दावा / भारत में विलय चाहता था नेपाल, नेहरू ने ठुकरा दिया था प्रस्ताव

Zoom News : Jan 06, 2021, 02:58 PM
नई दिल्ली | पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की किताब ‘द प्रेसिडेंशियल ईयर्स’  लगातार सुर्खियों में बनी हुई है। प्रणब मुखर्जी की किताब में पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को लेकर चौंकाने वाला दावा किया गया है। मुखर्जी ने दावा किया है कि नेपाल भारत में विलय होना चाहता था, लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने नेपाल के भारत में विलय करने के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उन्होंने यह भी कहा कि अगर उनकी जगह इंदिरा गांधी होतीं, तो शायद यह प्रस्ताव कभी नहीं ठुकरातीं।

ऑटोबायोग्राफी ‘द प्रेसिडेंशियल ईयर्स’ के चैप्टर 11 'माई प्राइम मिनिस्टर्स: डिफरेंट स्टाइल्स, डिफरेंट टेम्परमेंट्स' शीर्षक के तहत प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने नेहरू को यह प्रस्ताव दिया था कि नेपाल का भारत में विलय कर उसे एक प्रांत बना दिया जाए, लेकिन तब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इस प्रस्ताव को ठुकरा कर दिया था। उन्होंने आगे लिखा है कि अगर इंदिरा गांधी नेहरू के स्थान पर होतीं, तो इस अवसर को जाने नहीं देतीं जैसे उन्होंने सिक्किम के साथ किया था।

इंदिरा गांधी अवसर का फायदा उठातीं 

मुखर्जी ने लिखा कि नेहरू ने बहुत कूटनीतिक तरीके से नेपाल से निपटा। नेपाल में राणा शासन की जगह राजशाही के बाद नेहरू ने लोकतंत्र को मजबूत करने में अहम भूमिका निभाई। खास बात यह है कि नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने नेहरू को सुझाव दिया था कि नेपाल को भारत का एक प्रांत बनाया जाए, लेकिन नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना है कि नेपाल एक स्वतंत्र राष्ट्र है और उसे ऐसा ही रहना चाहिए। वह आगे लिखते हैं कि अगर इंदिरा गांधी उनकी जगह होतीं, तो शायद वह अवसर का फायदा उठातीं जैसा कि उन्होंने सिक्किम के साथ किया था।

प्रणब दा चाहते थे कि मोदी संसद में ज्यादा बोला करें 

मुखर्जी चाहते थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने विचारों से असहमति रखने वाली आवाजों को भी सुना करें और संसद में ज्यादा बार बोला करें। पूर्व राष्ट्रपति की इच्छा थी कि प्रधानमंत्री मोदी संसद का उपयोग अपने विचारों को फैलाकर विपक्ष को सहमत करने वाले तथा देश को सूचित करने वाले मंच की तरह किया करें। मुखर्जी के मुताबिक, संसद में प्रधानमंत्री की उपस्थिति मात्र से ही इस संस्थान की कार्यप्रणाली में अभूतपूर्व परिवर्तन आ जाता है। अपने आखिरी संस्मरण ‘द प्रेसिडेंशियल ईयर्स, 2012-2017’ में मुखर्जी ने लिखा है कि चाहे जवाहरलाल नेहरू रहे हों या इंदिरा गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी या मनमोहन सिंह, इन पूर्व प्रधानमंत्रियों में से हर एक ने सदन के फ्लोर अपनी उपस्थिति महसूस कराई है। मुखर्जी द्वारा पिछले साल अपने निधन से पहले पूरी की गई यह किताब मंगलवार को रिलीज की गई। 

कहा, पूर्व प्रधानमंत्रियों से लेनी चाहिए प्रेरणा 

पूर्व राष्ट्रपति ने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी अब अपने दूसरे कार्यकाल में हैं। उन्हें पूर्व प्रधानमंत्रियों से प्रेरणा लेनी चाहिए और संसद में अपनी ज्यादा उपस्थिति के जरिए नेतृत्व क्षमता दिखानी चाहिए ताकि उनके पहले कार्यकाल में बार-बार होने वाले संसदीय संकट जैसी स्थितियों से बचा जा सके। मुखर्जी ने कहा कि यूपीए के कार्यकाल के दौरान वह विपक्ष के नेता और यूपीए व एनडीए, दोनों के वरिष्ठ नेताओं के साथ लगातार संपर्क बनाए रखकर विभिन्न मुद्दे हल करते थे।

उन्होंने कहा, मेरा काम सदन को चलाना था, चाहे इसका मतलब विपक्षी गठबंधन के सदस्यों से मिलना और उन्हें आश्वस्त करना रहा। मैं हर समय सदन में उपस्थित रहता था ताकि विवादित मुद्दे जब भी उठें, उन्हें हल किया जा सके। लेकिन मुखर्जी इस बात से निराश थे कि 2014-19 तक के अपने पहले कार्यकाल के दौरान संसद की सुचारु व समुचित कार्यवाही सुनिश्चित करने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी को निभाने में एनडीए सरकार विफल साबित हुई। 

एनडीए सरकार को बताया अहंकार व बेतुके व्यवहार वाली

मुखर्जी ने लिखा, मैं सत्ता और विपक्षी बेंचों के बीच उग्र व्यवहार का दोष सरकार के अहंकार और बेतुके व्यवहार को देता हूं। लेकिन विपक्ष भी दोषरहित नहीं है। उसने भी गैरजिम्मेदाराना व्यवहार दिखाया। मुखर्जी ने कहा, मैं लगातार कहता रहा हूं कि व्यवधान सरकार से ज्यादा विपक्ष को नुकसान पहुंचाता है, क्योंकि विघटनकारी विपक्ष सरकार को नीचा दिखाने का नैतिक अधिकार गंवा देता है। उन्होंने कहा, यह सरकार को अराजकता फैलने के बहाने संसदीय सत्रों को सीमित करने का अनुचित लाभ भी दे देता है। 

पीएम के कामकाज में दिखती है देश की स्थिति

पूर्व राष्ट्रपति ने कहा, शासन करने का नैतिक अधिकार प्रधानमंत्री में निहित है। प्रधानमंत्री और उनके प्रशासन के कामकाज में भी पूरे राष्ट्र की समग्र स्थिति प्रतिबिंबित होती है। जहां डॉ. मनमोहन सिंह गठबंधन को बचाने के लिए चिंतित रहते थे, जो शासन पर भारी पड़ा। वहीं मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान शासन की एक निरंकुश शैली को बढ़ावा मिला, जो सरकार, विधायिका और न्यायपालिका के बीच कड़वे रिश्तों के तौर पर दिखाई दी। मुखर्जी ने कहा, इस सरकार के दूसरे कार्यकाल में ऐसे मुद्दों पर ज्यादा बेहतर समझ है या नहीं, यह केवल समय ही बताएगा।

मत नहीं देने वालों की भी सुननी होगी आवाज

प्रणब मुखर्जी ने कहा, सरकार के लिए यह भी जरूरी है कि वह आबादी के उस तबके की मांगों और इच्छाओं को ध्यान में रखे, जिन्होंने उसे वोट नहीं दिया है, क्योंकि सरकार मताधिकार की प्राथमिकता की परवाह किए बिना सभी वर्ग के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

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