फील्ड मार्शल सैम मानेक शॉ / एक हजार रुपए के उधार के बदले पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने अपना आधा देश दे दिया!

Zoom News : Jul 01, 2020, 02:59 PM
Special Desk | एक हजार का उधार चुकाने के लिए पाकिस्तान के राष्ट्रपति (Pakistan President Genral yahya Khan 1971) ने अपना आधा देश दे दिया। यह कहना था भारत की सेना के अध्यक्ष फील्ड मार्शल जनरल सैम मानेकशॉ (Field Marshal Sam Bahadur Manekshaw) का पाकिस्तानी जनरल याहया खां के लिए। बात परिहास में कही गई, लेकिन सच भी थी। जब भारत 1971 की लड़ाई (India Pakistan War 1971) जीता तब याहया खान पाकिस्तान सेना के प्रमुख और पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे।


जब 1947 से पहले याहया और सैम दोनों ही ब्रिटिश इंडियन आर्मी में अफसर थे। आजादी और विभाजन के बाद याहया ने पाकिस्तान जाना स्वीकारा। याहया को सैम की बाइक पसंद थी तो उनके मांगने सैम ने उन्हें बाइक एक हजार रुपए में बेच दी। याहया ने पाकिस्तान जाकर मनीआर्डर भेजने की बात कही। 24 साल तक सैम के पास मनीआर्डर नहीं आया। बहुत सालों बाद जब पाकितान और भारत में युद्ध हुआ तो मानेकशॉ और यहया ख़ां अपने अपने देशों के सेनाध्यक्ष थे। लड़ाई जीतने के बाद सैम ने मज़ाक किया, "मैंने याहया ख़ां के चेक का 24 सालों तक इंतज़ार किया लेकिन वह कभी नहीं आया। आखिर उन्होंने 1947 में लिया गया उधार अपना आधा देश देकर चुकाया।" भारत- पाकिस्तान के बीच जब 1971 की लड़ाई शुरू होने वाली थी। तब उस वक्त की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल मानेकशॉ से पूछा कि क्या लड़ाई के लिए तैयारियां पूरी हैं? इस पर मानेकशॉ ने तपाक से कहा- “आई ऍम ऑलवेज रेडी Sweety.“  इंदिरा गांधी को Sweety कहने का हुनर मानेकशॉ के पास ही था। यही नहीं एक पत्रकार ने उनसे पूछा कि यदि आप विभाजन के बाद पाकिस्तान चले जाते और वहां के आर्मी चीफ होते तो क्या होता। सैम बहादुर तत्काल बोले होता क्या? 1971 की लड़ाई पाकिस्तान जीत जाता!!


ऐसे थे भारत के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ! उनके अलावा दुनिया में शायद ही ऐसा व्यक्ति कोई हुआ हो जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को कभी मैडम नहीं कहा। वह मीटिंग में प्राइम मिनीस्टर तो कभी स्वीटी का सम्बोधन देते थे। भारत के सबसे सफल थल सेनाध्यक्ष रहे मानेकशॉ जिन्होंने 1971 में बांग्लादेश बनाने में आधारभूत भूमिका निभाई, वे निजी जिंदगी में बहुत ही मजाकिया और व्यावहारिक इंसान थे। वे भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर देशों के बड़े राजनेताओं और अफसरों से भी मजाक करने से नहीं चूकते थे। यही नहीं युद्ध के मैदान में घायल बुरी तरह सैम भी अपनी परिहास की अदा नहीं भूले, पेट में सात गोलियां लगी थी, पूछा क्या हुआ तो बोले गधे ने लात मार दी। विक्की कौशल के अभिनय वाली उन पर एक फिल्म भी आने वाली है। हम आपको बताते हैं सैम की जिंदगी से जुड़े कुछ रोचक किस्से।

