जयपुर / राम मंदिर का विवाद आज से तीस साल पहले ही हल हो जाता, यदि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं होती

Zoom News : Nov 14, 2019, 01:25 PM
जयपुर | राम मंदिर निर्माण का फैसला आने के बाद देशभर में प्रतिक्रियाओं का दौर चल रहा है। परन्तु इस दौर में राम मंदिर निर्माण के दो प्रमुख पात्रों का नाम भुला दिया जाना न्यायसंगत नहीं है। इन दोनों ने अलग—अलग समय में वह राह सबसे पहले सुझाई थी, जो आज के फैसले का आधार बनी। इनमें से एक थे जालोर से लम्बे समय तक सांसद रहे और भारत के पूर्व गृहमंत्री सरदार बूटा सिंह, दूसरे थे देश के प्रधानमंत्री रहे चन्द्रशेखर। 

पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने ताला खुलवाकर अयोध्या में विहिप के राम मंदिर आंदोलन को आधार दिया था। वहीं तत्कालीन गृह मंत्री सरदार बूटा सिंह की अहम सलाह ने जन्मभूमि की जमीन हासिल करने की राह सुगम कर दी। 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद के सिविल जज के सामने राम जन्मभूमि में पूजा की अनुमति मांगी थी। जबकि 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड ने विवादित क्षेत्र का मालिकाना हक मस्जिद के पक्ष में मांगा था।

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इससे पहले निर्मोही अखाड़े ने 1959 में मंदिर का प्रबंधन अपने पास लेने का केस दाखिल किया था। यानी हिंदू पक्ष की ओर से दायर केसों में जमीन के मालिकाना हक की मांग नहीं की थी। पर जब राम मंदिर आंदोलन तेजी पकड़ने लगा और राजीव गांधी ने ताला खुलवाया, तब बूटा सिंह ने शीला दीक्षित के माध्यम से अशोक सिंहल को संदेश भेजा था कि हिंदू पक्ष के किसी भी केस में जमीन का मालिकाना हक नहीं मांगा गया है, ऐसे में केस हारना लाजिमी है। दरअसल इलाहाबाद में नेहरू-गांधी परिवार और सिंहल का घर आमने-सामने था और परिवारों में घनिष्ठता थी। इसी वजह से राजीव गांधी ने परोक्ष सहयोग किया था।
बूटा सिंह की सलाह काम कर गई और आंदोलन के नेता देवकीनंदन अग्रवाल और कुछ लोगों को पटना भेजा गया जहां लाल नारायण सिन्हा और साथियों ने तीसरे मुकदमे की पटकथा रची, जिसमें रामलला विराजमान और राम जन्मभूमि को अस्तित्व देने की मांग की गई। 1989 में रामलला मुकदमे का हिस्सा बने, जिससे जमीन पर मालिकाना हक की लड़ाई शुरू हुई।

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दूसरे व्यक्ति और अहम किरदार थे बलिया के बाबू साहब, युवा तुर्क! चन्द्रशेखर। 
जी हां! चन्द्रशेखर वह पहले राजेनता थे जो बातचीत व सहमति के रास्ते से इस मसले का हल निकालना चाहते थे। वे कहते थे दोनों पक्षों से बातचीत की जाए। उन्होंने अपनी आत्मकथा जीवन जैसा जिया में लिखा है कि प्रधानमंत्री बनने के बाद तीन बड़े विवाद उनके सामने थे। कश्मीर की समस्या, राम जन्मभूमि का विवाद और पंजाब में आतंकवाद। तीनों पर उन्होंने काम शुरू किया। वे विहिप के नेताओं से विजयाराजे सिंधिया के घर पर हुई बैठक में मिले और उन्हें कानून—संविधान के दायरे में रहते हुए राजी किया कि सुप्रीम कोर्ट जो निर्णय देगा वे उस पर सहमत होंगे।

