जयंती विशेष / वह नेता जो अपनी ही पार्टी की गलती से भारत का प्रधानमंत्री बनते—बनते रह गया, बाद में बताया ऐतिहासिक भूल

Zoom News : Jul 08, 2020, 12:03 AM

Political Desk . New Delhi | देश में दो ही लोग ऐसे हुए हैं, जिन्होंने भारत के प्रधानमंत्री बनाए जाने का आफर ठुकरा दिया। एक थे देवीलाल, जिन्हें 1989 में अरुण नेहरू एंड कंपनी ने एक चालाकी के तहत चन्द्रशेखर को पीएम बनाने से हटाने के लिए टूल के रूप में इस्तेमाल किया और दूसरे थे ज्योति बसु। देश के धुर वामपंथी नेताओं में से एक ज्योति बसु की आज जयंती है और इस मौके उन्हें याद करना तो बनता ही है।

1996 में जब विश्वास मत साबित करने से पहले ही अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्तीफा दे दिया तो उससे पहले की स्टोरी में ज्योति बसु को आफर आया कि वे सरकार बनाएं, लेकिन पोलित ब्यूरो द्वारा इनकार किए जाने की बात कहते हुए बसु ने प्रधानमंत्री बनना नहीं स्वीकारा। हालांकि देवीलाल वाले मामले में कहानी दूसरी है, जननेता परन्तु सीधे किसान देवीलाल को कुछ लोगों ने वीपीसिंह को प्रधानमंत्री बनाने के लिए मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया। उनको प्रधानमंत्री बनाने की बात कही, लेकिन उन्हीं के मुंह से कहलवा दिया कि मैं तो ताउ हूं, ताउ ही रहना चाहता हूं। देवीलाल उप प्रधानमंत्री बनाए गए थे। वीपीसिंह की सरकार में और उसके गिरने के बाद बनी चन्द्रशेखर की सरकार में भी। परन्तु ज्योति बसु कभी उप प्रधानमंत्री भी नहीं रहे, उनके नाम देश में मुख्यमंत्री बनने का रिकार्ड है। 

1996 में जब संसद में अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्वास मत पारित करने से पहले ही इस्तीफा दे दिया तब नेशनल फ्रंट ने सरकार बनाने की पेशकश की। उस वक्त नेशनल फ्रंट के बाद कोई सबसे विश्वसनीय और सर्वमान्य चेहरा था तो वो था 23 सालों तक पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु का। लेकिन उन्होंने अपनी पार्टी की ओर से अनुमति ना होने की बात कर पीएम बनने से मना कर दिया। हालांकि बाद में उन्होंने इसे अपनी ऐतिहास‌िक भूल कहा था। देश को एक वामपंथी प्रधानमंत्री देने का सपना ज्योतिबसु के साथ ही 2010 में विदा हो गया।

सादा जीवन था ज्योति बसु का

प्रभावी भाषण देने की कलाकारी नहीं होने, बिना किसी मुस्कुराहट के अधूरे वाक्य बोलने के बावजूद लाखों की भीड़ जुटाने की कूव्वत रखते थे ज्योति बसु। लटके—झटके और भाषणों से श्रोताओं का कान पाट देने की कला वाले नेताओं से कहीं दूर थे ज्योति बसु। लोग उनके पीछे इसलिए खिंचे चले आते थे ​कि उन्हें भरोसा था कि ज्योति बसु कभी उनके लिए लड़ना नहीं छोड़ेंगे। घर में दाल भात और बैंगन की भाजी ही बनती थी। पत्नी कमला को शिकायत रहती थी कि वे अपना पूरा वेतन पार्टी फंड में दे देते हैं, मेरे लिए घर चलाना मुश्किल हो जाता है। ज्योति मुस्कुराते भी नहीं थे। अब सोचिए कैसे नेता थे। ज्योति वह नेता थे जो कम्युनिस्ट आन्दोलन को सड़क से संसद तक लेकर आए। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे ज्योति।

