Aravalli Hills / एक 'सुप्रीम' आदेश से अरावली क्यों चर्चा में, मची हलचल; कैसे अभियान बना इसके संरक्षण का मुद्दा?

सुप्रीम कोर्ट के एक नए आदेश से अरावली पर्वत शृंखला चर्चा में है। 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली का हिस्सा मानने के फैसले से राजस्थान की 90% अरावली पहाड़ियां संरक्षण से बाहर हो सकती हैं। इससे 'सेव अरावली' अभियान तेज हो गया है, जिसमें पर्यावरणविद और राजनेता खनन के संभावित खतरों पर चिंता जता रहे हैं।

अरावली पर्वत शृंखला, जो दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वत शृंखलाओं में से एक है, हाल ही में एक 'सुप्रीम' आदेश के बाद देशभर में चर्चा का केंद्र बन गई है। इस आदेश के बाद से सोशल मीडिया पर 'सेव अरावली कैंपेन' यानी अरावली बचाओ अभियान तक चल पड़ा है, और इस मामले में राजनीतिक गलियारों में भी हलचल तेज हो गई है। यह पूरा विवाद सुप्रीम कोर्ट में अरावली के पास खनन की घटनाओं को लेकर दायर एक याचिका और केंद्र सरकार द्वारा दाखिल किए गए जवाब से शुरू हुआ, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अरावली की परिभाषा को लेकर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है।

अरावली पर्वत शृंखला: एक प्राचीन विरासत और इसका महत्व

अरावली पर्वत शृंखला को पृथ्वी पर दुनिया की सबसे पुरानी पर्वत शृंखलाओं में से एक माना जाता है, जिसकी आयु लगभग दो अरब साल है। यह भारत की सबसे पुरानी पर्वत शृंखला है और हिंद-गंगीय मैदानी इलाकों को रेगिस्तानी रेत से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी बैरियर के रूप में कार्य करती है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह पर्वत शृंखला न होती, तो भारत का उत्तरी क्षेत्र रेगिस्तान में तब्दील होना। शुरू हो गया होता, क्योंकि यह थार रेगिस्तान को हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक फैलने से रोकती है। अरावली थार रेगिस्तान और बाकी क्षेत्र के बीच जलवायु को संतुलित करने में भी अहम भूमिका निभाती है और इसके अलावा, यह पूरे क्षेत्र में जैव विविधता और भूजल के प्रबंधन में भी बेहद महत्वपूर्ण है। दिल्ली से गुजरात तक फैला लगभग 650 किलोमीटर का यह। क्षेत्र अपनी प्राकृतिक विविधता के लिए अरावली पर निर्भर है। यह रेंज चंबल, साबरमती और लूनी जैसी कई महत्वपूर्ण नदियों का स्रोत भी है। भूगर्भीय रूप से, इसमें बालू के पत्थर, चूना पत्थर, संगमरमर और ग्रेनाइट जैसे मूल्यवान खनिजों का विशाल भंडार है, साथ ही लेड, जिंक, कॉपर, सोना और टंगस्टन जैसे खनिज भी यहां पाए जाते हैं।

खनन का बढ़ता संकट और पर्यावरणीय प्रभाव

अरावली के दोहन की कहानी इन खनिजों के भंडारों की वजह से ही शुरू होती है। ऐतिहासिक रूप से अरावली से बड़ी मात्रा में खनन होता रहा है, लेकिन बीते चार दशकों में यहां से पत्थर और रेत का खनन काफी बढ़ गया है। इस अनियंत्रित खनन के कारण वायु गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित होती है, जिससे। आसपास के राज्यों में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) खराब होता जा रहा है। इतना ही नहीं, खनन की वजह से आसपास के भूजल स्तर पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है और इन गंभीर स्थितियों के चलते, समय-समय पर अरावली के विभिन्न क्षेत्रों में खनन को अवैध घोषित किया गया है।

संरक्षण के पूर्व प्रयास और 'हरित दीवार परियोजना'

