चीन ने थोरियम को यूरेनियम में बदलकर परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर स्थापित किया है, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींचा है. गोबी रेगिस्तान के वुवेई स्थित दो मेगावॉट थोरियम मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर (TMSR-LF1) में थोरियम को यूरेनियम में बदलने का पहला चरण सफलतापूर्वक पूरा कर लिया गया है. यह उपलब्धि इस बात का प्रमाण है कि थोरियम को मानव जाति के लिए एक स्वच्छ, सुरक्षित और अत्यधिक फायदेमंद परमाणु ईंधन के रूप में विकसित किया जा सकता है और इस सफलता के बाद थोरियम एक बार फिर वैश्विक ऊर्जा चर्चा के केंद्र में आ गया है.
थोरियम से यूरेनियम रूपांतरण की प्रक्रिया
थोरियम-232, जो स्वयं विखंडनशील नहीं है, एक उपजाऊ नाभिक के रूप में कार्य करता है. नाभिकीय विखंडन वह प्रक्रिया है जिसमें एक भारी परमाणु के नाभिक को न्यूट्रॉन से टकराकर दो या दो से अधिक छोटे नाभिकों में तोड़ा जाता है, जिससे भारी मात्रा में ऊर्जा, न्यूट्रॉन और विकिरण मुक्त होते हैं. थोरियम को यूरेनियम में बदलने के लिए भी इसी प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है. जब थोरियम-232 को न्यूट्रॉनों की वर्षा में रखा जाता है, तो यह थोरियम-233 में बदल जाता है. यह अस्थिर नाभिक लगभग 22 मिनट में बीटा क्षय से प्रोटैक्टिनियम-233 में परिवर्तित होता है, और फिर 27 दिनों में बीटा क्षय होकर यूरेनियम-233 बन जाता है, जो एक विभाज्य नाभिक है और रिएक्टर में यह शृंखला लगातार चलती रहती है. यूरेनियम-233 टूट कर भारी ऊर्जा छोड़ता है, कुछ न्यूट्रॉन बाहर आते हैं, वे नई थोरियम नाभिकों को फिर सक्रिय करते हैं, और यह प्रक्रिया चलती रहती है और इसे थोरियम ईंधन चक्र कहा जाता है. इस चक्र की खासियत यह है कि प्रारम्भिक स्टार्ट-अप के बाद ईंधन का बड़ा हिस्सा स्वयं रिएक्टर के अंदर ही बनता रहता है.
85 साल पुराना सपना हुआ साकार
थोरियम आधारित रिएक्टरों पर काम लगभग 85 साल पहले शुरू हुआ था. साल 1940 के दशक में, अमेरिका के ओक रिज राष्ट्रीय प्रयोगशाला के वैज्ञानिक अल्विन वाइनबर्ग ने लिक्विड-फ्यूल मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर की रूपरेखा तैयार की थी. इसके बाद, साल 1965-69 के बीच मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर एक्सपेरिमेंट (MSRE) में यूरेनियम-233 और थोरियम नमक मिश्रण चला कर यह सिद्ध किया गया कि तरल नमक माध्यम उच्च तापमान पर भी वायुमंडलीय दाब पर सुरक्षित रह सकता है. भारत ने भी होमी भाभा की त्रिस्तरीय कार्यक्रम-नीति (प्रेसराइज्ड हेवी वॉटर रिएक्टर-प्लूटोनियम-तेज न्यूट्रॉन रिएक्टर-थोरियम) अपनाई और कलपक्कम के कामिनी रिएक्टर में यू-233 आधारित संयंत्र का संचालन किया. चीन ने 2011 में थोरियम मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर को राष्ट्रीय वैज्ञानिक पायलट परियोजना का दर्जा दिया और 2023 में पहला क्रिटिकलिटी बिंदु हासिल किया गया और अक्टूबर 2024 में थोरियम लोडिंग के बाद, 2025 नवंबर में थोरियम से यूरेनियम रूपांतरण के आंकड़े सार्वजनिक हुए, जैसा कि शंघाई इंस्टीट्यूट ऑफ़ अप्लाइड फ़िज़िक्स (SINAP) ने घोषित किया.
चीन की कामयाबी का वैश्विक महत्व
चीन की यह उपलब्धि दुनिया के लिए कई मायनों में खास है. चीन ने रेअर-अर्थ खनन के उप-उत्पाद के रूप में मिलने वाले लगभग 14 लाख टन अनुमानित थोरियम भंडार को ध्यान में रखते हुए उत्तर-पश्चिम रेगिस्तानी क्षेत्र में ऐसा रिएक्टर लगाया जहां जलस्रोत सीमित हैं और मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर को उच्च तापमान पर भी पानी की जरूरत नहीं होती, इसलिए रेगिस्तान में लगाना संभव है. चाइना डेली के अनुसार SINAP-टीम के उपनिदेशक ली चिंगनुआन कहते हैं कि तरल ईंधन को बंद नहीं करना पड़ता; ऑनलाइन रिफ़्यूएलिंग संभव है, अपशिष्ट कम बनता है और ईंधन-उपयोगिता कई गुणा बढ़ती है और यह दक्षता और पर्यावरणीय लाभों का एक महत्वपूर्ण संयोजन है.
