जेल जाकर क्यों बदल गए थे अमर सिंह / जब अमरसिंह ने विरोध के बावजूद मुलायम को मनमोहन की सरकार बचाने के लिए मनाया, जाना पड़ा था जेल

Zoom News : Aug 01, 2020, 11:21 PM

RIP Amar Singh | होर्स ट्रेडिंग के दौर में अमरसिंह का चले जाना राजनीतिक खेल के एक बड़े खिलाड़ी का गुजर जाना है। जिंदादिल और उर्जावान अमर सिंह ने मनमोहन सिंह की सरकार यूपीए फर्स्ट को गिरने से बचाया था। जबकि उसके पहले के वक्त में सोनिया गाँधी अमर सिंह को अपने आउटहाउस से आगे जाने तक की इजाज़त नहीं देती थीं। यही नहीं उन्होंने भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे में मुख्य भूमिका निभाई थी।

कहा यह भी जाता है कि यदि अमर सिंह वह कोशिश नहीं करते तो समाजवादी पार्टी मनमोहन सरकार को वाकआउट करके अप्रत्यक्ष समर्थन नहीं देती और शायद ही मनमोहनसिंह को दूसरा कार्यकाल मिल पाता। अमरसिंह के अहसान का बदला कांग्रेस ने कैसा चुकाया यह तो खबर नहीं, लेकिन उन्हें यूपीए के दूसरे कार्यकाल में उसी सरकार बचाने के बदले तिहाड़ जेल में रहना पड़ा। उर्जावान और जिंदादिल यारबाज कहे जाने वाले अमर सिंह इससे टूट गए और उनमें अपने ही मित्रों के प्रति कड़वाहट घुल गई। चाहे वे कांग्रेस के बड़े नेता हों, अमिताभ बच्चन हों, सुब्रत राय सहारा, सलमान खुर्शीद या फिर उनके डॉक्टर। जेल से लौटने के बाद उन पर से भ्रष्टाचार के आरेाप तो हट गए, लेकिन अमरसिंह का मन कसैला हो गया। हम आज उनके निधन के मौके पर बता रहे हैं अमरसिंह के जेल जाने और उसके बाद की पूरी दास्तान।


साल 1996 में एक फ्लाइट में अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव की मुलाकात हुई। इसी मुलाकात के बाद अमर सिंह समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए। इसी साल वह समाजवादी पार्टी के राज्यसभा सांसद भी बन गए। हर पार्टी में अपने संबंधों, राजनीतिक समझ, व्यवसायियों से अच्छे रिश्ते, हर काम करा लेने की कला और बॉलिवुड स्टार अमिताभ बच्चन और जया प्रदा जैसे सितारों से दोस्ती के चलते अमर सिंह समाजवादी पार्टी के चहेते नेता बन गए। पहले भी कई विवादों में भी अमर सिंह का नाम खूब उछला लेकिन 2008 के ही कैश फॉर वोट मे तो अमर सिंह गिरफ्तार भी हुए थे। साल 2008 में ही उन्हें कई संसदीय समितियों में जगह मिली। साल 2010 में उन्हें समाजवादी पार्टी से निकाल भी दिया गया। हालांकि, 2016 में वह फिर से पार्टी में वापस आए और राज्यसभा के लिए चुने गए। हालांकि, समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव के मजबूत होने के साथ ही अमर सिंह किनारे लगते चले गए। साल 2011 में उन्होंने अपनी पार्टी भी बनाई थी। 2012 के विधानसभा चुनाव में अमर सिंह की पार्टी चुनाव में उतरी लेकिन उसे कुछ भी हासिल नहीं हुआ।

चार दिन की जेल ने अमरसिंह को बदल दिया था

अमरसिंह जेल गए थे। जी हां! उथल-पुथल के उसी दौर में जिसमें ए. राजा और 2जी का गिरोह तिहाड़ गया था। अमर सिंह, जो किसी समय में ख़ासे थुलथुल रहे थे और अब काफ़ी पतले हो चुके हैं। सितम्बर 2011 में गिरफ़्तार हुए थे। उनकी यह गिरफ़्तारी उसके ठीक तीन साल बाद हुई थी जब उन्होंने भारत-अमेरिकी परमाणु सौदे में मुख्य भूमिका निभाई थी। तब तक, डॉ. मनमोहन सिंह ने न सिर्फ़ संसद में विश्वास मत हासिल कर लिया था, वे दूसरी बार प्रधानमंत्री भी बन चुके थे और इसलिए ये सारी भूमिकाएँ इतिहास के रूप में भुलाई जा चुकी थीं। 