सादा जीवन था ज्योति बसु का

1996 में यह थे हालात

  • बीजेपी – 162 सीट, लेकिन 161 सांसद (अटल बिहारी 2 सीटों- गांधीनगर और लखनऊ से जीते)
  • कांग्रेस -136 सीटें, लेकिन 135 सांसद (प्रधानमंत्री नरसिंह राव 2 सीटों- नांदयाल और उड़ीसा की बरहमपुर से जीते)
  • जनता दल – 46 सीटें, लेकिन 45 सांसद (बीजू पटनायक कटक और अस्का- दोनों सीट जीते)
  • CPM -32
  • तमिल मनीला कांग्रेस – 20
  • द्रमुक – 17
  • सपा – 17
  • तेलुगूदेशम (नायडू गुट) – 17 
  • शिवसेना – 15
  • CPI – 12
  • बसपा – 11
  • समता पार्टी – 8 
  • अकाली दल – 8
  • असम गण परिषद – 5
  • बाकी सीटों पर अन्य छोटे दल और निर्दलीय सदस्य जीते।

इस खंडित जनादेश के बीच सबकी नजरें राष्ट्रपति भवन पर थीं। सीपीएम नेता हरकिशन सिंह सुरजीत की पहल पर जनता दल समेत तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता इकट्ठा होने लगे। तब जनता दल लोकसभा में तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू यादव हुआ करते थे। इस बीच कांग्रेस के नेताओं ने हरकिशन सिंह सुरजीत को यह सिग्नल देना शुरू कर दिया कि यदि कोई तीसरा मोर्चा खड़ा होता है, तो कांग्रेस उसे बिना शर्त समर्थन देगी। सुरजीत ने सभी नेताओं को कांग्रेस के इरादे से अवगत कराया। सुरजीत ने तेलुगूदेशम (नायडू गुट), सपा, तमिल मनीला कांग्रेस, द्रमुक, अगप इत्यादि दलों को इकट्ठा कर लिया। जनता दल पहले से ही साथ था। तय हुआ कि सभी दल (वाम मोर्चा के दलों समेत कुल 13 दल) राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा से मुलाकात कर सरकार बनाने का दावा पेश करेंगे। 11 मई की सुबह कामरेड सुरजीत के नेतृत्व में इन सब दलों के नेता राष्ट्रपति से मिलने पहुंचे और सरकार बनाने की अपनी मंशा से अवगत कराया। राष्ट्रपति ने इन नेताओं से अपना संसदीय दल का नेता चुनने और कांग्रेस के समर्थन की चिट्ठी लाने को कहा।

इसके बाद नेता चुनने की कवायद शुरू हुई। चूंकि इन दलों में जनता दल सबसे बड़ा था, इसलिए सभी दलों ने जनता दल के नेता और पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह को नेता बनाने की सर्वसम्मत राय रखी। वीपी सिंह ने इनकार कर दिया और उन्हीं ने खुद के सक्रिय राजनीति से इतिहास लेने की बात कहते हुए कहा कि आप किसी दूसरे को चुन लें। उन्हीं ने 23 साल तक बंगाल में के मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु का नाम सुझाया। समाचार माध्यमों में यह खबर चल गई, ‘ज्योति बसु भारत के अगले प्रधानमंत्री होंगे. उस वक्त वाम मोर्चे के 52 सांसद थे। यह संयुक्त मोर्चा (जिसके लोकसभा में 179 सदस्य थे) में सबसे बड़ा गुट था।

सिद्धान्तों पर अड़ गई बात

लेकिन जब संयुक्त मोर्चे के इस प्रस्ताव पर ज्योति बसु की अपनी पार्टी यानी, CPM की सेन्ट्रल कमिटी की बैठक बुलाई गई, तब कमेटी ने इस प्रस्ताव को (बहुमत के आधार पर, न कि सर्वसम्मति से) सिरे से खारिज कर दिया। सेन्ट्रल कमेटी का मानना था- यदि ज्योति बसु प्रधानमंत्री बनते हैं, तो उन्हें बतौर प्रधानमंत्री वही भूमंडलीकरण और उदारीकरण की नीति पर चलना होगा, जो पांच साल पहले प्रचलन में आयी थी और जिसका वामपंथी दल तीखी आलोचना करते थे। 52 सांसदों के बूते हम अपनी नीतियों पर सत्ता का संचालन नहीं कर सकते, इसलिए पार्टी ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव को खारिज करती है। वहीं कुछ लोग यह भी कहते हैं कि ज्योति बसु बंगाल बनाम केरल लॉबी की CPM की अंदरूनी राजनीति में फंस गए, क्योंकि ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने के प्रस्ताव का सबसे ज्यादा और मुखर विरोध प्रकाश करात ने किया था। इसके बाद अपनी पार्टी की सेन्ट्रल कमिटी के फैसले से संयुक्त मोर्चे के नेताओं को अवगत कराने जब हरकिशन सिंह सुरजीत पहुंचे, तब वीपी सिंह ने उन्हें फिर से पुनर्विचार के लिए सेन्ट्रल कमेटी के पास जाने को कहा। इसके बाद सुरजीत फिर सेन्ट्रल कमिटी के पास पहुंचे, जहां फिर से ज्योति बसु को PM बनाने का प्रस्ताव खारिज हो गया।

