Lok Sabha Election / रायबरेली-अमेठी सीट से गांधी परिवार दूरी बनाने का खतरा क्यों उठा रहा?

Zoom News : Mar 19, 2024, 12:40 PM
Lok Sabha Election: राहुल गांधी की वायनाड से उम्मीदवारी की घोषणा हो चुकी है. दूसरी ओर तमाम कांग्रेसियों की मांग और मनुहार के बाद भी परिवार की समझी जाने वाली सीटों रायबरेली और अमेठी को लेकर प्रियंका- राहुल की उदासीनता का मतलब लड़ने से इंकार समझा जा रहा है. अमेठी से मोहभंग का कारण 2019 की शिकस्त माना जा सकता है लेकिन रायबरेली की जीती सीट से सोनिया गांधी अगर उम्र और सेहत के चलते पिछड़ीं तो विरासत संभालने के लिए अगली पीढ़ी आगे आने में क्यों हिचक रही है ?

2024 के लोकसभा चुनाव के नजरिए से कांग्रेस के लिए रायबरेली सीट का महत्व सिर्फ इस कारण नहीं है कि गांधी परिवार का उससे पीढ़ियों का नाता है. बड़ी वजह यह भी है कि 2019 की मोदी लहर में भी उत्तर प्रदेश की अस्सी में इस इकलौती सीट ने लोकसभा में प्रदेश से कांग्रेस की उपस्थिति बरकरार रखी. बेशक जीत की निर्णायक वजह इलाके पर गांधी परिवार की पकड़ मानी जा सकती है. लेकिन उस हालत में जबकि उत्तर प्रदेश में स्थितियां कांग्रेस के लिए बहुत अनुकूल नजर नहीं आ रही हैं, गांधी परिवार अपने परंपरागत प्रभाव वाली रायबरेली और अमेठी सीट से दूरी बनाने का बड़ा खतरा क्यों उठा रही है ?

जीत के बाद भी सोनिया रायबरेली से क्यों रहीं दूर ?

सोनिया गांधी हाल में राज्यसभा के लिए चुनी गई हैं. लेकिन रायबरेली में 2019 की जीत के बाद से ही उनकी उपस्थिति नगण्य रही. वे आखिरी बार कब रायबरेली आईं , इसे लेकर सवाल होते हैं. बड़ी वजह उनकी खराब सेहत बताई जाती है. लेकिन क्या यही इकलौता कारण रहा है ? खराब सेहत के बाद भी वे पार्टी के अनेक कार्यक्रमों में हिस्सा लेती रही हैं. तो क्या इस बीच उस रायबरेली के लिए बिलकुल भी समय निकालना मुमकिन नहीं था , जो उन्हें 2004 से लगातार संसद के लिए चुनती रही है. अमेठी से राहुल गांधी की उदासीनता का कारण 2019 की हार मानी जाती है. लेकिन सोनिया गांधी तो इस चुनाव में जीती थीं. क्या इस जीत के साथ ही उन्होंने अगला लोकसभा चुनाव न लड़ने का फैसला कर लिया था ?

चुनाव दर चुनाव घटते गए वोट

हालांकि इस सवाल के अब कोई मायने नहीं हैं कि सोनिया चुनाव लड़तीं तो नतीजे क्या होते? लेकिन रायबरेली के पिछले चार लोकसभा चुनाव के नतीजे ये संकेत जरूर देते हैं कि उनका वोट प्रतिशत लगातार कम होता गया. 2004 में उन्हें 80.49 प्रतिशत वोट मिले, जो 2009 में 72.23, 2014 में 63.80 और 2019 में 55 प्रतिशत रह गए. 2019 में लोकसभा सीट जीतने के बावजूद 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में, कांग्रेस रायबरेली के सभी 5 विधानसभा क्षेत्रों में हार गई. इनमें किसी भी सीट पर पार्टी मुख्य मुकाबले में भी नहीं आ सकी. चार क्षेत्रों में उसके उम्मीदवार तीसरे और एक में चौथे स्थान पर रहे. सभी सीटों पर कांग्रेस का वोटों में हिस्सा 13.2% रहा जबकि सपा को 37.6% और भाजपा के वोट 29.8% थे. इस चुनाव में सपा को चार और भाजपा को एक सीट पर जीत हासिल हुई थी.

रायबरेली अभी भी गांधी परिवार के मोहपाश में !