यह था मामला


जैसा कि हम उपर पढ़ चुके हैं कि अमरसिंह की नेटवर्किंग गजब की थी। 2008 की गर्मियों में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मनमोहन सरकार संकट में थी। संकट की वजह थी वामपंथी पार्टियों का समर्थन वापस लेना। यूपीए के लिए यह सौदा आसान काम नहीं था क्योंकि वामपंथी अमेरिकी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ मुद्दा बनाते हुए समर्थन वापस ले रहे थे। जब काँग्रेस पार्टी संसद में विश्वास मत हासिल कर लेने के लिए अमर सिंह के दरवाजे पहुंचे। अमरसिंह ने कहा वामपंथियों और समाजवादी पार्टी के बीच दोस्ती थी। वैसी मैत्री काँग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच नहीं थी। सलाखों के पीछे शीर्षक से किताब लिखने वाली मशहूर पत्रकार सुनेत्रा चौधरी को एक इंटरव्यू में अमरसिंह ने बताया कि “एसपी-काँग्रेस के बीच का संबंध अनिश्चयपूर्ण था। एसपी तथा वामपंथियों के बीच का संबंध इस हद तक सद्भावपूर्ण और सुहावना था कि हर बार जब भी परमाणु समझौते के बारे में कॉमरेड; प्रकाश करात और यूपीए के बीच बातचीत होती थी, तो वे मेरे घर आकर उस बातचीत के ब्यौरों का सार देते थे।”

अगर इस तरह के विश्वास में मुलायम सिंह तथा अमर सिंह न सिर्फ़ पोलितब्यूरो चीफ़ प्रकाश करात के साथ बल्कि हरकिशन सिंह सुरजीत और सीताराम येचुरी जैसे अन्य वरिष्ठ वामपंथियों के साथ साझा करते थे, तो काँग्रेस के साथ उनकी स्थिति ‘यह पेचीदा है‘ थी। जब 2004 में पहली बार यूपीए का गठन हुआ था, तो सोनिया गाँधी अमर सिंह को अपने आउटहाउस से आगे जाने तक की इजाज़त नहीं देती थीं और बिना आमंत्रण के उनकी डिनर पार्टी में जाने पर उन्होंने अपने को उपेक्षित और गुस्से में पाया था। फिर, उन्होंने मुलायम सिंह के ख़िलाफ़ एक सीबीआई प्रकरण को लटकाए रखा और अपनी सुविधानुसार उनको समर्थन देने के लिए जोड़-तोड़ करते रहे। लेकिन 2008 में, काँग्रेस ने इस सबको पोंछने की कोशिश की क्योंकि समाजवादी पार्टी अपने 39 सांसदों के साथ उनके लिए अपरिहार्य हो उठी। अगर भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते पर हस्ताक्षर के नतीजे में वामपंथी अपने 59 सांसदों के साथ यूपीए से अलग हो जाते तो समाजवादियों का यह झुंड बहुत बड़ी राहत मुहैया कराने वाला था। लेकिन क्या वे अपने पुराने कॉमरेडों की ओर पीठ फेर सकते थे?

सुनेत्रा चौधरी लिखती हैं कि अमर सिंह दावा करते हैं कि यह उनके तथा प्रधानमंत्री के शीर्षस्थ सहायकों के बीच हुई गुप्त बैठक थी जिसने उन्हें इस समूचे सौदे में मुब्तिला किया था। “मोड़ तब आया जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम. के. नारायणन मुझसे मिले।” उस मुलाक़ात में क्या हुआ इस बारे में वे ज़्यादा कुछ नहीं बताते, वह मुलाक़ात अभी भी गुप्त है। “उस पर चर्चा नहीं हो सकती। मैंने तो इतना भी न बताया होता लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह ने डॉ. कलाम की मृत्यु के बाद इसे उजागर कर दिया है।”

निश्चय ही, डॉ. मनमोहन सिंह ने करन थापर के साथ 2015 के एक इंटरव्यू में इस बात की पुष्टि की थी कि उनकी सरकार के बचे रहने में अमर सिंह ने अहम भूमिका निभाई थी। उस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था: “मैं इन मुद्दों पर अमर सिंह जी से बातचीत कर रहा था और मुलायम सिंह जी से भी चर्चा कर रहा था और हम बड़ी मुश्किल से उनको उनकी आपत्तियों पर पुनर्विचार के लिए राज़ी कर सके। जो लिहाज़ मुलायम सिंह जी के मन में था, उसका मुझे स्मरण था और वे डॉ. कलाम से मिलने गए थे।”

यह एक अच्छे डॉक्टर द्वारा फुर्ती से किया गया सोच-विचार था। क्योंकि जो चीज़ बहुत-से लोगों को याद नहीं होगी वह ये है कि डॉ. कलाम और मुलायम सिंह के बीच एक ख़ास तरह का मज़बूत रिश्ता था। 1990 के दशक में जब मुलायम सिंह संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री थे तब वे डॉ. कलाम के साथ काम कर चुके थे जो तब सरकार के शीर्षस्थ वैज्ञानिक थे। जब राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस - एनडीए) 2002 में नए राष्ट्रपति की तलाश में था तब ये मुलायम सिंह थे जिन्होंने कलाम का नाम इस खेल में उछाला था। “क्यों न मुसलमान राष्ट्रपति बनाया जाए?

