India Pak War 1948 / मरुधरा के लाल ने कश्मीर बचाने के लिए खट्टे कर दिए थे पाकिस्तान के दांत

Zoom News : Jul 18, 2020, 01:05 PM
Jhunjhunu | आज परमवीर पीरूसिंह शेखावत का बलिदान दिवस है। ये वही पीरूसिंह शेखावत है, जिन्होंने कश्मीर की रक्षा के लिए लड़ते हुए भारतीय सेना में सर्वोच्च शहादत दी और पाकिस्तान से दांत खट्टे कर दिए। अपनी प्लाटून के आधे से अधिक साथियों के शहीद हो जाने पर भी पीरूसिंह ने हिम्मत नहीं हारी। राजस्थान के झुंझुनूं की धरती के बेरी गांव के शहीद पीरूसिंह आज भी लाखों युवाओं के आदर्श है और इस जिले के लोग फौज में जाने को अपना पहला धर्म मानते हैं। यही नहीं शहादत की वह परम्परा आज तक बदस्तूर कायम है।

हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत, जिन्हेंं युद्ध में अदम्य बहादुरी के लिए भारत सरकार ने मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया था। मौजूदा हालात में परमवीर पीरूसिंह जैसे सैनिको की वीरता की कहानियां सीमा पर डटे हमारे सैनिकों में एक नए जोश का संचार करती है। उन्हें भारत माता की सीमा की रक्षा करते हुए मर मिटने की प्रेरणा देती है।

रणबाकुरों की धरती का झुंझुनू जिला राजस्थान में ही नहीं अपितु पूरे देश में वीरता के क्षेत्र में अपना अलग ही स्थान रखता है। पूरे देश में सर्वाधिक सैनिक देने वाले इस जिले की मिट्टी के कण-कण से वीरता टपकती है। देश के खातिर स्वयं को उत्सर्ग कर देने की परम्परा यहां सदियों पुरानी है। 1947-48 में पाक समर्थित कबालियों से युद्ध में हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत ने। जब उन्होंंने देश हित में स्वयं को कुर्बान कर देश की आजादी की रक्षा की थी। राजस्थान में झुंझुनू जिले के बेरी गांव में 20 मई 1918 को ठाकुर लालसिंह शेखावत के घर जन्मे पीरूसिंह चार भाईयों में सबसे छोटे थे।

पीरूसिंह राजपूताना राईफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी में हवलदार मेजर थे। 1947 के भारत- पाक विभाजन के बाद जब कश्मीर पर कबालियों ने हमला कर हमारी मातृभूमि का कुछ हिस्सा दबा बैठे तो कश्मीर नरेश ने अपनी रियासत को भारत में विलय की घोषणा कर दी।

इस पर भारत सरकर ने अपनी भूमि की रक्षार्थ वहां सेना भेजी। इसी सिलसिले में राजपूताना राईफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी को भी टिथवाला के दक्षिण में तैनात किया गया था। 5 नवम्बर 1947 को भयंकर सर्दी के मौसम में यह बटालियन हवाई जहाज से वहां पहुंची। श्रीनगर की रक्षा करने के बाद उरी सेक्टर से पाक कबायली हमलावरों को खदेड़ने में इस बटालियन ने बड़ा साहसी कार्य किया था।

मई 1948 में छठी राजपूत बटालियन ने उरी और टिथवाल क्षेत्र में झेलम नदी के दक्षिण में पीरखण्डी और लेडीगली जैसी प्रमुख पहाडियों पर कब्जा करने में विशेष योगदान दिया। इन सभी कार्यवाहियों के दौरान पीरूसिंह ने अद्भुत नेतृत्त्व और साहस का परिचय दिया।

जुलाई 1948 के दूसरे सप्ताह में जब दुश्मन का दबाव टिथवाल क्षेत्र में बढ़़ने लगा तो छठी बटालियन को उरी क्षेत्र से टिथवाल क्षेत्र में भेजा गया। टिथवाल क्षेत्र की सुरक्षा का मुख्य केन्द्र दक्षिण में 9 किलोमीटर पर रिछमार गली था। जहां की सुरक्षा को निरन्तर खतरा बढ़ता जा रहा था।

अतः टिथवाल पहुंचते ही राजपूताना राईफल्स को दारापाड़ी पहाड़ी की बन्नेवाल दारारिज पर से दुश्मन को हटाने का आदेश दिया गया था। यह स्थान पूर्णतः सुरक्षित था और ऊंची-ऊंची चट्टानों के कारण यहां तक पहुंचना कठिन था। जगह तंग होने से काफी कम संख्या में जवानों को यह कार्य सौंपा गया। 

18 जुलाई को छठी राज राईफल्स ने सुबह हमला किया जिसका नेतृत्त्व हवलदार मेजर पीरूसिंह कर रहे थे। पीरूसिंह की प्लाटून आगे बढ़ती गई। उस पर दुश्मन की दोनों तरफ  से लगातार गोलियां बरस रही थी। अपनी प्लाटून के आधे से अधिक साथियों के मारे जाने पर भी पीरूसिंह ने हिम्मत नहीं हारी।