इसके बाद सुरजीत ने पार्टी के निर्णय लेने वाले सर्वोच्च निकाय, मतलब पोलित ब्यूरो की बैठक बुलाई. लेकिन पोलित ब्यूरो के सदस्यों का बहुमत भी प्रकाश करात के तर्कों के समर्थन में था। ज्योति बसु प्रधानमंत्री पद के एकदम नजदीक पहुंचकर प्रधानमंत्री नहीं बन पाए। पूरे दो दिनों तक ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने की कवायद जारी रही, लेकिन उनकी अपनी ही पार्टी उनके लिए अवरोध बनकर खड़ी हो गई। फिर ज्योति बसु ने ही देवगौड़ा का नाम सुझाया और वे भारत के 11वें प्रधानमंत्री बने। देवगौड़ा की पार्टी (जनता दल) के अध्यक्ष लालू यादव ने भी उनके नाम पर कोई आपत्ति नहीं जताई। परन्तु लेकिन कांग्रेस की तरफ से देवगौड़ा के समर्थन की चिट्ठी राष्ट्रपति भवन पहुंचने में देर हो गई। राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने चिट्ठी का इंतजार करने की बजाए अकेली सबसे बड़ी पार्टी के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार बनाने का निमंत्रण दे दिया। 16 मई को वाजपेयी सरकार को शपथ भी दिला दी गई, लेकिन यह सरकार चल नहीं हो सकी और 13 दिन में ही गिर गई। इसके बाद 1 जून, 1996 को एचडी देवेगौड़ा देश के 11वें प्रधानमंत्री बने। इस घटना के चार साल बाद 2000 में ज्योति बसु ने अपनी पार्टी की सेन्ट्रल कमिटी के फैसले को ऐतिहासिक भूल करार दिया। ज्योति दा ने 2000 में ही सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया था लेकिन इसके बावजूद वह भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन के पथप्रदर्शक बने रहे।

ज्योति बसु के जीवन से जुड़ी कुछ प्रमुख घटनाएं

  • 8 जुलाई 1914 में कलकत्ता [अब कोलकाता] में जन्म।
  • प्रेसिडेंसी कॉलेज से अंग्रेजी विषय में प्रतिष्ठा के साथ स्नातक की डिग्री। लंदन से कानून की पढ़ाई की। वहीं मा‌र्क्सवाद का 'ककहरा' सीखा और सार्वजनिक जीवन से जुड़े।
  • 1940 में भारत वापसी के साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी [भाकपा] से जुड़ गए।
  • 1944 में वह बंगाल रेलवे कामगार संघ के पदाधिकारी बने।
  • 1946 में बंगाल विधानसभा के लिए चुने गए। उन्होंने कांग्रेस के हुमायूं कबीर को पराजित किया।
  • इसके बाद 1952, 1957, 1962, 1967, 1969 और 1971 में वह बड़ानगर विधानसभा से चुने जाते रहे। इस दौरान वह 1972 में विधानसभा चुनाव भी हारे।
  • वर्ष 1964 में मा‌र्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी [माकपा] की स्थापना हुई। वह इसके संस्थापकों में रहे।
  • वर्ष 1967 में वह बंगाल की गठबंधन सरकार में उपमुख्यमंत्री बने।
  • 21 जून 1977 को वह पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने। वह छह नवम्बर 2000 तक पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चे की सरकार के मुखिया बने रहे।
  • 1996 में वह देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए। उनकी पार्टी की सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था का फैसला उनके प्रधानमंत्री बनने के रास्ते में आड़े आया। बाद में ज्योति बाबू ने पार्टी के इस फैसले को ऐतिहासिक गलती करार दिया।
  • वर्ष 2000 में उन्होंने बिगड़ते स्वास्थ्य के कारण मुख्यमंत्री का पद छोड़ा और फिर सक्रिय राजनीति से संन्यास की घोषणा की।
  • वर्ष 2004 में केंद्र में कांग्रेसनीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन [संप्रग] की सरकार को वामपंथी दलों की ओर से दिए गए समर्थन में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई।