इससे गोधरा के बाद एक मज़बूत संदेश जाएगा,” ये वह सलाह थी जो, जैसा कि बताया जाता है, उन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी और प्रमोद महाजन को दी थी, गुजरात के उन दंगों का हवाला देते हुए जिनमें 3,000 लोग मारे गए थे। एक ही झटके में उन्होंने एक अन्य अल्पसंख्यक प्रतिद्वंद्वी पी. सी. अलेक्ज़ेंडर के मौक़े को ख़त्म कर दिया था। मुलायम सिंह ने पूछा था कि क्या वे किसी ‘राष्ट्रवादी’ मुसलमान को जानते थे और मिसाइल मैन डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की क़ाबिलियत पर कोई विवाद नहीं कर सका था। 

इसलिए जब डॉ. सिंह ने सलाह दी कि वे इस समझौते के फ़ायदों के बारे में भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. कलाम से बात करें, तो दोनों को लगा कि ये बहुत अच्छा ख़याल था। “वे किसी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त थे और काँग्रेस-समर्थित नहीं थे। हमें लगा कि उनकी राय राजनीति से परे होगी क्योंकि उस क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता थी।”


वे उनसे मिलने गए और जैसा कि डॉ. कलाम एक आदर्श शिक्षक थे ही, सो उन्होंने उनको परमाणु ऊर्जा और हिंदुस्तान के लिए उसकी ज़रूरतों पर एक छोटा-सा क्रैश कोर्स दे दिया। 123 समझौता या इंडो-यूएस सिविल को-ऑपरेशन न्यूक्लियर एग्रीमेंट एक महान तकनीकी समझौता था जिसे ज़्यादातर लोग समझते नहीं थे और इसलिए इन दोनों आदमियों ने उनसे कुछ बुनियादी सवाल पूछे - क्या ये समझौता भारत के लिए ठीक है? और अगर है, तो क्यों और कैसे? क्या कोई और विकल्प है?

“डॉ. कलाम ने कहा कि वह एक अच्छा समझौता है क्योंकि अगर हिंदुस्तान न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य नहीं बनता, तो यूरेनियम हासिल करना मुश्किल हो जाता और हमारे परमाण्विक कार्यक्रम को इसका नुक़सान उठाना पड़ता। हमने उनसे पूछा, क्या कोयला पर्याप्त नहीं है, और वे हँसे और बोले कि नहीं, वह नहीं है और आप देखेंगे। उन्होंने कहा कि हिरोशिमा और नागासाकी कहीं भी घटित हो सकते हैं, और चेर्नोबिल जैसी परमाण्विक दुर्घटना कहीं भी हो सकती है। लेकिन परमाण्विक ऊर्जा सबसे सस्ती है और वह सबसे सुविधाजनक ऊर्जा है। हमने यहाँ तक पूछ डाला कि क्या हिंदुस्तान के लिए यूरेनियम के कोई और विकल्प नहीं हैं। डॉ. कलाम ने कहा, थोरियम लेकिन थोरियम पर आधारित टेक्नोलॉजी हिंदुस्तान में उपलब्ध नहीं है और वह बहुत लंबा समय लेगी।”

मुलायम सिंह संतुष्ट थे, लेकिन इसके बाद वह पेचीदा राजनीति सामने आई जिससे यह यू-टर्न उचित दिखाई देता। यह ठीक है कि उन्होंने 1999 में काँग्रेस को पहले अपने समर्थन का वचन देकर और फिर बाद में अपने वादे से मुकरकर सोनिया गाँधी से संबंध तोड़ लिए थे, लेकिन अब अगर उसी काँग्रेस को संकट से उबारने के लिए वे वामपंथियों की ओर अपनी पीठ मोड़ने जा रहे थे तो इस कार्रवाई को साफ़ तौर पर माक़ूल शक्ल देना ज़रूरी था। इसलिए उन्होंने एक समझौता किया और डॉ. कलाम के घर में अपना राजनैतिक पक्ष घोषित किया - परमाणु समझौता-विरोधी होने की बजाय उस समझौते को देश के लिए एक महान समझौता बताया।