मानवता के लिए थोरियम ऊर्जा के लाभ
यह प्रयोग मानवता के लिए ऊर्जा सुरक्षा, सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के संदर्भ में अत्यधिक मददगार साबित हो सकता है और थोरियम, यूरेनियम की तुलना में तीन से चार गुना अधिक पाया जाता है, और भारत, चीन, ब्राज़ील, तुर्की और नॉर्वे जैसे देशों में इसका विशाल भंडार है. इस प्रयोग के सफल होने पर भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में स्वच्छ ऊर्जा की समस्या खत्म हो जाएगी. मॉल्टन-सॉल्ट रिएक्टर वायुमंडलीय दाब पर चलता है, जिससे प्रेशराइज्ड वॉटर रिएक्टर की तरह इसमें भाप-विस्फोट का खतरा नहीं है. यूरेनियम-233 चक्र में ट्रांसयूरैनिक नाभिक कम बनते हैं, जिसका लाभ यह है कि दीर्घावधि रेडियो कचरा लगभग दस गुना कम पैदा होता है. यूरेनियम-233 में यूरेनियम-232 अशुद्धि स्वतः मिलती है, जो तेज वाई किरणें देता है. इससे किसी हथियार-उद्देश्य का गुप्त प्रसंस्करण तैयार करना मुश्किल बनता है, जिससे परमाणु अप्रसार को बढ़ावा मिलता है और 700 डिग्री सेल्सियस तक का आउटपुट उद्योगों को सीधे भाप, हाइड्रोजन-उत्पादन, समुद्री जल शोधन और रासायनिक संयंत्रों में काम आता है, जिससे बिजली-उत्पादन के साथ प्रोसेस हीट भी मिलती है. मॉड्यूलर न्यूक्लियर बैटरी आकार के रिएक्टर कटिबंधीय द्वीपों, ध्रुवीय शोध-स्थलों, यहां. तक कि भविष्य के चंद्र-आधारों के लिए भी उपयुक्त हो सकते हैं. रिपोर्ट्स के मुताबिक चीनी नौसेना और वाणिज्यिक जहाजों पर एक बार ईंधन भरने के बाद दस वर्ष तक समुद्र में रहने की परिकल्पना पर अध्ययन जारी है.
प्रमुख चुनौतियां और भविष्य की राह
इस तकनीक में कुछ चुनौतियां भी हैं जिन पर काबू पाया जाना है. फ़्लोराइड सॉल्ट 600-800 डिग्री सेल्सियस पर धातुओं को घुला देता है. ओक रिज में 1960 के दशक में पाइप तीन महीने में फट गए थे. चीनी दल ने दसियों हज़ार कूपन-टेस्ट कर के निकल-आधारित N-हास्टेलॉय विकसित किया जिसकी अनुमानित आयु 10 वर्ष से अधिक है. तरल ईंधन से प्रोटैक्टिनियम अलग कर के सुरक्षित कक्ष में पूरा होने देना होता है ताकि वह यू-233 बन कर दोबारा सर्किट में जाए. यह सॉल्वैंट एक्सट्रैक्शन और रेडॉक्स-क्रिस्टलाइजेशन जैसी जटिल पद्धतियों से होता है. इनकी स्वचालित, रेडियो-सुरक्षित डिज़ाइन पर अभी निरंतर शोध जारी है. चीन 2035 तक 100 मेगावॉट प्रदर्शन रिएक्टर और 2050 के आसपास वाणिज्यिक तैनाती का रोड-मैप बना रहा है.
भारत विश्व का सबसे बड़ा मोनाज़ाइट-समुद्र-तटीय रेत भंडार रखता है, जो थोरियम का एक प्रमुख स्रोत है. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ न्यूक्लियर साइंस व इंजीनियरिंग के डॉ आर. के. सिंह मानते हैं कि यदि तरल-नमक रिएक्टर में चीनी सफलता उत्पादन-स्तर पर स्थिर रहती है,. तो भारत का त्रिस्तरीय कार्यक्रम एक दशक में सीधे तीसरे चरण में छलांग लगा सकता है. यूरोप में कोपेनहेगन-आधारित स्टार्टअप Seaborg और अमेरिका-स्थित Terrestrial Energy भी इसी दिशा में छोटे मॉड्यूलर रिएक्टर डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र का क्लाइमेट पैनल थोरियम-आधारित चौथी पीढ़ी के रिएक्टरों को दीर्घकालीन, निम्न-कार्बन बेस-लोड विकल्प की संज्ञा देता है और थोरियम-से-यूरेनियम का कंवर्जन कोई जादू नहीं, बल्कि न्यूट्रॉन भौतिकी का प्रयोग है. बीसवीं सदी में छोड़ी गई इस धारा को इक्कीसवीं सदी के मटेरियल साइंस, ऑटोमेशन और वैश्विक कार्बन-कटौती लक्ष्यों ने दोबारा प्रासंगिक कर दिया है. चीन की तरक़्क़ी ने दिखा दिया कि यदि दीर्घकालीन सरकारी निवेश, अंतर-संस्थानी सहयोग और धैर्य से शोध को. आगे बढ़ाया जाए तो ऊर्जा सुरक्षा, जलवायु संरक्षण और आर्थिक विकास-तीनों मोर्चों पर नई राहें खुल सकती हैं. आज जब दुनिया ऊर्जा भू-राजनीति, जलवायु संकट और तकनीकी नवाचार के चौराहे पर खड़ा है, थोरियम-आधारित यूरेनियम उत्पादन मानवता के लिए न सिर्फ़ एक और विकल्प, बल्कि एक दीर्घकालीन समाधान का वादा करता है और ऐसा समाधान जो प्रचुर संसाधन, उच्च सुरक्षा और स्वच्छ भविष्य, तीनों को एक साथ जोड़ता है.