नहीं रहे बूटासिंह / जालोर—सिरोही के सांसद रहे बूटा सिंह राम मंदिर के लिए भी याद किए जाने चाहिए, कांग्रेस को हाथ का निशान भी उनकी देन

Zoom News : Jan 02, 2021, 08:42 AM
1989 में रामलला विराजमान मुकदमे का हिस्सा बने, जिससे जमीन पर मालिकाना हक की कानूनी लड़ाई शुरू हुई

इससे पहले हिंदू पक्ष की ओर से जो भी केस दायर हुआ, उसमें कहीं भी जमीन के मालिकाना हक की मांग नहीं थी

तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह ने शीला दीक्षित के जरिए अशोक सिंघल को संदेश भिजवाया था

प्रदीप बीदावत

जयपुर। जालोर और सिरोही के सांसद रहे देश के पूर्व गृहमंत्री बूटासिंह हमारे बीच नहीं रहे। बूटासिंह के पुत्र अमरिंदरसिंह लवली ने फेसबुक पर यह जानकारी शेयर कर इसकी जानकारी दी है। बूटासिंह को याद करने की अलग—अलग वजहें हो सकती है, लेकिन राम जन्म भूमि विवाद में एक अति महत्वपूर्ण भूमिका के लिए उन्हें याद करना लाजिमी है। साथ ही कांग्रेस को मिला मौजूदा पंजे का चुनाव निशान भी बूटासिंह के आवेदन की देन है। बूटासिंह ही वह पहले शख्स थे, जिन्होंने यह बताया था कि राम जन्मभूमि विवाद में​ हिन्दू पक्ष की ओर से एक बड़ी चूक होने जा रही है।

मेरे पिता श्रि बूटा सिंह जी का आज सुबह स्वर्गवास हो गया है वाहेगुरु जी उनहे अपने चरणो मे स्थान बख्शे वाहेगुरु वाहेगुरु वाहेगुरु वाहेगुरु वाहेगुरु

Posted by Arvinder Singh Lovely Sidhu on Friday, 1 January 2021
यह विवाद करीब एक सदी से चल रहा था, लेकिन हिन्दू पक्ष की ओर से सिर्फ पूजा और मंदिर प्रबंधन की मांग को लेकर ही विवाद था। भूमि संबंधी विवाद का उल्लेख तब तक नहीं था। ऐसे में बूटासिंह ने इस तथ्य की ओर प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ध्यान आकृष्ट किया। राजीव के प्रयास पर बात विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंघल तक बात पहुंची और हिन्दू पक्ष ने रामलला जन्म भूमि के मुद्दे पर न्यायालय में अपनी मांग मुखर की। कांग्रेस के समय में ही इसके ताले खोले गए थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि राम जन्मभूमि मुद्दे पर बीजेपी सबसे अधिक मुखर और प्रभावी पार्टी रही है। हालांकि इसको लेकर देश का साम्प्रदायिक ताना—बाना बुरी तरह से प्रभावित हुआ है। 

इलाहाबाद (अब प्रयागराज) में नेहरू परिवार और अशोक सिंघल के परिवार का घर आमने-सामने था और दोनों परिवारों में बेहद घनिष्ठता थी। इसी घनिष्ठता की वहज से राजीव ने परोक्ष रूप से इसमें सहयोग किया। विहिप के उपाध्यक्ष और मंदिर आंदोलन को बेहद करीब से जानने वाले चंपत राय का कहना है कि शीला दीक्षित ही राजीव गांधी और अशोक सिंघल के बीच सेतु का काम कर रहीं थी। यहीं से तीसरी अहम याचिका दाखिल करने की पटकथा शुरू हुई। बूटा सिंह की सलाह काम कर गई और आंदोलन से जुड़े नेता देवकीनंदन अग्रवाल और कुछ लोगों को पटना भेजा गया। यहां कानून के जानकार लाल नारायण सिन्हा और 5-6 लोग जमा हुए और तीसरे मुकदमे की पटकथा बनी। इसमें रामलला विराजमान और स्थान श्री रामजन्मभूमि को कानूनी अस्तित्व देने की मांग की गई। 


1989 में जमीन पर मालिकाना हक की लड़ाई शुरू हुई

जुलाई 1989 में रामलला विराजमान मुकदमे का हिस्सा बने, जिससे जमीन पर मालिकाना हक की कानूनी लड़ाई शुरू हुई। लेकिन निर्मोही अखाड़ा यहां विहिप के खिलाफ खड़ा हो गया। 1950 में जब पूजा की अनुमति मिल गई थी, तब चढ़ावा आने लगा था जिसके प्रबंधन का काम अयोध्या की नगरपालिका को रिसीवर बनाकर किया जाने लगा था। इसके खिलाफ 9 साल बाद निर्मोही अखाड़ा अदालत गया था। यहां भी अखाड़े ने रिसीवर हटाने की मांग की, लेकिन जन्मभूमि को लेकर कोई दावा नहीं किया। 