“हमने उनसे कहा, सर, हम आपकी मौजूदगी में इसकी घोषणा करना चाहेंगे क्योंकि हम वामपंथियों को समर्थन देने का राजनैतिक निर्णय पहले ही ले चुके थे। अब अगर हम अचानक अपना रुख़ बदलते हैं तो हम बेवकूफ़ दिखाई देंगे।” जैसे कि निर्विघ्न राजनैतिक चालें होती हैं, यह अपने में उसका एक आदर्श नमूना थी, और कुछ समय के लिए अमर सिंह ख़ासे सक्रिय हो उठे। “पूरे समय, तत्कालीन विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी मुझे व्यक्तिगत रूप से जानकारी देते रहते थे और कहते थे कि उस समझौते में मेरी अहम भूमिका थी। जब अमेरिका की विदेश मंत्री (2008 में) सरकारी दौरे पर आई थीं तो मुझे भी आमंत्रित किया गया था। उनकी राजकीय यात्रा के दौरान वह एक थोड़े-से लोगों के बीच की बैठक थी और मैं उस बैठक का हिस्सा था।”

जब तक यह चलता रहा, वह बहुत अच्छा था; उस वक़्त तक जबकि इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी आईएईए के प्रमुख अल बारदेई ने अमर सिंह को उस समझौते को मुमकिन बनाने का श्रेय दिया। उनकी बदक़िस्मती से, ये सारे-के-सारे कुशल कूटनैतिक क्षण भुला दिए गए क्योंकि 22 जुलाई 2008 को जो कुछ वास्तव में देखा गया। संसद में सांसदों द्वारा एक करोड़ रुपये प्रदर्शित किए जाने का दृश्य - उसने सब कुछ ढँक दिया था। अमर सिंह और डॉ. मनमोहन सिंह दावा कर सकते थे कि उनका ध्येय राष्ट्र के हित में था, लेकिन जनता तो सिर्फ़ उस घिनौनी रक़म को देख पा रही थी जिसका भुगतान कथित रूप से सांसदों को ख़रीदने के लिए किया गया था। लेकिन उस समय किसी ने कल्पना नहीं की थी कि अमर सिंह या बीजेपी के सांसद इसके लिए कभी जेल जाएँगे। ये सब बहुत धीरे-धीरे हुआ और घटनाक्रम ने पूरा वक़्त लिया।

दरअसल, सीएनएन-आईबीएन तक ने एक महीने बाद तक उस ऑपरेशन के दृश्यों को जारी नहीं किया था। उनका कहना था कि वे टेपों की सत्यता की जाँच कर रहे थे लेकिन अटकल यह थी कि सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लेने के बाद उनपर उन तसवीरों को न दिखाने का भारी दबाव डाला हुआ था। इससे उस फ़तह की नींव हिल जाती जिसका वे आनंद ले रहे थे। लेकिन विपक्षी, यानी बीजेपी और वामपंथी, आसानी-से पीछा छोड़ने वाले नहीं थे। बीजेपी के तीन सांसदों, अशोक अर्गल, फग्गन सिंह कुलस्ते और महावीर भगोरा ने अपने आपको सचेतक (व्हिसल ब्लोअर) घोषित कर दिया और अंततः, महीना समाप्त होते-होते काँग्रेस के के.सी. देव के अधीन एक संसदीय जाँच बिठा दी गई।

जिस दिन इस जाँच समिति ने सीएनएन-आईबीएन से साक्ष्य पेश करने को कहा और उन्होंने जाँच के लिए अपने टेप प्रस्तुत किए, उन्होंने वे दृश्य टीवी पर जारी कर दिए। उसमें एक कमरे में समाजवादी पार्टी के एक और सांसद रेवती रमण सिंह को बीजेपी के सांसदों के साथ उनको यह सलाह देते हुए दिखाया गया था कि वे ‘साहब‘ से मिलें और समझौते पर पहुँचें। बीजेपी के ये सांसद कैमरे में लगातार अमर सिंह का उस व्यक्ति के रूप में ज़िक्र करते पाए गए हैं जो यह सौदा कर रहा है और मतदान में भाग न लेने के लिए रक़म की पेशकश कर रहा है।

अगले दिन इन टेपों में एक कार को दिखाया गया है जो संभावित रूप से इनमें से कुछ सांसदों को अमर सिंह के घर की ओर लिए जा रही है (आप उन सांसदों को देख नहीं सकते क्योंकि कार की खिड़कियों के काँच रँगे हुए हैं)। ये टेप जो अगली चीज़ दिखाते हैं वह यह है कि ये सांसद एक कमरे में हैं और संजीव सक्सेना नाम का एक शख़्स (जिसके बारे में कहा गया है कि वह अमर सिंह का सहयोगी था) नक़दी के बंडल सामने रख रहा है। वह किसी को फ़ोन लगाता है और ये सांसद उससे बात करते हैं और उसको ‘अमर सिंह जी’ कहकर पुकारते हैं। जो कुछ टेप में पकड़ा गया है यह उसका कुल सार है।

“मेरे ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं था, मेरी कोई आवाज़ या चेहरा नहीं था। इसलिए जब संसदीय जाँच समिति ने हम सबको मुक्त कर दिया और स्पीकर ने समिति की सिफ़ारिश को मंज़ूर कर लिया, तो मामला उसी के साथ ख़त्म हो जाना चाहिए था। क्योंकि संसद भवन के भीतर जो कुछ भी आप कहते या करते हैं, उसे छूट मिली होती है।”