गोरखों ने दिया सैम बहादुर का नाम


1969 को उन्हे सेनाध्यक्ष बनाया गया था। और 1973 मे उन्हे फील्ड मार्शल का खिताब दिया गया। उनका पूरा नाम सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ था लेकिन शायद ही कभी उनके इस नाम से पुकारा गया। भारत की आजादी के बाद गोरखों की कमान संभालने वाले वे पहले भारतीय अधिकारी थे। गोरखों ने ही उन्हें सैम बहादुर के नाम से सबसे पहले पुकारना शुरू किया था। जब उन्हें पता चला कि अधिकांश गोरखों का नाम बहादुर था। जब एक गोरखे से पूछा मेरा नाम क्या है तो वह बोला सैम बहादुर! फिर क्या था सैम होरमूज़जी फ़्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ आगे सैम बहादुर नाम से पुकारे गए। गोरखों के​ ​िलए वो कहते थे कि अगर कोई सिपाही कहता है कि वो मौत से नहीं डरता, तो या तो वो झूठ बोल रहा है, या फिर वो गोरखा है। ऐसी ही कुछ और भी बातें थीं उनकी। वही सब बताते हैं आपको।

स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनना चाहते थे, आर्मी में चले


मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 को अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनका परिवार गुजरात के शहर वलसाड से पंजाब आ गया था। मानेकशॉ ने प्रारंभिक शिक्षा अमृतसर में पाई, बाद में वे नैनीताल के शेरवुड कॉलेज में दाखिल हो गए। वे देहरादून के इंडियन मिलिट्री एकेडमी के 1932 में बने पहले बैच के लिए चुने गए 40 छात्रों में से एक थे। वहां से वे कमीशन प्राप्ति के बाद 1934 में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में भर्ती हुए। पहले उन्होंने पंजाब और नैनीताल स्थित शेरवुड कॉलेज से शिक्षा ग्रहण की और कैंब्रिज बोर्ड के स्कूल सर्टिफिकेट परीक्षा में डिस्टिंक्शन हासिल किया। 15 साल की उम्र में उन्होंने अपने पिता से लन्दन भेजने का आग्रह किया जहाँ जाकर वे स्त्रीरोग विशेषज्ञ बनना चाहते थे पर पिता जी ने यह कहकर मना कर दिया कि अभी वे छोटे हैं और लन्दन जाने के लिए कुछ और समय इन्तजार करें। इसके उपरान्त मानेकशॉ ने तैश में आकर देहरादून स्थित इंडियन मिलिटरी अकैडमी (आई.एम.ए.) के प्रवेश परीक्षा में बैठने का फैसला किया और सफल भी हो गए। इसके पश्चात 

सिल्लो से मिले और शादी कर ली, ऐसी थी फैमिली लाइफ


1937 में एक सार्वजनिक समारोह के लिए लाहौर गए सैम की मुलाकात सिल्लो बोडे से हुई। दो साल की यह दोस्ती 22 अप्रैल 1939 को विवाह में बदल गई। उनकी बेटी माया दारूवाला का कहना था कि "लोग सोचते हैं कि सैम बहुत बड़े जनरल हैं, उन्होंने कई लड़ाइयां लड़ी हैं, उनकी बड़ी-बड़ी मूंछें हैं तो घर में भी उतना ही रौब जमाते होंगे। लेकिन वह बहुत खिलंदड़ थे, बच्चे की तरह। हमारे साथ शरारत करते थे। हमें बहुत परेशान करते थे। कई बार तो हमें कहना पड़ता था कि डैड स्टॉप इट। जब वो कमरे में घुसते थे तो हमें यह सोचना पड़ता था कि अब यह क्या करने जा रहे हैं।"