वे लगातार अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे एवं स्वयं अपने प्राणों की परवाह न कर आगे बढ़ते रहे। वे अन्त में उस स्थान पर पहुंच गए जहां मशीन गन से गोले बरसाए जा रहे थे। उन्होंने अपनी स्टेनगन से दुश्मन के सभी सैनिकों को भून दिया जिससे दुश्मन के गोले बरसने बन्द हो गए।

जब पीरूसिंह को यह अहसास हुआ कि उनके सभी साथी मारे गए तो वे अकेले ही आगे बढ़ चले। रक्त से लहू-लुहान पीरूसिंह अपने हथगोलों से दुश्मन का सफाया कर रहे थे। इतने में दुश्मन की एक गोली आकर उनके माथे पर लगी और गिरते- गिरते भी उन्होंने दुश्मन की दो खंदके नष्ट कर दी।

अपनी जान पर खेलकर पीरूसिंह ने जिस अपूर्व वीरता एवं कर्तव्य परायणता का परिचय दिया था। वह भारतीय सेना के इतिहास में शौर्य का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। देश हित में पीरूसिंह ने अपनी विलक्षण वीरता का प्रदर्शन करते हुए अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का उदाहरण प्रस्तुत किया।

इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामो में से एक माना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने उस समय उनकी माता श्रीमती तारावती को लिखे पत्र में लिखा था कि देश कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह का मातृभूमि की सेवा में किए गए उनके बलिदान के प्रति कृतज्ञ है।

पीरूसिंह को इस वीरता पूर्ण कार्य पर भारत सरकार ने मरणोपरान्त ’’परमवीर चक्र’’ प्रदान कर उनकी बहादुर का सम्मान किया। अविवाहित पीरूसिंह की ओर से यह सम्मान उनकी मां ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से हाथों ग्रहण किया। परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले हवलदार मेजर पीरूसिंह राजस्थान के पहले व भारत के दूसरे परमवीर चक्र विजेता सैनिक थे।

स्कूल से थी नफरत

युवावस्था में सिंह हमेशा स्कूल से नफरत करते थे क्योंकि वह प्रतिबंधित पर्यावरण पसंद नहीं करते थे। एक बार सहपाठी से झगड़ा करने पर शिक्षक द्वारा डांटे जाने पर वह स्कूल से भाग गए और कभी स्कूल नहीं आए। उसके बाद श्री सिंह ने अपने माता-पिता के साथ अपने खेत में मदद करना शुरू कर दिया। शिकर, एक स्थानीय भारतीय खेल उनका पसंदीदा खेल था। यद्यपि सिंह अपने बचपन से सेना में शामिल होना चाहते थे, लेकिन वह अठारह वर्ष की आयु पूर्ण नहीं होने के कारण दो बार निकाल दिए गए तथा बाद में सेना में शामिल हुए।

शेखावत को 20 मई 1936 को झेलम में 1 पंजाब रेजिमेंट की 10वीं बटालियन में नामांकित किया गया था। प्रशिक्षण पूरा होने के बाद 1 मई 1937 को सिंह को उसी रेजिमेंट की 5वीं बटालियन में तैनात किया गया। स्कूली शिक्षा से पहले से ही शत्रुता होने के बावजूद सिंह ने शिक्षा को गंभीरता से लिया और सेना में शिक्षा प्रमाण पत्र को प्राप्त किया। कुछ अन्य परीक्षाओं को उत्तीर्ण करने के बाद 7 अगस्त 1940 को उन्हें लांस नायक के पद पर पदोन्नत किया गया था। 1 पंजाब की 5वीं बटालियन के साथ अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने उत्तर-पश्चिम फ्रंटियर पर कार्रवाई की। मार्च 1941 में उन्हें नायक में पदोन्नत किया गया था और सितंबर में झेलम में पंजाब रेजिमेंटल सेंटर के एक प्रशिक्षक के रूप में तैनात किया गया तथा फरवरी 1942 में उन्हें हवलदार में पदोन्नत किया गया था। सिंह एक उत्कृष्ट खिलाड़ी थे, उन्होंने अंतर रेजिमेंटल और राष्ट्रीय स्तर की चैंपियनशिप में हॉकी, बास्केटबॉल और क्रॉस कंट्री दौड़ में अपनी रेजिमेंट का प्रतिनिधित्व किया। मई 1945 में उन्हें कंपनी हवलदार मेजर से पदोन्नत किया गया। उन्होंने अक्टूबर 1945 तक एक प्रशिक्षक के रूप में कार्य किया। द्वितीय विश्व युद्ध के अंत के बाद उन्हें ब्रिटिश कॉमनवेल्थ ऑक्यूपेशन फ़ोर्स के हिस्से के रूप में जापान भेजा गया जहां उन्होंने सितंबर 1947 तक सेवा की। इसके बाद उन्हें राजपूताना राइफल्स की छठी बटालियन में स्थानांतरित कर दिया गया था।

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