यही सब लगभग वह था जो हुआ था। उनके और दूसरे नेताओं के ख़िलाफ़ लगे आरोपों की जाँच जो समिति कर रही थी उसने साल के अंत तक सभी को बरी कर दिया था। आख़िरकार 1993 में भी तो यही वजह थी जिसके चलते प्रधानमंत्री पी. वी. नरसिंहराव के ख़िलाफ़ विश्वास मत के दौरान जोड़-तोड़ करने के आरोपी झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को अदालत ने अपराध-मुक्त घोषित कर दिया था क्योंकि आप सांसदों पर संसद के भीतर उनके द्वारा की गई कार्रवाई को लेकर मुकदमा नहीं चला सकते।

“संसद के इतिहास में उसके अंदर के अपराध को कभी पुलिस के हवाले नहीं किया गया था। मुमकिन है कि मिस्टर चिदंबरम मुझसे अपार प्रेम करते हों और मेरे प्रति गहरा लगाव रखते हों, मैंने उस सरकार को बचाया था जिसमें वे गृहमंत्री थे, लेकिन उन्होंने मेरी भूमिका की जाँच दिल्ली पुलिस को सौंप दी।”

पी. चिदम्बरम से गुस्सा

तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम के ख़िलाफ़ अमर सिंह का गुस्सा समझ में आने वाला है। उन्होंने अपने आपको कमज़ोर महसूस किया क्योंकि 2011 तक आते-आते उनकी न तो सांसद की हैसियत रह गई थी, न वे समाजवादी पार्टी में रह गए थे। जैसे ही समाजवादी पार्टी के आज़म खान और अखिलेश यादव जैसे दूसरे सदस्यों के साथ उनके मतभेद सामने आए, उनको पार्टी-विरोधी गतिविधियों के लिए पार्टी से निकाल दिया गया था। एक आरोपी सांसद अशोक अग्रवाल के ख़िलाफ़ तो आरोप-पत्र भी दाख़िल नहीं किया गया क्योंकि भ्रष्टाचार विरोधी अधिनियम के तहत किसी सार्वजनिक व्यक्ति के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने के लिए अनुमति ज़रूरी होती है। लेकिन परमाणु समझौते के रक्षक के पास तीन साल के दौरान ऐसा कोई सुरक्षा-कवच नहीं बचा था।


“जो व्यक्ति वीडियो में था उसको छुआ तक नहीं गया और ये तर्क दिया गया कि आवाज़ अस्पष्ट है, तसवीरें धुँधली हैं। ये उनके बारे में तो सही है लेकिन मेरा क्या, जिसे किसी वीडियो में देखा ही नहीं गया था? एकमात्र साक्ष्य यह था कि सह-आरोपी संजीव सक्सेना के बेटे को मैंने दयाल सिंह कॉलेज में दाख़िला दिलाने में मदद की थी। एक सांसद के रूप में मैं चिट्ठियाँ लिखता रहता हूँ, लेकिन उसे एक साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया गया।” पुलिस न्यायाधीश को यह यक़ीन दिलाने में क़ाबिल थी कि वह सिफ़ारिशी ख़त यह साबित करता था कि सक्सेना निश्चय ही अमर सिंह का क़रीबी सहयोगी था और इसलिए जब उसको टेप में सांसदों को उनके वोट के बदले रुपये देते दिखाया गया तो वह उनके (अमर सिंह के) निर्देशों पर वैसा कर रहा था, ख़ासतौर पर इसलिए क्योंकि उन सांसदों को फ़ोन पर ‘अमर सिंह‘ का ज़िक्र करते देखा गया है। लेकिन उनका प्रतिवाद यह था कि वह ख़त अपने में कोई मायने नहीं रखता क्योंकि सांसद सभी की सिफ़ारिशें करते रहते हैं।

“प्रकरण की मूल डायरी में, अरुण जेटली और लाल कृष्ण आडवाणी सभी प्रकरण में शामिल खिलाड़ी थे, लेकिन उन्हें कुछ नहीं हुआ। भाजपा के. वी. के मल्होत्रा जाँच समिति में थे, और उन्होंने कहा, हम इस जाँच को जारी नहीं रखना चाहते। मेरे अच्छे दोस्त राम गोपाल यादव, जो समिति में हमारी पार्टी के प्रतिनिधि थे, ने भी यही बात कही। हर कोई इस बात पर सहमत था कि इसका अंत होना चाहिए क्योंकि काँग्रेस विश्वास मत जीत चुकी थी और उनकी सरकार बच गई थी, अध्याय ख़त्म हो चुका था।”