अर्दली ने बचाई सैम की जिंदगी



17वी इंफेंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्व युद्ध में जंग का स्वाद चखा, 4—12 फ्रंटियर फोर्स रेजिमेंट के कैप्टन के तौर पर बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए वे गम्भीर रूप से घायल हो गए थे। स्वस्थ होने पर मानेकशॉ पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुँचे, यहाँ वे भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए। एक जापानी सैनिक ने अपनी मशीनगन की सात गोलियां उनकी आंतों, जिगर और गुर्दों में उतार दीं। उनकी जीवनी लिखने वाले मेजर जनरल वीके सिंह के अनुसार "उनके कमांडर मेजर जनरल कोवान ने उसी समय अपना मिलिट्री क्रॉस उतार कर कर उनके सीने पर इसलिए लगा दिया क्योंकि मृत फ़ौजी को मिलिट्री क्रॉस नहीं दिया जाता था।" जब मानेकशॉ घायल हुए थे तो आदेश दिया गया था कि सभी घायलों को उसी अवस्था में छोड़ दिया जाए क्योंकि अगर उन्हें वापस लाया लाया जाता तो पीछे हटती बटालियन की गति धीमी पड़ जाती। लेकिन उनका अर्दली सूबेदार शेर सिंह उन्हें अपने कंधे पर उठा कर पीछे लाया। सैम की हालत इतनी ख़राब थी कि डॉक्टरों ने उन पर अपना समय बरबाद करना उचित नहीं समझा। डॉक्टरों ने मान लिया था कि वे सैम को नहीं बचा पाएंगे। इस पर सूबेदार शेर सिंह ने डॉक्टरों की तरफ़ अपनी भरी हुई राइफ़ल तानते हुए कहा था, "हम अपने अफ़सर को जापानियों से लड़ते हुए अपने कंधे पर उठा कर लाए हैं। हम नहीं चाहेंगे कि वह हमारे सामने इसलिए मर जाएं क्योंकि आपने उनका इलाज नहीं किया। आप उनका इलाज करिए नहीं तो मैं आप पर गोली चला दूंगा।" डॉक्टर ने अनमने मन से उनके शरीर में घुसी गोलियाँ निकालीं और उनकी आंत का क्षतिग्रस्त हिस्सा काट दिया। आश्चर्यजनक रूप से मानेकशॉ। पहले उन्हें मांडले ले जाया गया, फिर रंगून और फिर वापस भारत। साल 1946 में लेफ़्टिनेंट कर्नल सैम मानेकशॉ को सेना मुख्यालय दिल्ली में तैनात किया गया। यहीं पर उनकी दोस्ती बाद में पाकिस्तान के सेना अध्यक्ष रहे याहया खां से हुई थी।

पूछा तो बोले एक गधे ने चोट मार दी

जब उन्हें गम्भीर अवस्था में रंगून के सैनिक अस्पताल में लाया गया, जब एक सर्जन ने उनका ऑपरेशन करने से पहले उनसे पूछा "what happen to you" तो उन्होने हँसते हुए कहा "I was kicked by a bloody mule!" उनकी दिलेरी से प्रभावित हो सर्जनने कहा "Given your sense of humour, it will be worth saving you!

उनके अद्वितीय काम याद किए जाते हैं


द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ आफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चाइना भेजा गया जहां उन्होंने लगभग 10000 युद्ध बंदियों के पुनर्वास में योगदान दिया। 1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री आपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे, भारत के विभाजन के बाद 1947-48 की भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947 की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1948 में कश्मीर के महाराज हरिसिंह से भारत में विलय के लिए गए मेनन के नेतृत्व वाले दल में मानेकशॉ भी शामिल थे। तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सैम को नागालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया। 7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमारमंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया, उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया, दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई, सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई तथा बांग्लादेश का निर्माण हुआ, उनके देशप्रेम व देश के प्रति निस्वार्थ सेवा के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण तथा 1 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से अलंकृत किया गया। चार दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए।

काम करने का खास अंदाज


1962 में चीन से युद्ध हारने के बाद सैम को बिजी कौल के स्थान पर चौथी कोर की कमान दी गई। पद संभालते ही सैम ने सीमा पर तैनात सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा था, "आज के बाद आप में से कोई भी जब तक पीछे नहीं हटेगा, जब तक आपको इसके लिए लिखित आदेश नहीं मिलते। ध्यान रखिए यह आदेश आपको कभी भी नहीं दिया जाएगा।" 1962 में जब मिजोरम की एक बटालियन ने भारत- चाइना की लड़ाई से दूर रहने की कोशिश की तो मानेकशॉ ने उस बटालियन को पार्सल में चूड़ी के डिब्बे के साथ एक नोट भेजा. जिस पर लिखा था कि अगर लड़ाई से पीछे हट रहे हो तो अपने आदमियों को ये पहनने को बोल दो. फिर उस बटालियन ने लड़ाई में हिस्सा लिया और काफी अच्छा काम कर दिखाया. अब मानेकशॉ ने फिर से एक नोट भेजा जिसमें चूड़ियों के डिब्बे को वापस भेज देने की बात की गई थी।