ये सभी केस के ऐसे पहलू थे, जो हिंदू पक्ष के खिलाफ जा रहे थे। बूटा सिंह ने समय रहते वह सलाह नहीं दी होती तो जमीन के मालिकाना हक का फैसला इतना आसान नहीं था। सिर्फ बूटा सिंह ही नहीं, विहिप बाबरी ढांचा विध्वंस के समय प्रधानमंत्री रहे पीवी नरसिंह राव की भूमिका की भी मुरीद है। राय का कहना है कि जिस तरह से 6 दिसंबर 1992 को ढांचा गिराया गया और 8 दिसंबर की दोपहर तक कोई कार्रवाई नहीं हुई, उससे मंदिर आंदोलनकारियों को भगवान राम का चबूतरा तैयार करने और तिरपाल लगाने का समय मिल गया। 

ऐसे मिला पंजे का निशान


आजादी के बाद कांग्रेस का चुनाव दो बैलों की जोड़ी था। जब कांग्रेस में टूट हुई और इंदिरा गांधी का धड़ा कांग्रेस आई के रूप में देखा जाने लगा। कांग्रेस आई का चुनाव निशान था गाय और बछड़े की जोड़ी। परन्तु जनमानस में इस गाय को इंदिरा गांधी और बछड़े को संजय गांधी के रूप में हास्यास्पद रूप में प्रचारित किया जाने लगा। यह चुनाव निशान कांग्रेस आई को उचित प्रतीत नहीं हुआ। पार्टी के महासचिव संगठन रहते बूटासिंह ने ही नए सिम्बल के लिए आवेदन किया। चुनाव आयोग के निर्देशन पर बूटासिंह ने हाथ, हाथी और साइकिल का चुनाव निशान विकल्प के रूप में चुने। परन्तु उस समय इंदिरा गांधी पीवी नरसिम्हा राव के साथ विजयवाड़ा में थी। उन्होंने गांधी को फोन करते हएु तीनों विकल्प बताए। बूटासिंह की आवाज भारी थी और टेलिफोन लाइन भी क्लीयर नहीं थी।

राजनीतिक पत्रकार रशीद किदवई की किताब 'बैलट -टेन एपिसोड्स दैट शेप्ड इंडियाज डेमोक्रेसी' में लिखते हैं कि इंदिरा ने हाथ कहा। बूटासिंह को सुना हाथी। क्योंकि पंजाबी में हाथ को हत्थ का उच्चारण मिलता है। उच्चारण की गहमागहमी में जब इंदिरा गांधी की आवाज गुस्से से भरने लगी तो फोन करीब एक दर्जन भाषाओं के जानकर पीवी नरसिम्हा राव ने लिया। उन्होंने बूटासिंह के उच्चारण की समस्या को दूर करते हुए कहा मैडम! हाथ मतलब पंजा कह रही हैं। बूटासिंह के आवेदन पर कांग्रेस को पंजे का निशान मिल गया। सभी जानते हैं कि कांग्रेस के लिए कभी विकल्प रूप में रहे निशानों में से हाथी का निशान बाद में बहुजन समाज पार्टी को मिला और साइकिल समाजवादी पार्टी को। एक समय ऐसा भी आया कि तीनों निशानों ने मिलकर यूपी में विधानसभा चुनाव लड़ा।

जालोर को पहचान दी बूटा ने


बूटासिंह ने देश के पिछड़े जिलों में शुमार जालोर और सिरोही को अनूठी पहचान दी। बूटा सिंह का जन्म 21 मार्च 1934 को सिख परिवार में मुस्तफ़ापुर, जालंधर जिला, पंजाब में हुआ था। उनकी शिक्षा जालंधर के लायलपुर खालसा कॉलेज में हुई, जहाँ से उन्हें बी.ए. (ऑनर्स), और बॉम्बे में गुरु नानक खालसा कॉलेज में, जहाँ उन्होंने एम.ए. सिंह की उपाधि प्राप्त की, फिर पीएच.डी. बुंदेलखंड विश्वविद्यालय से की। उन्होंने 1964 में मंजीत कौर से शादी की। उनके तीन बच्चे थे। राजनीति में आने से पहले उन्होंने पत्रकार के रूप में काम किया। उन्होंने अपना पहला चुनाव अकाली दल के सदस्य के रूप में लड़ा था और 1960 के दशक के उत्तरार्ध में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए थे, जब उस पार्टी का विभाजन हुआ था। बूटा सिंह पहली बार साधना निर्वाचन क्षेत्र से भारतीय संसद के लिए चुने गए थे। वह जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद से कांग्रेस पार्टी के साथ जुड़े रहे और वह पूर्व भारतीय प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के करीबी रहे। वह तीसरी, चौथी, 5 वीं, 7 वीं, 8 वीं, 10 वीं, 12 वीं और 13 वीं लोकसभा में लोकसभा की सदस्य के रूप में आठ बार चुने गए।