मुस्लिम पक्ष से भी चन्द्रशेखर ने बात की और मामले को बातचीत व सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के आधार पर सुलझाने का प्रयास किया। दोनों पक्षों की सहमति हो गई। सुप्रीम कोर्ट से तीन माह में फैसला सुनाने का आग्रह किया गया। परन्तु कांग्रेस को लगा कि यह बड़ा मुद्दा उसका वोट बैंक खिसका देगा। क्योंकि राम मंदिर के ताले राजीव गांधी ने खुलवाए थे। कांग्रेस ने इस मुद्दे को आगे भुनाने के लिए चन्द्रशेखर की सरकार गिरा दी और यह मामला करीब तीन दशक लम्बा खिंच गया।

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यहां यह याद रखना भी समिचीन होगा कि सांसद बसुब्रह्मणियन स्वामी इस प्रकरण को 2016 में उच्चतम न्यायालय में ले गए। ये वही सुब्रह्ममणियन स्वामी है जो चन्द्रशेखर की सरकार में देश के कानून मंत्री हुआ करते थे। 
राज्यसभा के उप सभापति हरिवंश जो कि उनके मीडिया सलाहकार हुआ करते थे, अपने एक आर्टीकल में पूरी बात लिखते हैं। 

लोकसभा में 50 सांसदों के समर्थन से 1990 नवंबर में चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। तब देश जल रहा था, मंदिर और मंडल की आग में। चंद्रशेखर की पहली प्राथमिकता थी, स्थिति सामान्य करना। उनके पास विश्व हिंदू परिषद के लोगों ने संदेश भेजा कि वे मिलना चाहते हैं। प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि तुरंत आ जाइए, प्रधानमंत्री निवास या कार्यालय में ही।

तत्काल आने पर विश्व हिंदू परिषद में अनिर्णय था। यह जान कर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा कि आप लोगों की बैठक में मैं आ जाऊं? विश्व हिंदू परिषद के लोग हैरान व स्तब्ध। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे लोग परेशान व बेचैन। चंद्रशेखर विश्व हिंदू परिषद की बैठक में पहुंच गये। साथ में कोई दूसरा नेता नहीं। राजमाता विजयराजे सिंधिया के घर पर यह बैठक हो रही थी। परिषद के सारे बड़े नेता जमा थे।

प्रधानमंत्री बीच बैठक में आये थे। अशोक सिंघल बोल रहे थे। अत्यंत उत्तेजना में। उग्र भाषा। खून की नदियां बहेंगी, वगैरह-वगैरह। बैठक के तापमान, बड़ी-बड़ी बातों और उन 'डरावनी' घोषणाओं का उन पर कोई असर नहीं। एकदम अप्रभावित, सामान्य, अविचलित और निर्विकार।

चंद्रशेखर के व्यक्तित्व की खासियत थी। उनमें अदम्य साहस था। संवेदना इतनी कि एक चिड़िया मर जाये, तो उसके लिए बेचैनी। पर भयंकर से भयंकर विषम परिस्थितियों में भी अविचलित। मार्मिक अवसरों पर वह अंदर से अत्यंत व्यग्र-बेचैन हों, तब भी उनके चेहरे से भांप नहीं सकते। उत्तेजक माहौल में भी उनके बोलने के टोन में कोई उतार-चढ़ाव नहीं।

कुछ कहने के लिए उनसे आग्रह किया गया। उठे। वहां एक विचार, एक आंदोलन, एक जमात के लोग थे। चंद्रशेखर अकेले। पहली ही पंक्ति कही, गर्जना के स्वर में बड़ी-बड़ी वीरता की बातें-घोषणाएं हुईं। मुझे भी थोड़ा-बहुत इतिहास मालूम है। 15-16 बार गजनी के हमले हुए।

एक पंडे ने भी जान नहीं दी। अतीत में मत जाइए। किसी का भला नहीं होगा। आप जान लीजिए कि अयोध्या में मसजिद की एक ईंट भी गिराने की कोशिश हुई, तो दसों हजार लोगों को मारना होगा, सरकार मरवा देगी। संविधान और भारत संघ के ऊपर कोई नहीं है। कानून और संविधान की रक्षा, सरकार का अहम पवित्र दायित्व है।

यह सुनते ही वहां स्तब्ध, बेचैन करनेवाली खामोशी। मौन टूटा। विश्व हिंदू परिषद की ओर से पूछा गया कि क्या अब कोई रास्ता नहीं बचा?