रक्षा सचिव को बुरी तरह लताड़ा



हालांकि अपने अनूठे और खिलंदड़ अंदाज की वजह से सैम हमेशा लोगों के दिलों में राज करते, लेकिन अनुशासन—सैनिक नेतृत्व और नौकरशाही के बीच संबंधों की बात आती तो सैम समझौता नहीं करते। सैम अपनी टीम के कुशल नायक थे। सेना मुख्यालय में एक बार बैठक के दौरान रक्षा सचिव हरीश सरीन ने वहां बैठे एक कर्नल से कहा, यू देयर, ओपन द विंडो। वह कर्नल उठने लगा। तभी सैम बहादुर का कमरे में प्रवेश होता है। रक्षा सचिव की तरफ मुड़ते हुए मानेकशॉ बोले, यह अफ़सर फौज का कर्नल है। यू देयर नहीं। "सचिव महोदय, आइंदा से आप मेरे किसी अफ़सर से इस टोन में बात नहीं करेंगे। हरीश सरीन उस जमाने के तगड़े आईएएस बताए जाते हैं, लेकिन मानेकशॉ का तेवर देखकर खिसिया गए और उन्हें माफी मांगनी पड़ी।

इंदिरा गांधी को कहा आप बाहर रहिए


सैम के एडीसी ब्रिगेडियर बहराम पंताखी की किताब सैम मानेकशॉ- द मैन एंड हिज़ टाइम्स में लिखा जब नेहरू भारत चीन लड़ाई के दौरान हालात देखने सीमा पर आए और ऑपरेशन रूम में बैठक थी। इंदिरा साथ थीं। परन्तु वहां मौजूद सैम ने उन्हें अंदर जाने से रोक दिया। "सैम ने इंदिरा गाँधी से कहा था कि आप ऑपरेशन रूम में नहीं घुस सकतीं क्योंकि आपने गोपनीयता की शपथ नहीं ली है. इंदिरा को तब यह बात बुरी भी लगी थी लेकिन सौभाग्य से इंदिरा गांधी और मानेकशॉ के रिश्ते इसकी वजह से ख़राब नहीं हुए थे।"


यही नहीं बाद में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 'मैडम' कहने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि यह संबोधन 'एक खास वर्ग' के लिए होता है। मानेकशॉ ने कहा कि वह उन्हें प्रधानमंत्री ही कहेंगे। 

इंदिरा के साथ रिश्ते


1971 की लड़ाई में इंदिरा गांधी चाहती थीं कि वह मार्च में ही पाकिस्तान पर चढ़ाई कर दें लेकिन सैम ने ऐसा करने से इनकार कर दिया क्योंकि भारतीय सेना हमले के लिए तैयार नहीं थी। इंदिरा गांधी इससे नाराज़ हो गईं तो मानेकशॉ ने पूछा कि आप युद्ध जीतना चाहती हैं या नहीं. उन्होंने कहा, "हां।" इस पर मानेकशॉ ने कहा, मुझे छह महीने का समय दीजिए। मैं गारंटी देता हूं कि जीत आपकी होगी। जून 1969 में उन्हें भारतीय सेना का प्रमुख नियुक्त किया गया। सेना प्रमुख के रूप में मानेकशॉ ने सेना की मारक क्षमता को और पैना किया और उसे युद्ध की स्थिति से निपटने में निपुण भी। उनकी सैन्य नेतृत्व की परीक्षा शीघ्र ही हुई जब भारत ने पश्चिमी पाकिस्तान के विरुद्ध बांग्लादेश की ‘मुक्ति वाहिनी’ का साथ देने का फैसला किया। दिसम्बर 1971 में भारत ने पाकिस्तान पर धावा बोला और मात्र 15 दिनों में पाकिस्तानी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया और 90000 पाकिस्तानी सैनिक बंदी बनाये गए।