क्या रायबरेली में लोकसभा चुनाव में घटते वोट और विधानसभा चुनाव की करारी हार रायबरेली से गांधी परिवार के मोहभंग की वजह हो सकती है? लम्बे समय से रायबरेली की राजनीति और चुनावों को कवर कर रहे वरिष्ठ पत्रकार गौरव अवस्थी का कहना है कि कांग्रेस पार्टी की ओर से रायबरेली की उम्मीदवारी को लेकर कोई घोषणा नहीं हुई है, इसलिए परिवार के किसी सदस्य के चुनाव न लड़ने की बात कहना जल्दबाजी होगी. अवस्थी के अनुसार, ” रायबरेली अभी भी गांधी परिवार के मोहपाश में है. उसकी पहचान इस परिवार से जुड़ी है और यह भावना यहां के लोगों में आज भी प्रबल है. जहां तक 2022 के विधानसभा चुनाव के खिलाफ नतीजों की बात है तो पहले भी विधानसभा चुनावों में कांग्रेस हारी है लेकिन लोकसभा चुनाव में वोटरों ने गांधी परिवार पर ही भरोसा जाहिर किया है. विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग मुद्दों पर लड़े जाते हैं. इसलिए एक का नतीजा दूसरे के लिए नजीर बनना जरूरी नहीं है. ”

प्रियंका -राहुल क्यों असमंजस में ?

प्रियंका गांधी 1999 में पहली बार अमेठी में अपनी मां सोनिया गांधी और रायबरेली में पिता राजीव गांधी के मिटे कैप्टन सतीश शर्मा के प्रचार में सक्रिय हुईं थीं. सोनिया ने 2004 में अमेठी सीट राहुल गांधी के लिए छोड़ रायबरेली का रुख किया था. प्रियंका तभी से रायबरेली का चुनाव प्रबंधन देखती रहीं. पहले उनकी भूमिका परिवार की सीटों अमेठी और रायबरेली तक सीमित थी. 2019 से वे औपचारिक तौर पर राजनीति में सक्रिय हैं. सोनिया गांधी प्रत्यक्ष चुनावों से संन्यास ले चुकी हैं. परिवार की परंपरागत रायबरेली सीट खाली है. क्षेत्र की पांच में चार विधानसभा सीटों पर काबिज समाजवादी पार्टी से कांग्रेस का गठबंधन है, फिर प्रियंका या राहुल के रायबरेली के चुनावी रण में उतरने में असमंजस की क्या वजह हो सकती है ?

भाजपा की तैयारी; सपा के बागी भी साथ

बेशक रायबरेली को गांधी परिवार ने बड़ी राजनीतिक पहचान दी है. इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि उत्तर प्रदेश के जिन गिने-चुने इलाकों में कांग्रेस की मौजूदगी कायम है, उसमें रायबरेली और अमेठी का खास मुकाम है. लेकिन इन दोनों ही इलाकों में भाजपा लम्बे समय से अपनी जमीन मजबूत करने में जुटी है. अमेठी में उसने 2014 में कड़ी चुनौती पेश की और 2019 में जीत में बदल दिया. रायबरेली में भले 2019 में भाजपा हारी, लेकिन 2014 की तुलना में सोनिया की बढ़त कम करके खतरे की घंटी बजा दी. 2014 में राहुल के मुकाबले हारने के बाद भी स्मृति ईरानी केंद्र में मंत्री बनाई गईं. 2019 में रायबरेली में सोनिया को असफल चुनौती देने वाले दिनेश प्रताप सिंह को योगी मंत्रिमंडल में स्थान देकर वोटरों को संदेश दिया गया कि जिले के विकास को लेकर भाजपा सजग – सचेत है.

हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली भाजपा अपनी केंद्र -प्रांत सरकारों के जरिए बताने का कोई मौका नहीं छोड़ती कि लंबे जुड़ाव के बाद भी गांधी परिवार अमेठी -रायबरेली में अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहा है. सरकार और संगठन के मोर्चे पर भाजपा की दोहरी सक्रियता ने विपक्षी खेमे को विचलित किया है. लम्बे समय से प्रदेश -केंद्र की सत्ता से दूरी और गांधी परिवार द्वारा अपने स्थानीय नेताओं -कार्यकर्ताओं की सुध लेने में बरती गई सुस्ती के चलते संगठन कमजोर हुआ है और कैडर का मनोबल टूटा है. हाल के राज्यसभा चुनाव के मौके पर ऊंचाहार ( रायबरेली) के विधायक मनोज पांडे , गौरीगंज (अमेठी) के विधायक राकेश प्रताप सिंह से क्रास वोटिंग और अमेठी की विधायक महाराजी प्रजापति को मतदान में अनुपस्थित कराके भाजपा ने सपा खेमे में सेंधमारी की और गठबंधन सहयोगी कांग्रेस की भी चिंता बढ़ा दी है. भाजपा की इस कवायद का एक बड़ा मकसद गांधी परिवार को संदेश देना था कि सिर्फ भाजपा ही नहीं उसकी सहयोगी सपा के बागी भी रायबरेली और अमेठी में उनका रास्ता रोकने को कमर कसे हुए हैं.

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