालिका की शक्तियों को भी कम करेगा।

पाकिस्तान में एक ऐतिहासिक और विवादास्पद संवैधानिक संशोधन विधेयक पेश किया गया है, जो। देश के सैन्य और न्यायिक परिदृश्य को मौलिक रूप से बदलने की क्षमता रखता है। इस 27वें संविधान संशोधन विधेयक के पारित होने के बाद, वर्तमान आर्मी चीफ आसिम मुनीर को चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेज (CDF) के रूप में नियुक्त किया जाएगा, जिससे उन्हें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से भी अधिक शक्तियां प्राप्त होंगी। इस नए पद के साथ, मुनीर को पाकिस्तान की तीनों सेनाओं – थलसेना, नौसेना और वायुसेना – की कमान मिलेगी, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें देश के परमाणु हथियारों की कमान भी सौंप दी जाएगी। यह कदम पाकिस्तान के सत्ता संतुलन में एक बड़ा बदलाव लाएगा,। जहां सेना का प्रभाव पहले से ही काफी मजबूत रहा है।

सेना प्रमुख की बढ़ी हुई शक्तियां

नए प्रावधानों के तहत, चीफ ऑफ डिफेंस फोर्सेज (CDF) का पद बनाया जा रहा है, जो सेना प्रमुख (COAS) को संपूर्ण सैन्य सेवाओं पर संवैधानिक अधिकार प्रदान करेगा। अब तक, पाकिस्तान में कानूनी रूप से राष्ट्रपति सशस्त्र बलों के सुप्रीम कमांडर होते थे, और वे प्रधानमंत्री की सलाह पर तीनों सेना प्रमुखों की नियुक्ति करते थे और हालांकि, व्यवहार में सेना प्रमुख की भूमिका काफी प्रभावशाली रही है। इस संशोधन के बाद, अनुच्छेद 243 में निहित 'राष्ट्रपति को सशस्त्र बलों का सुप्रीम कमांडर' घोषित करने वाला प्रावधान अब सिर्फ औपचारिक रह जाएगा, और व्यवहार में सेना प्रमुख ही सर्वोच्च सैन्य शक्ति बन जाएंगे। यह बदलाव सेना के अधिकारों को स्थायी रूप से संविधान में दर्ज कर देगा, जिससे भविष्य में किसी भी नागरिक सरकार के लिए इन बदलावों को पलटना बेहद मुश्किल हो जाएगा। मौजूदा चेयरमैन जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमिटी (CJCSC) का पद 27 नवंबर 2025 को। समाप्त कर दिया जाएगा, जब मौजूदा CJCSC जनरल साहिर शमशाद मिर्जा रिटायर हो रहे हैं।

संसद में विधेयक पारित करने के लिए पर्याप्त बहुमत

शहबाज सरकार ने इस विधेयक को संसद के दोनों सदनों – सीनेट और नेशनल असेंबली – में पेश किया है। इस विधेयक को पारित कराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होगी, जिसका अर्थ है सीनेट में 64 वोट और नेशनल असेंबली में 224 वोट। सत्ताधारी गठबंधन के पास 96 सदस्यीय सीनेट में कुल 65 वोट हैं, जो आवश्यक बहुमत से एक वोट अधिक है। वहीं, 326 सक्रिय सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में सरकार के पास कुल 233 सांसदों का समर्थन है। इन आंकड़ों के आधार पर, सरकार के पास दोनों सदनों में संशोधन पारित कराने के लिए पर्याप्त बहुमत मौजूद है और एक बार पारित होने के बाद, इसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाएगा, जिसके बाद यह कानून बन जाएगा। यह विधेयक पाकिस्तान के इतिहास में सबसे बड़ा और विवादास्पद प्रस्ताव माना जा रहा। है, क्योंकि यह देश की न्याय व्यवस्था और सैन्य ढांचे दोनों को बदलकर रख देगा।

न्यायपालिका की शक्तियों में कटौती

इस संशोधन का एक और महत्वपूर्ण पहलू न्यायपालिका की शक्तियों में कमी लाना है। विधेयक के तहत चार प्रमुख तरीकों से अदालतों की ताकत कम की जाएगी, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठेंगे। पहला, अब यह तय करने का अधिकार कि कौन-सा मामला किस जज को दिया जाए, हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस के बजाय ज्यूडिशियल कमीशन ऑफ पाकिस्तान (JCP) को दे दिया गया है। कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सरकार यह तय करेगी कि कौन-सा जज कौन-सा केस सुनेगा, तो फैसले निष्पक्ष नहीं रह जाएंगे, जिससे न्यायपालिका की आजादी पर असर पड़ेगा।

जजों के तबादले और मामलों की समाप्ति

दूसरा बड़ा बदलाव यह है कि हाई कोर्ट के जजों का तबादला करने का अधिकार अब सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस या ज्यूडिशियल कमीशन के पास नहीं रहेगा, बल्कि यह अधिकार राष्ट्रपति को दे दिया जाएगा। यदि कोई जज इस आदेश को नहीं मानता है, तो उसे रिटायर माना जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि यह संशोधन अदालतों को सरकार के नियंत्रण में लाने की कोशिश है। तीसरा, नए नियम के मुताबिक, यदि कोई केस एक साल तक आगे नहीं बढ़ता यानी उसकी सुनवाई नहीं होती, तो वह केस अपने आप खत्म मान लिया जाएगा। पहले यह सीमा छह महीने की थी, लेकिन अदालत के पास यह अधिकार था कि वह तय करे कि केस बंद होना चाहिए या नहीं। अब यह फैसला कानून तय करेगा, जिससे सरकार या प्रशासन जानबूझकर सुनवाई में देरी करके मामलों को खत्म कर सकता है।

नई संवैधानिक अदालत का गठन

चौथा और सबसे महत्वपूर्ण बदलाव एक नई अदालत का गठन है, जिसका नाम फेडरल कॉन्स्टिट्यूशनल कोर्ट (संवैधानिक अदालत) होगा और यह अदालत सिर्फ संविधान से जुड़े मामलों की सुनवाई करेगी, जैसे केंद्र और प्रांतीय सरकारों के बीच विवाद, किसी कानून की वैधता या नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों से जुड़े मुद्दे। अभी तक ऐसे मामलों की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट करता था, लेकिन इस नए बदलाव के बाद सुप्रीम कोर्ट की यह ताकत खत्म हो जाएगी। इस नई अदालत के जजों की नियुक्ति में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों की भूमिका होगी, और संसद यह तय करेगी कि कितने जज होंगे और उन्हें कब तक के लिए नियुक्त किया जाएगा। सबसे विवादित बात यह है कि यदि किसी सुप्रीम कोर्ट के जज को इस नए संवैधानिक कोर्ट में भेजा जाता है और वह जाने से मना करता है, तो उसे रिटायर घोषित कर दिया जाएगा। यह कदम न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका पर। गहरा प्रभाव डालेगा, जिससे सरकार का न्यायपालिका पर नियंत्रण और बढ़ जाएगा।