इंदिरा गांधी के साथ उनकी बेतकल्लुफ़ी के कई किस्से मशहूर हैं। मेजर जनरल वीके सिंह कहते हैं, "एक बार इंदिरा गांधी जब विदेश यात्रा से लौटीं तो मानेकशॉ उन्हें रिसीव करने पालम हवाई अड्डे गए। इंदिरा गांधी को देखते ही उन्होंने कहा कि आपका हेयर स्टाइल ज़बरदस्त लग रहा है। इस पर इंदिरा गांधी मुस्कराईं और बोलीं, और किसी ने तो इसे नोटिस ही नहीं किया।" हर योद्घा के साथ कई रोचक किस्से और रोमांचक वाकये जुड़े होते हैं और सैम बहादुर भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। यह किस्सा तो आज भी याद किया जाता है कि कैसे 1971 की लड़ाई के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें पूछा कि ऐसी चर्चा है कि आप मेरा तख़्ता पलटने वाले हैं, सैम ने अपने जिन्दादिल अंदाज में कहा, 'क्या आपको नहीं लगता कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूँ? क्योंकि आप ही की तरह मेरी भी नाक लंबी है।' और फिर सैम ने कहा, 'लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता और सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं और यही अपेक्षा मैं आप से भी रखता हूँ।'

बात नहीं मानी तो कोर्ट आफ इन्क्वायरी


नेतृत्व कुशाग्रता के साथ सैम ने योजना तथा शासन प्रबंधन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1947-48 के जम्मू और कश्मीर अभियान के दौरान भी उन्होंने युद्ध निपुणता का परिचय दिया। एक इन्फेंट्री ब्रिगेड के नेतृत्व के बाद उन्हें म्हो स्थित इन्फेंट्री स्कूल का कमांडेंट बनाया गया और वे 8वें गोरखा राइफल्स और 61वें कैवेलरी के कर्नल भी बन गए। इसके पश्चात उन्हें जम्मू कश्मीर में एक डिवीज़न का कमांडेंट बनाया गया जिसके पश्चात वे डिफेन्स सर्विसेज स्टाफ कॉलेज के कमांडेंट बन गए। इसी दौरान तत्कालीन रक्षामंत्री वी. के. कृष्ण मेनन के साथ उनका मतभेद हुआ जिसके बाद उनके विरुद्ध ‘कोर्ट ऑफ़ इन्क्वारी’ का आदेश दिया गया जिसमें वे दोषमुक्त पाए गए। यही कृष्ण मेनन थे, जिनके कार्यकाल में सेना में खरीद के दौरान कई घोटाले हुए थे।इन सब विवादों के बीच चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और मानेकशॉ को लेफ्टिनेंट जनरल पदोन्नत कर सेना के चौथे कॉर्प्स की कमान सँभालने के लिए तेज़पुर भेज दिया गया। 

खूब खर्राटे लेते थे, उस पर भी मजाक


सैम को खर्राटे लेने की आदत थी। सैम और उनकी पत्नी कभी एक कमरे में नहीं सोते थे, केवल खर्राटों की वजह से। बताया जाता है कि एक बार जब वह रूस गए तो उनके लाइजन ऑफ़िसर जनरल कुप्रियानो उन्हें उनके होटल छोड़ने गए। जब वह विदा लेने लगे तो सैम की पत्नी सीलू ने कहा, "मेरा कमरा कहां है?" रूसी अफ़सर परेशान हो गए। सैम ने स्थिति संभाली, असल में मैं ख़र्राटे लेता हूँ और मेरी बीवी को नींद न आने की बीमारी है। इसलिए हम लोग अलग-अलग कमरों में सोते हैं। सैम यहां भी  यहां भी सैम की मज़ाक करने की आदत नहीं गई। रूसी जनरल के कंधे पर हाथ रखते हुए उनके कान में फुसफुसा कर बोले, "आज तक जितनी भी औरतों को वह जानते हैं, किसी ने उनके ख़र्राटा लेने की शिकायत नहीं की है सिवाए इनके!" रूसी जनरल खिसिया गए।

