राजस्थान का सियासी घटनाक्रम तेजी से बदल रहा / राजस्थान में उल्टा पड़ा बीएसपी का दांव, माया मिली न राम

AajTak : Jul 28, 2020, 09:40 AM
राजस्थान का सियासी घटनाक्रम तेजी से बदल रहा है। अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच चल रहे शह-मात के खेल में बसपा ने एंट्री करते हुए कांग्रेस के खिलाफ दांव चला। बसपा ने पिछले साल कांग्रेस में शामिल होने के लिए पार्टी छोड़ने वाले छह विधायकों को विधानसभा में गहलोत सरकार के खिलाफ मतदान करने के लिए व्हिप जारी किया, लेकिन यह दांव मायावती के लिए ही उल्टा पड़ गया है।

राजस्थान में बसपा विधायकों के कांग्रेस में विलय को चुनौती देने वाली याचिका हाई कोर्ट से खारिज हो गई है। ऐसे में सियासी तौर पर बसपा को राजस्थान के संग्राम में कांग्रेस के खिलाफ खड़े होने का किसी तरह का कोई राजनीतिक फायदा तो नहीं मिला बल्कि बीजेपी के सहायक होने का आरोप जरूर लगने लगा है। कांग्रेस नेताओं ने मायावती को बीजेपी की बी टीम तक बता डाला। इस तरह से बसपा को न माया मिली और न राम

वरिष्ठ पत्रकार शकील अख्तर कहते हैं कि राजस्थान में विधानसभा सत्र चल ही नहीं रहा है तो बसपा के व्हिप का कोई मतलब नहीं रह जाता है। बसपा के राष्ट्रीय पार्टी होने का संबंध राजस्थान के विधानमंडल की संख्या से नहीं है। ऐसे में बसपा का यह बयान सिर्फ बीजेपी को राजनीतिक संदेश देने के लिए दिया गया है कि राजस्थान की लड़ाई में हम आपके साथ खड़े हैं। मायावती की अपनी कुछ राजनीतिक मजबूरियां हैं, जिसकी वजह से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से वो कहीं न कहीं अपने आपको कांग्रेस के खिलाफ और बीजेपी के साथ खड़ी दिखाना चाहती हैं। इससे बसपा को राजनीतिक तौर पर कोई फायदा नहीं बल्कि नुकसान ही हो रहा है।

तकनीती तौर पर बसपा का सही कदम

ऑल इंडिया अंबेडकर महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अशोक भारती कहते हैं कि राजस्थान के सियासी घटनाक्रम में बसपा का स्टैंड तकनीकी रूप से सही हो सकता है, लेकिन राजनीतिक और सामाजिक रूप से इसका संदेश सही नहीं गया है। हालांकि, राजस्थान में कांग्रेस ने मायावती के विधायकों को तोड़कर अपने साथ मिला लिया है। ऐसे में मायावती उनके साथ दोस्त की तरह पेश नहीं आएंगी। एक राजनीतिक दल के रूप में बसपा का स्टैंड सही है, लेकिन आज देश में जरूरत लोकतंत्र और संविधान को बचाने की है। ऐसे में बसपा को समझना चाहिए कि लोकतंत्र को बचाने के लिए कौन लड़ रहा है और कौन नहीं।

अशोक भारती कहते हैं कि इस बात को समझना चाहिए कांशीराम वाली बसपा अब नहीं रह गई है बल्कि मायावती की बसपा बन चुकी है। कांशीराम राजनीतिक कदम उठाने से पहले विचार-विमर्श करते थे और उसका क्या फर्क पड़ेगा, इस बात को लेकर मंथन करते थे। इसके बाद ही कोई फैसला लेते थे, लेकिन अब बसपा में यह कल्चर नहीं है। मायावती को यह पूरी तरह विश्वास है कि उसका वोटर किसी भी सूरत में उनसे दूर नहीं जाने वाला है। बसपा के स्टैंड का क्या राजनीतिक संदेश जा रहा है इसका मायावती को कई फर्क नहीं पड़ता है।


बीजेपी के समर्थन के पीछे मायावती का डर?


वहीं, दलित चिंतक और जेएनयू में राजनीतिक अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर हरीश वानखेड़े कहते हैं मायावती को लेकर एक आम धारणा है कि सरकार के पास उनके कुछ पुराने ऐसे मामले हैं, जिनके सामने आने से वो जेल जा सकती हैं। इसी वजह से मायावती बीजेपी के खिलाफ न तो कोई बयान देती हैं और न ही कोई राजनीतिक कदम उठाती हैं बल्कि विपक्ष को कमजोर करने की दिशा में काम करती दिखती हैं। दलित समाज के बीच भी यह चिंता का सबब बना हुआ है कि कभी आक्रामक राजनीति करने वालीं मायावती आज इतनी असहाय और डरी हुई क्यों दिख रही हैं।


बसपा-कांग्रेस का एक ही वोटबैंक

हरीश वानखेड़े कहते हैं कि दूसरी सबसे अहम बात यह है कि मायावती ने बहुत पहले ही तय कर लिया है कि कांग्रेस के साथ उन्हें नहीं जाना है। कांशीराम के दौर में बसपा ने कांग्रेस से गठबंधन किया था, उसके बाद से किसी तरह का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर कोई रिश्ता नहीं रखा। इसकी वजह यह है कि बसपा का जो दलित, मुस्लिम, ब्राह्मण वोटबैंक है यह कभी कांग्रेस का हुआ करता था। मायावती को डर है कि वो कांग्रेस के साथ जाती हैं या फिर समर्थन में खड़ी होती हैं तो उनका परंपरागत वोटर छिटक जाएगा। इसीलिए वे कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहती हैं, क्योंकि कांग्रेस की नजर दलित और मुस्लिम वोटों पर है। ऐसे में बसपा का पहला संघर्ष बीजेपी से नहीं कांग्रेस से है। यही वजह है कि मायावती किसी मुद्दे पर कांग्रेस की तरफदारी कर यूपी में कांग्रेस को जगह नहीं देना चाहती हैं

वह कहते हैं कि मायावती के चलते ही बसपा का लगातार राजनीतिक ग्राफ गिरता जा रहा है। एक दौर में 28 फीसदी से ज्यादा वोट हो गया था, लेकिन आज 19 फीसदी के करीब आ गया है। इसके बावजूद मायावती न तो दलित मुद्दों पर सक्रिय हो रही हैं और न ही जमीन पर उतर कर संघर्ष कर रही है। ऐसे ही मायावती का रवैया रहा तो बसपा का भी हश्र आरपीआई की तरह हो जाएगा, क्योंकि जिस उद्देश्य और विचार के लिए पार्टी बनी है उन्हीं मुद्दों को तवज्जो नहीं दे रही है तो फिर क्या मतलब रह जाता है।


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