लेकिन, वह नहीं हुआ था क्योंकि एक बिंदु पर, वह इन तमाम राजनेताओं के मुक़ाबले बड़ा हो गया था। भूतपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जे. एम. लिंगदोह के नेतृत्व में इंडिया रिजुवेनेशन इनिशिएटिव नामक एक समूह ने इस मामले की विशेष जाँच के लिए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाख़िल कर दी। दिल्ली पुलिस जोकि पिछले कुछ वर्षों से इस प्रकरण पर सोई हुई थी, सहसा हरक़त में आ गई।

“यह न्यायिक सक्रियता की फ़रियाद थी और चूँकि लिंगदोह एक ख्यातनाम व्यक्ति थे और अन्ना हज़ारे और प्रशांत भूषण सक्रिय थे, सर्वोच्च न्यायालय ने जाँच का आदेश दे दिया। वीडियो में जिस व्यक्ति को सांसदों से बात करते देखा गया था वह रेवती रमण सिंह था - उसको छुआ नहीं गया, और बिना कोई सज़ा दिए आज़ाद छोड़ दिया गया। चिदंबरम ने सोचा कि मैं एक कमज़ोर मेमना हूँ, एक ऐसा बड़ा नाम जिसको लेकर अब कोई रोक-टोक नहीं थी, यह जिबह किए जाने के लिए अच्छा शिकार था। और मुझे जिबह कर दिया गया।”

6 सितम्बर 2011 को अमर सिंह भाजपा के तीन सांसदों, और भाजपा के वरिष्ठ नेता सुधींद्र कुलकर्णी के साथ, तिहाड़ जेल गए। पुलिस को लगा कि कुलकर्णी स्टिंग ऑपरेशन के पीछे थे क्योंकि उन्हीं ने सीएनएन-आईबीएन का उन तीन सांसदों से परिचय कराया था और कैश-फ़ॉर-वोट के प्रस्ताव को सुगम बनाया था। अमरसिंह आगे बताते हैं कि “जज ने पूछा कि मैंने अपना इलाज हिंदुस्तान में क्यों नहीं कराया, मैं सिंगापुर क्यों गया? मैंने उनसे कहा कि मैं एक प्रभावशाली व्यक्ति हूँ और मुझे पहले ही गिरफ़्तार कर लिया जाना चाहिए था ताकि मैं जाँच-प्रक्रिया को प्रभावित न कर पाता। अब जबकि मेरा आरोप-पत्र तैयार हो चुका है, तब मुझे गिरफ़्तार करने का क्या अर्थ है? मुकदमा चलना चाहिए और बाद में मुझे जेल भेजा जा सकता है।” लेकिन जज धींगड़ा सुनने के मूड में नहीं थीं और उन्होंने 55 साल के उस इंसान को न्यायिक हिरासत में भेज दिया। अमर सिंह को तत्काल प्रसिद्धि की क़ीमत समझ में आ गई।

“तीस हज़ारी में मुझसे मेरी चेन, मेरी घड़ी और मेरे शरीर पर मौजूद सभी कुछ उतारकर देने को कहा गया। मैंने सारी चीज़ें दे दीं। मुझे एक काली वैन में बिठाया गया। चारों तरफ़ मीडिया की ख़ासी चकाचौंध थी और मैंने क्रूरता को, सुर्ख़ियों के लिए उनकी भूख को महसूस किया। मैं जेल गया, और सारे संतरियों ने यह जाने बिना कि मैं एक क़ैदी था, मुझे सलाम ठोंकना शुरू कर दिया।”

सक्रिय रूप से मीडिया की तलाश में रहने वाला आदमी अब उसकी ताकझाँक से असंतुष्ट था, वहीं उसके वैभवषाली और प्रभावशाली दोस्त उससे कन्नी काटने की भरसक भरपूर कोशिश कर रहे थे। उदाहरण के लिए, तिहाड़ के बॉस, आईपीएस अधिकारी नीरज कुमार उनसे अपनी मुलाक़ात को टालने या उनसे की जा सकने वाली किसी इनायत की उम्मीद से बचने के लिए लंबी छुट्टी पर चले गए। दरअसल वे सिंगापुर चले गए ताकि अमर सिंह उनको फ़ोन भी न कर सकें। अमर सिंह इस अटकल को ख़ारिज़ करते हैं और कहते हैं कि ये महज़ संयोग भी हो सकता है।

विलासिता की वस्तुएँ और उनका अतिभोग सापेक्षिक होते हैं। जहाँ 2जी के आरोपी बंदी बनाकर रखे गए थे, वह इलाक़ा तरह-तरह के 14,000 क़ैदियों की दृष्टि से बेहद आलीशान था क्योंकि उनके लिए पश्चिमी शैली के शौचालय थे, वह साफ़ था और उसमें कुछ खुली जगह भी थी। अमर सिंह को वहाँ उन्हीं के साथ रखा गया, लेकिन उन्होंने पाया कि वहाँ से जीवन की सुविधाएँ हटा ली गई थीं, केवल बेहद ज़रूरी चीज़ें बाक़ी थीं।

