Uniform Civil Code / केंद्र सरकार संसद में यूसीसी बिल क्यों नहीं लाएगी?

Zoom News : Jul 06, 2023, 06:06 PM
Uniform Civil Code: समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का मुद्दा जनसंघ के दौर से बीजेपी उठाती रही है और सत्ता में आने पर देश में लागू करने का वादा भी करती रही. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भोपाल की रैली में समान नागरिक संघिता का मुद्दा उठाना देश को जनमत की थाह लेने के रूप में देखा जा रहा है. रैली के बाद से ही इस मसले पर चर्चाओं का बाजार गर्म हो गया. वोटबैंक को देखते हुए राजनीतिक दल भी इसके समर्थन और विरोध में उतरने लगे. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यूसीसी की मुखालफत करने का खुला ऐलान कर दिया. आदिवासी और सिख समुदाय की तरफ से भी विरोध के स्वर उठने लगे.

बीजेपी के तमाम सहयोगी दल भी समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर अपना अलग रुख अख्तियार किए हुए हैं. पूर्वोत्तर के तीन मुख्यमंत्री यूसीसी के खिलाफ हैं जबकि वो बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं. ऐसे में मोदी सरकार ने अलग-अलग समुदाय के साथ विचार-विमर्श करने के लिए चार मंत्रियों को जिम्मा सौंपा है. ऐसा कहा जा रहा है कि मोदी सरकार शायद ही संसद में यूसीसी पर बिल लेकर आए.

बता दें कि बीजेपी एक देश, एक विधान और एक निशान की बात हमेशा से उठाती रही है. मोदी सरकार के पहले और दूसरे कार्यकाल में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और जम्मू-कश्मीर से धारा 370 का समाधान निकल चुका है. ऐसे में अब सिर्फ समान नागरिक संहिता का मुद्दा ही बचा हुआ है. पीएम मोदी ने 9 साल में इस पर कभी कुछ नहीं बोला था, लेकिन 27 जून को भोपाल रैली में विस्तार के साथ समान नागरिक संहिता पर अपनी बात रखी और यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट इसे लागू करने के लिए सरकार पर लगातार दबाव बना रहा है. रैली के बाद यह चर्चा तेज थी कि मोदी सरकार यूसीसी पर अपने कदम बढ़ा सकती है और मानसून सत्र में संसद में बिल ला सकती है. लेकिन अब ऐसा नहीं लग रहा है.

यूसीसी का समर्थन और विरोध

ज्यादातर दल समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं. यूसीसी पर सिर्फ 7 सात दलों का समर्थन अभी तक मिल पाया है. 12 पार्टियां इसके विरोध में जबकि 11 दलों का स्टैंड अभी क्लियर नहीं है. यूसीसी के समर्थन में बीजेपी, आम आदमी पार्टी, बसपा, शिवसेना (शिंदे), शिवसेना (उद्धव) अपना दल (एस) वाईएसआर कांग्रेस है. वहीं, यूसीसी के विरोध में कांग्रेस, सीपीआई, सीपीएम, टीएमसी, नेशनल कॉफ्रेंस, आरजेडी, सपा, जेडीएस, अकाली दल, मुस्लिम लीग, डीएमके और एआईएमआईएम खड़ी है. इसके अलावा टीडीपी, जेजेपी, बीजेडी, बीआरएस, एआईओडीएमके, हम, पीडीपी, जेडीयू, एनसीपी, जेएमएम और वीबीए जैसे दलों का स्टैंड यूसीसी पर साफ नहीं है.

बीजेपी के सहयोगी दल भी नाराज

यूसीसी के मुद्दे पर बीजेपी को अपने सहयोगी दलों का भी समर्थन मिलता नहीं दिख रहा है. इसका सबसे ज्यादा विरोध पूर्वोत्तर के राज्यों में हो रहा है, जहां किसी न किसी तरह से विरोध किया जा रहा है. मेघालय में बीजेपी के सहयोग से सरकार चला रहे मुख्यमंत्री कोनराड संगमा ने साफ शब्दों में कह दिया है कि यूसीसी पर बीजेपी के साथ नहीं हैं. सीएम संगमा ने कहा था कि हमारा मातृसत्तात्मक समाज है और यही हमारी ताक़त है. यही हमारी संस्कृति रही है. अब इसे बदला नहीं जा सकता है.

मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट भले ही बीजेपी के साथ मिलकर सरकार चला रही हो, लेकिन यूसीसी के मामले पर उसका स्टैंड अलग है. मिजोरम ने विधानसभा में प्रस्ताव पास कर दिया है कि केंद्र सरकार भले ही संसद से इसे पास करा ले, लेकिन मिजोरम में यह लागू नहीं होगा. राज्य में इसे तभी लागू किया जा सकेगा जब विधानसभा से इसे पास किया जाएगा. नगालैंड में बीजेपी के साथ सरकार चला रहे एनपीएफ के नेता नेफ्यू रियो भी यूसीसी के विरोध में हैं. उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा है कि संभावित समान नागरिक संहिता को थोपने की कोई भी कोशिश निरर्थक ही होगी.

असम में बीजेपी और असम गण परिषद का गठबंधन है, लेकिन यूसीसी के मुद्दे पर उसका बीजेपी से अलग स्टैंड है. इसी तरह मणिपुर में भी बीजेपी के सहयोगी दल यूसीसी के मामले पर नाराज हैं तो त्रिपुरा में बीजेपी की सहयोगी दल आईपीएफटी भी नाराज है. इतना ही नहीं तमिलनाडु में बीजेपी की सहयोगी दल AIADMK ने भी साफ-साफ शब्दों में कह दिया है कि यूसीसी के मुद्दे पर साथ नहीं हैं. इनका कहना है कि वे अपनी पहचान से समझौता नहीं करेंगे. उसी के साथ जीते आए हैं. आगे भी जिएंगे. पूर्वोत्तर के दलों को यूसीसी के आने पर अपनी पहचान और सांस्कृति पर खतरा दिख रहा है.

पूर्वोत्तर खिसकने का सता रहा डर

बीजेपी ने पिछले 9 सालों में पूर्वोत्तर में अपनी सियासी जड़े मजबूत की हैं, जिसके दम पर नॉर्थ ईस्ट के सभी राज्यों की सत्ता में अपने दम पर है या फिर सहयोगी दल के तौर पर शामिल है. कर्नाटक की हार के बाद बीजेपी का दक्षिण भारत से सफाया हो चुका है. इस तरह से बीजेपी गुजरात, यूपी, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में अपने दम पर जबकि हरियाणा और महाराष्ट्र में गठबंधन के साथ सत्ता में है. ऐसे में पूर्वोत्तर का इलाका ही बचा रहा है, जहां यूसीसी को लेकर विरोध के सुर उठ रहे हैं. ऐसे में यूसीसी को लाने का कदम सरकार उठाती है तो पूर्वोत्तर के राज्यों में सियासी चुनौतियां खड़ी हो सकती हैं.

मणिपुर पहले से ही जल रहा है और दो महीने से हिंसा की चपेट में है. ऐसे में यूसीसी का कानून आता है तो चिंगारी और भी भड़क सकती है. मणिपुर के साथ-साथ पूर्वोत्तर के बाकी दूसरे राज्यों में भी यूसीसी विरोधी आंदोलन खड़ा हो सकता है. सीएए के दौरान असम सहित नॉर्थ ईस्ट के कई राज्यों में आंदोलन खड़े हो गए थे, जिसको संभलने में बीजेपी को पसीने छूट गए थे. यूसीसी से आदिवासियों को अपनी धार्मिक पहचान और संस्कृति पर खतरा दिख रहा है, जिससे उसके विरोध भी तेज हो सकता है. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले क्या बीजेपी पूर्वोत्तर में इतना बड़ा सियासी रिस्क लेना चाहेगी?

आदिवासियों को नाराज करेगी बीजेपी?