पाकिस्तानी जनरल को बताई औकात


पाकिस्तान के साथ लड़ाई के बाद सीमा के कुछ इलाकों की अदलाबदली के बारे में बात करने सैम मानेकशॉ पाकिस्तान गए। उस समय जनरल टिक्का पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष हुआ करते थे। पाकिस्तान के कब्ज़े में भारतीय कश्मीर की चौकी थाकोचक थी जिसे छोड़ने के लिए वह तैयार नहीं था। टिक्का ख़ां सैम से आठ साल जूनियर थे और उनकी अंग्रेजी कमजोर थे। वो सूबेदार के पद से शुरुआत करते हुए इस पद पर पहुंचे थे।

उन्होंने पहले से तैयार वक्तव्य पढ़ना शुरू किया, "देयर आर थ्री ऑलटरनेटिव्स टू दिस।"

मानेकशॉ ने उन्हें टोका, "जिस स्टाफ़ ऑफ़िसर की लिखी ब्रीफ़ आप पढ़ रहे हैं उसे अंग्रेज़ी लिखनी नहीं आती है। ऑल्टरनेटिव्स हमेशा दो होते हैं, तीन नहीं। हां संभावनाएं या पॉसिबिलिटीज़ दो से ज़्यादा हो सकती हैं।" सैम की बात सुन कर टिक्का इतने नर्वस हो गए कि हकलाने लगे... और थोड़ी देर में वो थाकोचक को वापस भारत को देने को तैयार हो गए। 

गर्व के अनूठे क्षण खुद तय करते थे


सैम अक्सर कहा करते थे कि लोग सोचते हैं कि जब हम देश को जिताते हैं तो यह बहुत गर्व की बात है लेकिन इसमें कहीं न कहीं उदासी का पुट भी छिपा रहता है क्योंकि लोगों की मौतें भी हुई होती है। सैम के लिए सबसे गर्व की बात यह नहीं थी कि भारत ने उनके नेतृत्व में पाकिस्तान पर जीत दर्ज की। उनके लिए सबसे बड़ा क्षण तब था जब युद्ध बंदी बनाए गए पाकिस्तानी सैनिकों ने स्वीकार किया था कि उनके साथ भारत में बहुत अच्छा व्यवहार किया गया था। पाकिस्तानी सेना के कैप्टन मलिक की बहादुरी से प्रभावित सैम ने सार्वजनिक रूप से उनके साहस की सराहना की थी तथा पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान से उनके लिए पदक तक की सिफारिश कर डाली। 

...और कहते मैं तो शांतिप्रिय आदमी हूं


सैम को आज तक इस बात का मलाल है कि शिमला समझौते के दौरान भारत सरकार ने कश्मीर समस्या सुलझाने का सुनहरा मौका हाथ से जाने दिया। सैम बाद में एकांत की जिंदगी बसर करना चाहते थे। उस समय चलती लड़ाइयों पर जब उनकी राय जानी जाती तो वे कहते कि 'मैं तो शांतिप्रिय आदमी हूँ। इन सब बातों के बारे में कुछ नहीं जानता' लेकिन सभी जानते हैं कि इस रणबांकुरे के पास ऐसी कहानियां थी, जिन्होंने इतिहास रच दिया। उन्हें करीब से जानने वालों का मानना था कि सैम मानेकशॉ हर इंच से एक पक्के आर्मी वाले थे। 