“मुझे एक छोटी-सी चटाई दी गई, कोई तकिया नहीं। मुझे पानी की एक बाल्टी और मग दिया गया। इसलिए अगर मुझे पानी पीना होता तो उसी से पीना होता और अगर टट्टी करनी होती तो मुझे उसी मग का इस्तेमाल करते हुए शौचना था। मेरी दोस्त किरण बेदी ने तिहाड़ जेल को एक वर्गहीन जेल में बदल दिया था। चाहे आप कोई हैसियत वाले आदमी हों या कोई बलात्कारी हों, आपसे समान बरताव किया जाएगा। यह धारणा उस वक़्त पूरी तरह से क्रियान्वित थी।”

बच्चन से नाराजगी की वजह 


बच्चन परिवार के बेहद क़रीबी होने की वजह से अमर सिंह ने अपने तमाम तरह के दुश्मन पैदा कर लिए थे। बताया जाता है कि जब बच्चन की कंपनी दीवालिया होने को थी तो ये अमर सिंह थे जिन्होंने उसकी वित्तीय मदद कर उसको फिर से पटरी पर खड़ा किया था। लेकिन वह लंबा रिश्ता जेल में बुरी तरह से प्रभावित हुआ। वे इस बात के लिए बच्चन को माफ़ नहीं कर सकते कि वे जेल में उनसे मिलने नहीं आए। “जब मुझे ज़मानत मिल गई तो मि. बच्चन मुझसे मिलने आए, लेकिन मैं प्रभावित नहीं हुआ। मुझे इस बात का उल्लेख करना चाहिए कि मुझे ज़मानत मिलने से पहले मेरे बहुत पुराने दोस्त श्याम और हरी भरतिया (हिंदुस्तान टाइम्स समूह के) मुझसे मिलने आए थे। उनका व्यवहार बहुत सामान्य था। बच्चन तभी आए जब मुझे ज़मानत मिल गई और मैं अस्पताल में था। उन्होंने मेरी ज़मानत का इंतज़ार किया, इससे मैं बहुत रूखा और औपचारिक बना रहा। वे राजनैतिक औचित्य की परवाह करने वाले और मीठा बोलने वाले व्यक्ति हैं। सुब्रत रॉय भी ऐसे ही थे। मैं उनसे मिलने दो बार तिहाड़ गया था। मैंने कहा कि मुझे लोगों के साथ वही करना चाहिए जो उन्होंने मेरे साथ किया। उन्होंने आने में बहुत समय लिया।”

रिश्ते की परीक्षा उससे बेहतर कभी नहीं होती जब व्यक्ति कटघरे में खड़ा होता है। बच्चन परिवार के अन्य लोगों के प्रति अमर सिंह का असंतोष तिहाड़ के बहुत पहले रहा हो सकता है। उदाहरण के लिए, वे कभी नहीं भूले कि एक बार जब वे सुब्रत रॉय की पार्टी में जा रहे थे तो उनके हैलीकॉप्टर को रुकना पड़ा था क्योंकि उसे ऐश्वर्या राय को लेने वापस जाना था। उनके मन में जया बच्चन को लेकर भी हमेशा शिकायत रही कि वे उनकी समाजवादी मंडली के बीच उनके बारे में प्रशंसात्मक बातों से भी कम बातें कहती थीं। लेकिन अमिताभ बच्चन हमेशा एक स्थायी साथी रहे थे और जिन दिनों वे अपनी किडनी की बीमारी से उबर रहे थे, उन दिनों वे लंबे समय तक सिंगापुर में उनके साथ रहे थे। वे बीमार और तंदुरुस्ती के दिनों में भले साथ रहे हों लेकिन जेल में वे यह नहीं कर सके: “जब वे मुझसे मिलने आए, मेरा मन उनसे बात करने को नहीं कर रहा था क्योंकि दोस्ती की जो भावनाएँ उनके प्रति मेरे मन में थीं वे ख़त्म हो गई थीं। वे मेरे दिमाग़ से झड़ गई थीं और मुझे यह अहसास हो गया था कि लोग ज़्यादातर हवा का रुख़ देखकर व्यवहार करते हैं।”