बीजेपी आदिवासी समुदाय पर लगातार फोकस कर रही है, इसके चलते ही द्रौपदी मुर्मू को देश का राष्ट्रपति बनाया गया. गुजरात चुनाव में पहली बार आदिवासी समाज का एकमुश्त वोट बीजेपी को मिला है और इसी साल जिन 5 राज्यों में चुनाव होने हैं, उसमें से चार राज्यों में आदिवासी मतदाता काफी अहम हैं. यूसीसी के मुद्दे पर मोदी सरकार अगर अपने कदम बढ़ाती है तो बीजेपी के पास आ रहे आदिवासी समुदाय के दूर होने का भी खतरा है, क्योंकि यूसीसी से शादी, तलाक, विरासत जैसी जीचों पर सभी के लिए एक कानून हो जाएगा. इसके चलते ही आदिवासी समुदाय को अपनी पहचान और अधिकारों पर खतरा दिख रहा है.

यूसीसी को लेकर कहा जा रहा है कि देश के आदिवासी समाज के अधिकार और आजादी कम हो सकती है, जिसके चलते ही आदिवासी समुदाय से विरोध के सुर उठ रहे हैं. देश में 8.6 फीसदी आदिवासी समुदाय की आबादी है, लेकिन कई राज्यों में आदिवासी किसी भी राजनीतिक दल का खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं. देश की कुल 543 लोकसभा सीटों में से 47 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए रिजर्व हैं, जिनमें से 2019 में बीजेपी 31 सीटें जीतने में सफल रही थी. ऐसे में बीजेपी क्या यूसीसी को लाकर आदिवासी समुदाय के साथ नाराजगी का जोखिम उठाने का साहस कर सकेगी.

पसंमादा-सिख-ईसाई दांव कैसे सधेगा

बीजेपी पसमांदा-बोहरा मुस्लिम, सिख और ईसाई समुदाय को साधने की लगातार कवायद कर रही है. पीएम मोदी पसमांदा और बोहरा मुस्लिमों को लेकर खास फोकस किए हुए हैं. इसी तरह पंजाब में बीजेपी की कोशिश सिख समाज को अपने पाले में करने की है तो केरल में ईसाई समुदाय के विश्वास जीतने के लिए मशक्कत कर रही है. ऐसे में यूसीसी को लागू किए जाने के पक्ष में मुसलमानों से लेकर सिख और ईसाई समुदाय तक नहीं हैं. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने बकायदा विधि आयोग को अपना मसौदा देकर यूसीसी पर अपनी आपत्तियां दर्ज कराईं और विरोध करने का ऐलान भी कर दिया है.

सिख समुदाय की नाराजगी को देखते हुए पंजाब के सीएम भगवंत मान ने यूसीसी के विरोध किया है, जो कि आम आदमी पार्टी के स्टैंड के उल्टा है. ऐसे में मोदी सरकार क्या अल्पसंख्यक समुदाय के बड़े तबके के विरोध को देखते हुए सवाल उठ रहे हैं कि क्या सरकार संसद में यूसीसी बिल लाने का साहस जुटा पाएगी. सीएए का विरोध ज्यादा मुस्लिम तबके से हुआ था, लेकिन यूसीसी का विरोध अल्पसंख्यक समुदाय में शामिल सभी धर्मों के लोग कर रहे हैं. ऐसे में देखना होगा कि मोदी सरकार क्या यूसीसी पर कदम आगे बढ़ा पाएगी?

सरकार की सियासी मजबूरियों को देखते हुए कहा जा रहा है कि उत्तराखंड, असम और गुजरात में यूसीसी को लागू कर इसकी लिटमस टेस्ट किया जाएगा. क्योंकि यही तीनों राज्य हिंदुत्व की प्रयोगशाला माने जा रहे हैं. अगर इन तीनों राज्यों में प्रयोग सफल रहता है तो फिर इस पर राष्ट्रीय कानून बनाने के बात आगे बढ़ाई जा सकती है.

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