चंद्रशेखर ने कहा कि रास्ता है। आप तैयार हों तो सरकार, बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी से भी बात करेगी। बाबरी मसजिद एक्शन कमेटी के लोगों को भी प्रधानमंत्री ने बुलवाया। कहा, देखिए देश में तकरीबन छह लाख गांव हैं। 5.50 लाख गांवों में हिंदू-मुसलमान एक साथ रहते हैं। उन गांवों तक दंगे पसरेंगे। तनाव होगा। भारत सरकार अपनी पूरी ताकत (पुलिस, अर्द्धसैनिक बल) भी झोंक दे, तो हरेक व्यक्ति की हिफाजत नहीं हो सकती। इसलिए हल ढूंढ़िए।

और इस तरह अयोध्या-विवाद हल करने के लिए सात दिनों के अंदर बातचीत शुरू हो गयी। जो एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलते थे, वे एक टेबुल पर बैठे, हल निकालने। यह शासन-कला है। राजसत्ता का प्रताप। अयोध्या की जो आग आज तक दहक रही है, जिसमें देश का भविष्य, आर्थिक प्रगति और सपने दफन हो रहे हैं, उसे हल करने की ओर सबसे सार्थक, ठोस, अर्थपूर्ण और गंभीर कदम चंद्रशेखर ने उठाया। 50 सांसदों की सरकार ने उठाया। एक ऐसे प्रधानमंत्री ने उठाया, जिसके पीछे न संगठन बल था, न ताकतवर दल था और न सांसदों का गणित पक्ष में था।

चंद्रशेखर ने शरद पवार, भैरोसिंह शेखावत और मुलायम सिंह यादव को इस बातचीत से जोड़ा। रोज मॉनिटरिंग और प्रगति का दायित्व सौंपा। आरकोलॉजिकल सर्वे को बातचीत में शामिल किया। सुप्रीम कोर्ट से सरकार ने कहा कि एक माह में फैसला दे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तीन माह में फैसला देंगे। फैसला एडवायजरी (सलाह) न होकर मैंडेटरी (बाध्यकारी) हो, केंद्र सरकार ने यह भी मान लिया।

चंद्रशेखर सरकार ने दोनों पक्षों से कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानना होगा। जो भी फैसला होगा, उसे लागू करना सरकार का फर्ज है, चाहे इसके लिए कोई भी कठोर कदम उठाना पड़े।

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सभी पक्ष हल निकालने के लिए सहमत हो गये। इसी बीच दो सिपाहियों के सवाल पर चंद्रशेखर सरकार ने इस्तीफा दे दिया। दरअसल उनकी सरकार जाने के पीछे अंदरूनी कारण कुछ और थे। उनमें से एक कारण अयोध्या-विवाद था। राजनीति के बड़े दिग्गज भांप गये कि अयोध्या-विवाद के सुलझने का श्रेय चंद्रशेखर को मिलेगा, फिर राजनीति के लिए मुद्दा क्या बचेगा? चंद्रशेखर को श्रेय मिलना, कुछ ताकतवर लोगों को स्वीकार नहीं था।

शरद पवार रोज ही कांग्रेस आलाकमान को इस प्रगति की सूचना देते थे, तो भैरोंसिंह शेखावत भाजपा को। न कांग्रेस इसका हल चाहती थी और न भाजपा।

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