जैसा कि अमर सिंह कहते हैं, अंबानी लोग, बच्चन लोग, ‘इट क्राउड,’ सब ‘भाप बनकर उड़ गए’ और सबसे गहरी चोट ये थी कि उनके वीआईपी डॉक्टर, पद्मश्री प्राप्त नेफ़्रोलॉजिस्ट डॉ. रमेश कुमार ने भी उनसे किनारा कर लिया। जब अमर सिंह की पत्नी ने डॉक्टर को फ़ोन करके उन्हें देखने आने को बुलाया तो उन्होंने कहा, “नहीं, नहीं, मैं आप लोगों से दूर रहना चाहता हूँ, क्योंकि आप एक अपराधी हैं।” यही डॉक्टर, जो भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भी डॉक्टर हैं, इस घटना के पहले उनको चाहे जब ‘छोटे-छोटे, तुच्छ अनुग्रहों’ के लिए फ़ोन करते रहते थे। अमर सिंह कहते हैं कि इस दग़ाबाज़ी ने उनकी पत्नी को सबसे ज़्यादा सदमा पहुँचाया। उस समय, उनकी जुड़वाँ बेटियाँ महज़ सात साल की थीं। अमर सिंह की क़ीमत हज़ारों करोड़ है लेकिन तब भी वे भारी भरकम फ़ीस पर बड़े वकीलों को रखने के ख़र्चों की बात करते हैं और इसकी भी कि ‘कभी सिरदर्द, तो कभी परिवार में किसी शादी या दाहसंस्कार जैसे निहायत ही बेवकूफ़ी भरे बहानों’ के नाम पर केस स्थगित हो जाता है। लाखों रुपये ख़र्च किए जा रहे हैं और आपके पास कोई विकल्प नहीं है क्योंकि या तो ये करिए या फिर जेल में अंतहीन समय तक रहिए। “मेरी पत्नी जोकि इन सांसारिक उद्यमों से एकदम अनजान है सिर्फ़ सलमान ख़ुर्शीद को जानती थी, एक दोस्त जोकि क़ानून मंत्री भी थे। लेकिन उन्होंने भी उससे मिलने से इनकार कर दिया। इन सब से अमरसिंह का मन खट्टा हो गया और अमरसिंह वह नहीं रह गए जो जेल जाने से पहले थे।

90 के दशक में अमिताभ बच्चन अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहे थे। एक के बाद एक लगातार फ्लॉप फिल्मों और अपनी कंपनी एबीसीएल के डूबने के चलते उन्हें लगातार आयकर विभाग के नोटिस मिल रहे थे। उस वक्त महज 4 करोड़ रुपये न चुका पाने के चलते उनके बंगले के बिकने और उनके दिवालिया होने की नौबत तक आ गई थी। तब अमर सिंह ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया और अमिताभ बच्चन को कर्जे से उबारा। फिर यह दोस्ती लंबी चली और बॉलिवुड से लेकर राजनीतिक गलियारों तक में चर्चा का विषय रही।

जया बच्चन समाजवादी पार्टी की चार बार की राज्यसभा सांसद हैं। उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय अमर सिंह को ही दिया जाता है। कहा यह भी जाता है कि उस वक्त अमिताभ बच्चन ने जया बच्चन के राजनीति में जाने का विरोध भी किया था, मगर अमर सिंह ने उन्हें राजी कर लिया। अमर सिंह ने जया बच्चन के लिए कइयों से राजनीतिक दुश्मनी मोल ली। 2010 में जब अमर सिंह को पार्टी विरोधी गतिविधियों के चलते समाजवादी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया, उस वक्त उन्होंने जया बच्चन से भी पार्टी छोड़ने के लिए कहा। हालांकि जया बच्चन अपना राजनीतिक करियर दांव पर लगाने को राजी नहीं हुईं। कहा जाता है कि यहीं से बच्चन परिवार और अमर सिंह के रिश्तों के बीच दरार पड़नी शुरू हो गई।

अमर सिंह और अमिताभ बच्चन के बीच दूरी बढ़ाने में काफी भूमिका अमर सिंह के विवादित बयानों की भी रही। 2017 में अमर सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा, 'मैं अमिताभ बच्चन से जब मिला था, उससे काफी पहले से जया बच्चन और अमिताभ अलग-अलग रह रहे थे। एक प्रतीक्षा में रहता, तो दूसरा अन्य बंगले जनक में रह रहा था। ऐश्वर्या राय बच्चन और जया बच्चन के बीच भी काफी मतभेद की खबरें हैं, हालांकि इसके लिए मैं जिम्मेदार नहीं हूं।' अमर सिंह ने यह भी कहा था कि अमिताभ ही थे जिन्होंने मुझे जया बच्चन को राजनीति में लाने को लेकर आगाह किया था। बताते चलें कि इस साल फरवरी में अमर सिंह ने एक ट्वीट किया था। उन्होंने लिखा, 'आज मेरे पिताजी की पुण्यतिथि और मुझे अमिताभ बच्चन जी का मेसेज मिला। जीवन के ऐसे मोड़ पर, जब मैं जिंदगी और मौत से जूझ रहा हूं, मैं अमित जी और बच्चन परिवार को लेकर कहे गए अपने शब्दों के लिए माफी मांगता हूं। ईश्वर उन सब पर अपनी कृपा बनाए रखे।'

शब्द साभार : सुनेत्रा चौधरी की पुस्तक सलाखों के पीछे से

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