ट्रंप प्रशासन ने अपनी ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति को वैश्विक स्तर। पर लागू करने के उद्देश्य से एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। इस पहल के तहत, दुनिया भर में तैनात लगभग 30 अमेरिकी राजदूतों को वापस बुलाने की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। यह निर्णय अमेरिकी विदेश नीति को राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के घोषित एजेंडे के अनुरूप ढालने के व्यापक प्रयास का हिस्सा है। प्रशासन से जुड़े अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि यह कदम राजदूतों को बर्खास्त करने के लिए नहीं है, बल्कि उन्हें अमेरिकी विदेश विभाग (स्टेट डिपार्टमेंट) के भीतर अन्य महत्वपूर्ण भूमिकाएं और जिम्मेदारियां सौंपी जाएंगी। इस कदम से वैश्विक कूटनीति के गलियारों में हलचल मच गई है, क्योंकि। यह अमेरिका की विदेश नीति में एक स्पष्ट बदलाव का संकेत देता है।
'अमेरिका फर्स्ट' एजेंडा और कूटनीतिक बदलाव
राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का ‘अमेरिका फर्स्ट’ एजेंडा उनकी विदेश नीति का आधार। रहा है, जिसका उद्देश्य अमेरिकी हितों को अंतरराष्ट्रीय संबंधों में सर्वोपरि रखना है। इस एजेंडे के तहत, ट्रंप प्रशासन का मानना है कि विदेशों में तैनात अमेरिकी प्रतिनिधियों को इस नीति को प्रभावी ढंग से लागू करना चाहिए और राजदूतों की वापसी इसी सोच का परिणाम है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अमेरिकी कूटनीति पूरी तरह से राष्ट्रपति के दृष्टिकोण के साथ संरेखित हो। यह कदम उन कूटनीतिक नियुक्तियों की समीक्षा का प्रतीक है जो पिछली बाइडेन प्रशासन के दौरान हुई थीं, और अब उन्हें ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की प्राथमिकताओं के अनुरूप बदला जा रहा है।
राजदूतों की वापसी: एक सामान्य प्रक्रिया?
एक वरिष्ठ स्टेट डिपार्टमेंट अधिकारी ने इस कार्रवाई को ‘हर प्रशासन में होने वाली सामान्य प्रक्रिया’ बताया है। अधिकारी के अनुसार, राजदूत राष्ट्रपति का व्यक्तिगत प्रतिनिधि होता है, और यह राष्ट्रपति का अधिकार है कि वह यह सुनिश्चित करें कि विदेशों में तैनात अधिकारी ‘अमेरिका फर्स्ट’ एजेंडे को प्रभावी ढंग से लागू करें। यह तर्क दिया गया है कि प्रत्येक नए प्रशासन को अपने कूटनीतिक प्रतिनिधियों पर भरोसा होना चाहिए जो उसकी नीतियों और प्राथमिकताओं को पूरी तरह से समझते और उनका समर्थन करते हों। हालांकि, इस पैमाने पर और इतने कम समय में राजदूतों की वापसी असामान्य मानी जा रही है, खासकर तब जब कई कूटनीतिक पद पहले से ही खाली पड़े हैं।
सूत्रों के मुताबिक, कम से कम 29 देशों के मिशन प्रमुखों को पिछले सप्ताह। ही सूचित कर दिया गया था कि उनका कार्यकाल जनवरी 2026 में समाप्त हो जाएगा। इन राजदूतों में से अधिकांश कैरियर फॉरेन सर्विस अधिकारी हैं, जिनकी नियुक्ति बाइडेन प्रशासन के दौरान हुई थी। ये वे अधिकारी थे जो ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की शुरुआती छंटनी से बच गए थे, लेकिन अब व्हाइट हाउस से जारी नोटिस के बाद उनकी वापसी तय हो गई है। यह सूचना उन्हें पर्याप्त समय पहले दी गई है ताकि वे अपनी वापसी की तैयारी कर सकें और संबंधित देशों में सुचारु रूप से सत्ता हस्तांतरण सुनिश्चित किया जा सके।
प्रभावित देश और क्षेत्र
राजदूतों की वापसी का सबसे अधिक असर अफ्रीका महाद्वीप पर पड़ा है, जहां नाइजीरिया, सेनेगल, रवांडा, युगांडा, सोमालिया और मेडागास्कर सहित कुल 13 देशों से राजदूतों को वापस बुलाया गया है। यह अफ्रीका में अमेरिकी कूटनीतिक उपस्थिति में एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत देता है और एशिया में, फिजी, लाओस, मार्शल आइलैंड्स, पापुआ न्यू गिनी, फिलीपींस और वियतनाम जैसे देश प्रभावित हुए हैं, जो इस क्षेत्र में अमेरिकी संबंधों पर संभावित प्रभाव डाल सकते हैं। यूरोप में, आर्मेनिया, नॉर्थ मैसेडोनिया, मोंटेनेग्रो और स्लोवाकिया सहित चार देशों से राजदूतों को वापस बुलाया गया है। इसके अतिरिक्त, मध्य पूर्व में अल्जीरिया और मिस्र, दक्षिण एवं मध्य एशिया में नेपाल और श्रीलंका, तथा ग्वाटेमाला और सूरीनाम से भी अमेरिकी राजदूत वापस लौटेंगे। यह व्यापक वापसी वैश्विक स्तर पर अमेरिकी कूटनीतिक नेटवर्क में एक बड़े पुनर्गठन का संकेत देती है।
डेमोक्रेट्स की कड़ी आलोचना
ट्रंप सरकार के इस फैसले पर डेमोक्रेट्स ने गहरी चिंता व्यक्त की है और इसकी कड़ी आलोचना की है। उनका तर्क है कि जब कई राजदूत पद पहले से ही खाली पड़े हैं, तो यह कदम अमेरिकी कूटनीति को और कमजोर कर सकता है। सीनेट फॉरेन रिलेशंस कमेटी की शीर्ष डेमोक्रेट सीनेटर जीन शाहीन ने इस फैसले पर अपनी नाराजगी व्यक्त की और उन्होंने कहा कि ट्रंप प्रशासन अमेरिका की वैश्विक नेतृत्व की भूमिका को कमजोर कर रहा है। सीनेटर शाहीन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर पोस्ट करते हुए लिखा कि ‘योग्य और अनुभवी राजदूतों को हटाकर राष्ट्रपति ट्रंप अमेरिका की नेतृत्व क्षमता को चीन और रूस के हवाले कर रहे हैं और ’ डेमोक्रेट्स का मानना है कि ऐसे समय में जब वैश्विक चुनौतियां बढ़ रही हैं, अनुभवी कूटनीतिक प्रतिनिधियों को हटाना अमेरिका के राष्ट्रीय हितों के लिए हानिकारक हो सकता है और इससे वैश्विक मंच पर अमेरिका की विश्वसनीयता प्रभावित हो सकती है।