वह अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (AICC) के महासचिव (1978-1980), भारत के गृह मंत्री और बाद में बिहार के राज्यपाल (2004-2006)बने। उनके द्वारा आयोजित अन्य विभागों में रेलवे, वाणिज्य, संसदीय कार्य, खेल, जहाजरानी, ​​कृषि, संचार और आवास शामिल हैं। वह 2007 से 2010 तक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (कैबिनेट मंत्री के रूप में रैंक) के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने एक किताब पंजाबी स्पीकिंग स्टेट - ए क्रिटिकल एनालिसिस और पंजाबी साहित्य और सिख इतिहास पर लेखों का एक संग्रह लिखा है। उनका नाम इंदिरा युग में ज्ञानी जैल सिंह के साथ भारत के राष्ट्रपति पद के लिए भी कतार में था। 1982 में भारत में प्रतियोगिता आयोजित हुए एशियाई खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष भी थे। 2009 में उन्होंने कांग्रेस से बगावत करते हुए जालोर—सिरोही से निर्दलीय चुनाव लड़ा और दूसरे स्थान पर रहे। 2014 में भी बूटा ने निर्दलीय चुनाव लड़ा। बूटासिंह विवादों में भी रहे हैं। 1998 में संचार मंत्री के रूप में उन्हें झामुमो रिश्वत मामले में दोषी ठहराया गया था, और इस्तीफा लिया गया। साथ ही बिहार के राज्यपाल के रूप में, 2005 में बिहार विधानसभा के विघटन की सिफारिश करने के सिंह के फैसले की भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने तीखी आलोचना की थी। अदालत ने फैसला सुनाया कि सिंह ने जल्दबाजी में काम किया और संघीय मंत्रिमंडल को गुमराह किया क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि सत्ता में आने के लिए एक विशेष पार्टी सरकार बनाने का दावा करे। सिंह ने हालांकि दावा किया कि पार्टी सरकार बनाने के लिए समर्थन हासिल करने के लिए अनुचित साधनों का सहारा ले रही थी। राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने 26 जनवरी 2006 को सिंह से अपने पद से इस्तीफा देने को कहा। अगले दिन उन्होंने पद छोड़ दिया।

चन्द्रशेखर भी सुलझाने के हद तक ले आए थे


वैसे राम मंदिर को लेकर की गई कांग्रेस की कोशिशें कभी राजनीतिक हलकों में ज्यादा गिनाई नहीं जाती। परन्तु इस मुद्दे पर चन्द्रशेखर की सजपा सरकार को भी याद किया जाना चाहिए, जिसने 2019 के फैसले का आधार तैयार किया था। आपको बता दें कि चन्द्रशेखर ही वह पहले शख्स थे जो दोनों पक्षों को बातचीत के स्तर पर ले आए थे। भारतीय राजनीति के एक पुराने स्तंभ और बाबरी विध्वंस के समय देश के रक्षा मंत्री रह चुके शरद पवार अपनी आत्मकथा अपनी शर्तों पर में लिखते हैं कि चंद्रशेखर के नेतृत्व में भारत की केंद्र सरकार सात माह से अधिक कार्य नहीं कर सकी लेकिन इसी अवधि में इस सरकार ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को हल करने के गंभीर प्रयास किए। राजस्थान के वरिष्ठ भाजपा नेता भैरों सिंह शेखावत और मैंने भी इस समस्या के समाधान में प्रयास किया। हालांकि बहुत से लोगों को इस प्रयास की जानकारी नहीं है क्योंकि एक तो यह प्रयास पूर्णत: गैर-सरकारी था। दूसरे, अंतिम रूप में यह प्रयास व्यर्थ हो गया। शरद पवार अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि यदि कुछ समय और चन्द्रशेखर रह जाते तो यह विवाद तभी हल हो जाता। इस पूरे चैप्टर को पढ़ें तो ऐसा लगता है कि सालभर में बातचीत से मामला हल हो जाता, लेकिन कांग्रेस ने चन्द्रशेखर की सरकार से समर्थन वापस ले लिया और मामला वहीं अटक गया। बाद में सरकार के स्तर पर ऐसे ईमानदार प्रयास नहीं हुए। मोदी सरकार के समय में सुब्रहमणियन स्वामी के कानूनी प्रयासों से यह मामला निर्णय तक पहुंचा है। स्वामी चन्द्रशेखर की सरकार में कानून मंत्री हुआ करते थे। इससे साफ है कि चन्द्रशेखर और उनकी टीम इस मुद्दे को सुलझाने के लिए कितनी गंभीर थी।

SUBSCRIBE TO OUR NEWSLETTER