कई राज्यों में रहे मानेकशॉ


सैम मानेकशॉ का जन्म 3 अप्रैल 1914 में पंजाब के अमृतसर में एक पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम होर्मूसजी मानेकशॉ और माता का नाम हीराबाई था। उनके पिता एक डॉक्टर थे और गुजरात के वलसाड़ शहर से पंजाब आकर बस गए थे। वे 1 अक्टूबर 1932 को इंडियन मिलिटरी अकैडमी (आई.एम.ए.) देहरादून में चयनित हो गए और 4 फरवरी 1934 को वहां से पास होकर ब्रिटिश इंडियन आर्मी (स्वतंत्रता के बाद भारतीय सेना) में सेकंड लेफ्टिनेंट बन गए। सन 1963 में उन्हें आर्मी कमांडर के पद पर पदोन्नत किया गया और उन्हें पश्चिमी कमांड की जिम्मेदारी सौंपी गयी। सन 1964 में उन्हें ईस्टर्न आर्मी के जी-ओ-सी-इन-सी के तौर पर शिमला से कोलकाता भेजा गया। इस दौरान उन्होंने नागालैंड से आतंकवादी गतिविधियों का सफलता पूर्वक सफाया किया जिसके स्वरूप सन 1968 में उन्हें पद्म भूषण प्रदान किया गया।

सम्मान और सेवानिवृत्त जीवन


उनकी शानदार राष्ट्र सेवा के फलस्वरूप भारत सरकार ने मानेकशॉ को सन 1972 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया और 1 जनवरी 1973 को उन्हें ‘फील्ड मार्शल’ का पद दिया गया। ‘फील्ड मार्शल’ का पद पाने वाले वे पहले भारतीय सैन्य अधिकारी थे। उनके बाद सन 1986 में जनरल के.एम. करिअप्पा को भी ‘फील्ड मार्शल’ का पद दिया गया। 15 जनवरी 1973 को मानेकशॉ सेवानिवृत्त हो गए और अपनी धर्मपत्नी के साथ कुन्नूर में बस गए। नेपाल सरकार ने सन 1972 में उन्हें नेपाली सेना में मानद जनरल का पद दिया। सेना से सेवानिवृत्ति के बाद मानेकशॉ कई कंपनियों के बोर्ड पर स्वतंत्र निदेशक रहे और कुछ कंपनियों के अध्यक्ष भी। मानेकशॉ का निधन 27 जून 2008 को निमोनिया के कारण वेलिंगटन (तमिलनाडु) के सेना अस्पताल में हो गया। मृत्यु के समय उनकी आयु 94 साल थी।

और देश ने उनके साथ क्या किया...

इतने शानदार यौद्धा और व्यक्तित्व का अंतिम समय शांतिपूर्ण गुजरा। वे भारतीय सेना के पहले फाइव स्टार रैंक जनरल थे और नेपाली सरकार ने भी नेपाली सेना में उन्हें मानद जनरल का पद दिया। फील्ड मार्शल तीनों सेनाओं की सर्वोच्च रैंक है। अब तक सैम बहादुर के अलावा के. एम. करियप्पा और एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह ही फील्ड मार्शल की रैंक पा सके हैं। फील्ड मार्शल फाइव स्टार रैंक मानद जनरल होते हैं, जिन्हें पूरा वेतन मिलता है। निजी सेवा स्टाफ और अन्य सुविधाएं भी, लेकिन जाने क्यों यह सुविधाएं हटा ली गईं। उपचार भी उनके निजी खर्चे से चलने की बात सामने आती रही। तीस साल तक उन्हें भत्ता नहीं मिला। जब यह बात 2005—06 में तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम को पता चली तो उन्होंने मानेकशॉ के पास चेक भिजवाया, एक करोड़ तीस लाख का। राष्ट्रपति के आदेश पर रक्षा सचिव खुद उनसे मिलने गए। इस पर मानेकशॉ ने चेक को देखते हएु अपने ही खिलंदड़ अंदाज में पूछ लिया कि यह बाउंस तो नहीं हो जाएगा। उनका जब निधन हुआ तो आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अंतिम संस्कार में मनमोहन सरकार कोई भी मंत्री नहीं पहुंचा।रक्षा मंत्री एके एंटनी उस समय विदेश दौरे पर थे और वायुसेना व नौसेना ने मात्र अपने दो स्टार रैंक वाले अफसरों को भेजा था। इन्हीं अंदाज के लिए सैम बहादुर के नाम से मशहूर फील्ड मार्शल मानेकशॉ को राष्ट्रीय महानायक का दर्जा दिया जाना चाहिए। 

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