पूरा नाम था ज्योतिकिरण बसु

ज्योति बसु 8 जुलाई 1914 को कलकत्ता के एक उच्च मध्यम वर्ग बंगाली परिवार में ज्योति किरण बसु के रूप में पैदा हुए। उनके पिता निशिकांत बसु, ढाका जिला, पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश में) के बार्दी गांव में एक डॉक्टर थे। जबकि उनकी मां हेमलता बसु एक गृहिणी थी। बसु की स्कूली शिक्षा 1920 में धरमतला, कलकत्ता (अब कोलकाता) के लोरेटो स्कूल में शुरू हुई, जहां उनके पिता ने उनका नाम छोटा कर ज्योति बसु कर दिया। 1925 में सेंट जेवियर स्कूल में जाने से पहले बसु ने स्नातक शिक्षा हिंदू कॉलेज (1955 में प्रेसीडेंसी कॉलेज के रूप में तब्दील) में विशिष्ठ अंग्रेजी में पूरी की। 1935 में बसु कानून के उच्च अध्ययन के लिए इंग्लैंड रवाना हो गए, जहां ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आने के बाद राजनैतिक क्षेत्र में उन्होंने कदम रखा। यहां नामचीन वामपंथी दार्शनिक और लेखक रजनी पाम दत्त से प्रेरित हुए। 1940 में बसु ने अपनी शिक्षा पूर्ण की और बैरिस्टर के रूप में मिडिल टेंपल से प्रात्रता हासिल की। इसी साल वे भारत लौट आए। जब सीपीआई ने 1944 में इन्हें रेलवे कर्मचारियों के बीच काम करने के लिए कहा तो बसु ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में संलग्न हुए। बी.एन. रेलवे कर्मचारी संघ और बी.डी रेल रोड कर्मचारी संघ के विलय होने के बाद बसु संघ के महासचिव बने।

बाद का राजनैतिक जीवन

बसु 1946 में रेलवे निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ते हुए बंगाल विधान सभा के लिए चुने गए। उन्होंने डॉ॰ बिधान चंद्र रॉय के पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहते हुए लंबे समय के लिए विपक्ष के नेता के रूप में कार्य किया। बसु ने एक विधायक और विपक्ष के नेता के रूप में अपने सराहनीय कार्य से डॉ॰ बी.सी रॉय का ध्यान आकर्षित किया और उन्हें उनका भरपूर स्नेह मिला, भले ही बसु डॉ॰ राय द्वारा चलाई जा रही नीतियों के खिलाफ थे। ज्योति बसु ने राज्य सरकार के खिलाफ एक और एक के बाद एक आंदोलन का नेतृत्व किया और एक नेता के रूप में विशेष रूप से छात्रों और युवकों के बीच गहरी लोकप्रियता अर्जित की। 1964 में जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हो गया तो बसु नए भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलित ब्यूरो के पहले नौ सदस्यों में से एक बने। 1967 और 1969 में बसु के पश्चिम बंगाल के संयुक्त मोर्चे की सरकारों में उप मुख्यमंत्री बने। 1969 में कांग्रेस सरकार की हार के बाद अजय मुखोपाध्याय के मुख्यमंत्रित्व वाली सरकार में उपमुख्यमंत्री बने। 1972 में कांग्रेस पश्चिम बंगाल में वापस सत्ता पर लौट आई। ज्योति बसु बारानगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव हार गए और चुनाव के दौरान अभूतपूर्व हेराफेरी की शिकायत दर्ज कराई। उनकी पार्टी सीपीआई (एम) ने 1977 में नए सिरे से चुनाव होने तक विधानसभा के बहिष्कार का फैसला किया। 21 जून 1977 से 6 नवम्बर 2000 तक बसु पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया। 1996 में ज्योति बसु भारत के प्रधानमंत्री पद के लिए संयुक्त मोर्चा के नेताओं के सर्वसम्मति उम्मीदवार बनते दिखाई पड़ रहे थे, लेकिन सीपीआई (एम) पोलित ब्यूरो ने सरकार में शामिल नहीं होने का फैसला किया, जिसे बाद में ज्योति बसु ने एक ऐतिहासिक भूल करार दिया। बसु ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद से 2000 में स्वास्थ्यगत कारणों से इस्तीफा दे दिया और साथी सीपीआई (एम) नेता बुद्धदेव भट्टाचार्य को उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त किया। बसु सबसे लंबे समय तक भारतीय राजनीतिक इतिहास में मुख्यमंत्री के तौर पर सेवा के लिए जाने जाएंगे।

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