विदेश / दुनिया की पहली मलेरिया वैक्सीन को डब्ल्यूएचओ से मिली व्यापक इस्तेमाल की मंज़ूरी

Vikrant Shekhawat : Oct 08, 2021, 10:35 AM
मलेरिया वैक्सीन: कोरोना वायरस की त्रासदी के पहले से दुनियाभर में हर साल चार लाख लोगों की जान ले रहा था मलेरिया। इसे रोकने के लिए वैक्सीन बनाना दशकों से एक बड़ी चुनौती था। अब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया की पहली मलेरिया वैक्सीन के इस्तेमाल पर मुहर लगा दी है। WHO चीफ टेड्रोस ऐडनम ने इस घातक बीमारी से चल रही जंग में एक ऐतिहासिक दिन करार दिया है। इस वैक्सीन का इस्तेमाल अफ्रीकी देशों में उन बच्चों पर किया जाएगा जिन्हें इस बीमारी का ज्यादा खतरा है। मलेरिया का तोड़ निकालने की कोशिश करीब 80 साल से चल रही है और करीब 60 साल से आधुनिक वैक्सीन डिवेलपमेंट पर रिसर्च जारी है। आखिर क्या वजह रही जो इतने लंबे समय से इस बीमारी की वैक्सीन बनाना इतना मुश्किल रहा और इस नई वैक्सीन ने यह कैसे कर दिखाया?

कैसे फैलता है मलेरिया?

मलेरिया Plasmodium falciparum पैरासाइट से फैलता है। यह Anopheles मच्छर के काटने से इंसानों में दाखिल होता है। इस पैरासाइट का जीवनचक्र इतना जटिल होता है कि इसे रोकने के लिए वैक्सीन बनाना इतने लंबे वक्त से लगभग नामुमकिन सा हो गया था। इसका जीवनचक्र तब शुरू होता है जब मादा मच्छर इंसान को काटती है और खून में Plasmodium के स्पोरोजॉइट (sporozoite cells) को रिलीज कर देती है। ये स्पोरोजॉइट इंसानी लिवर में बढ़ते जाते हैं और मीरोजॉइट (merozoite) बन जाते हैं। धीरे-धीरे ये लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) को शिकार बनाते हैं और इनकी संख्या बढ़ती रहती है।

इसकी वजह से बुखार, सिरदर्द, सर्दी, मांसपेशियों में दर्द और कई बार अनीमिया (anemia) भी हो जाता है। ये पैरासाइट के प्रजनन के लिए जरूरी गमीटोसाइट (gametocyte) भी खून में रिलीज करते हैं। जब दूसरा मच्छर शख्स को काटता है तो खून के साथ ये गमीटोसाइट उसके शरीर में चले जाते हैं। चुनौती की बात यह है को जीवन के हर चरण पर पैरासाइट की सतह पर लगा प्रोटीन (malarial parasite surface protein) बदलता रहता है। इस वजह से यह शरीर के इम्यून सिस्टम से बचता रहता है। वैक्सीन आमतौर पर इस प्रोटीन को टार्गेट करके ही बनाई जाती हैं और इसलिए अभी तक इसमें सफलता नहीं मिल सकी थी।

यह वैक्सीन क्यों खास?

Mosquirix यहीं पर कारगर साबित होती है। यह पैरासाइट की स्पोरोजॉइट स्टेज पर ही हमला करता है। वैक्सीन में वही प्रोटीन लगाया गया है जो पैरासाइट में उस स्टेज पर लगा होता है। इम्यून सिस्टम इस प्रोटीन को पहचानता है और शरीर में प्रतिरोधक क्षमता पैदा करता है। Mosquirix को 1980 के दशक में बेल्जियम में SmithKline-RIT की टीम ने बनाया था जो अब GlaxoSmithKline (GSK) का हिस्सा है।

हालांकि, इस वैक्सीन को भी लंबे वक्त तक सफलता नहीं मिल सकी। साल 2004 में 'The Lancet' में छपी स्टडी में बताया गया कि इसके सबसे पहले बड़े ट्रायल को 1-4 साल के 2000 बच्चों में मोजांबीक में जब किया गया तो वैक्सिनेशन के 6 महीने बाद इन्फेक्शन 57% कम हो गया था।

आसानी से नहीं मिली सफलता

इसके बाद धीरे-धीरे डेटा निराशाजनक होने लगा। साल 2009-2011 के बीच 7 अफ्रीकी देशों में ट्रायल किया गया तो 6-12 हफ्ते के बच्चों में पहली खुराक के बाद कोई सुरक्षा नहीं देखी गई। हालांकि, पहली खुराक 17-25 महीने की उम्र पर देने से इसमें 40% इन्फेक्शन और 30% गंभीर इन्फेक्शन कम पाए गए।

रिसर्च जारी रही और साल 2019 में WHO ने घाना, केन्या और मालावी में एक पायलट प्रोग्राम शुरू किया जिसमें 8 लाख से ज्यादा बच्चों को वैक्सीन दी गई। इसके नतीजों के आधार पर WHO ने वैक्सीन के इस्तेमाल को मंजूरी दे दी है। 23 लाख से ज्यादा खुराकें देने के बाद घातक मामलों में 30% की गिरावट देखी गई है। स्टडी में वैक्सीन का बच्चों के दूसरे वैक्सिनेशन या बीमारियों पर नकारात्मक असर नहीं पड़ा है।

अभी लंबी है राह

WHO के डेटा के मुताबिक साल 2017 में मलेरिया के 92% मामले अफ्रीका के सब-सहारा इलाके में पाए गए और बाकी दक्षिणपूर्व एशिया और पूर्वी भूमध्य सागर के इलाकों में। आधे मामले नाइजीरिया, कॉन्गो, मोजांबिक, भारत और युगांडा में पाए गए। दुनियाभर में साल 2017 में मलेरिया से 4.35 लाख मौतें हुईं जो पहले के मुकाबले कम थीं। अभी इस वैक्सीन को सिर्फ अफ्रीकी देशों के लिए मंजूरी मिली है और अब दुनियाभर में इसे रोलआउट करने पर प्लान बनाया जाएगा। WHO चीफ का कहना है कि वैक्सीन एक शक्तिशाली हथियार है लेकिन कोविड-19 की तरह ही सिर्फ वैक्सीन पर भरोसा नहीं करना होगा। अभी भी मच्छरदानियों और बुखार का ध्यान रखना जरूरी है।

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