अरावली के संरक्षण के लिए अतीत में भी कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। मार्च 2025 में, एक समिति ने स्पष्ट किया था कि पर्यावरणीय तौर पर संवेदनशील इलाकों में खनन पूरी तरह रोका जाना चाहिए। समिति ने पत्थर तोड़ने की इकाइयों पर भी सख्त नियम लागू करने का प्रस्ताव दिया था और यह भी कहा था कि जब तक सभी राज्यों में अरावली रेंज की पूरी मैपिंग नहीं कर ली जाए और इसके प्रभाव की रिपोर्ट पूरी न हो जाए, तब तक खनन के नए पट्टे न दिए जाएं और पुराने पट्टों का नवीनीकरण न हो। इसके बाद, जून 2025 में केंद्र सरकार ने 'हरित दीवार परियोजना' शुरू की, जिसके तहत अरावली रेंज में आने वाले चार राज्यों के 29 जिलों में इन पर्वतों के आसपास पांच किलोमीटर का जंगल वाला इलाका बनाया जाएगा, जो एक बफर के रूप में काम करेगा। सरकार का लक्ष्य था कि यह पहल 2030 तक 2. 6 करोड़ हेक्टेयर खराब भूमि को फिर से उपजाऊ बनाने में मदद करेगी।

सुप्रीम कोर्ट का नया आदेश और विवाद की जड़

हाल ही में अरावली शृंखला के चर्चा में आने का मुख्य कारण सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण अवलोकन है। कोर्ट ने पाया कि अरावली पर्वत शृंखला की पहचान के लिए अलग-अलग राज्य और यहां तक कि विशेषज्ञ समूह भी अलग-अलग मानक रख रहे थे, जिसमें फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) भी शामिल था। दरअसल, 2010 में FSI ने कहा था कि अरावली शृंखला में उन्हीं को पर्वत माना जाएगा, जिनकी ढलान तीन डिग्री से ज्यादा हो, ऊंचाई 100 मीटर के ऊपर हो और दो पहाड़ियों के बीच की दूरी 500 मीटर हो। हालांकि, कई ऊंची पहाड़ियां भी इन मानकों पर खरी नहीं उतरती थीं। इस विसंगति को दूर करने के लिए, सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय, FSI, राज्यों के वन विभाग, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) और अपनी समिति के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक नई समिति का गठन किया। इस समिति को अरावली की एक स्पष्ट परिभाषा तय करने की जिम्मेदारी दी गई।

आखिरकार, 2025 में इस समिति ने सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी। 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अब सिर्फ 100 मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वत शृंखला का हिस्सा माना जाएगा। इस फैसले पर कोर्ट द्वारा नियुक्त एमिकस क्यूरी के और परमेश्वर ने आपत्ति जताई, यह तर्क देते हुए कि यह परिभाषा बहुत संकीर्ण है और 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली सभी पहाड़ियां खनन के लिए योग्य हो जाएंगी, जिससे पूरी शृंखला पर नकारात्मक असर पड़ेगा। हालांकि, अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी ने इस तर्क का खंडन करते हुए कहा कि FSI के पुराने मानक अरावली के और भी। बड़े क्षेत्र को पर्वत की परिभाषा से बाहर करते थे, इसलिए समिति द्वारा प्रस्तावित 100 मीटर की ऊंचाई का तर्क काफी बेहतर है। इन सभी तर्कों को सुनने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने अरावली पर्वत शृंखला पर एक बेहतर प्रबंधन योजना तैयार करने के निर्देश जारी किए, जिसके तहत खनन के लिए पूरी तरह प्रतिबंधित क्षेत्रों और सीमित खनन वाले क्षेत्रों की पहचान की जाएगी।

नए मानकों का संभावित प्रभाव

यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित ये नए मानक लागू होते हैं, तो अरावली के एक बड़े हिस्से पर इसका गहरा असर पड़ेगा। अरावली के कुल 670 किलोमीटर के दायरे में से लगभग 550 किलोमीटर का क्षेत्र राजस्थान में आता है। विशेषज्ञों का कहना है कि अरावली केवल ऊंचाई का विषय नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र है। सरकारी और तकनीकी अध्ययनों के अनुसार, राजस्थान में मौजूद अरावली की लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां 100 मीटर की ऊंचाई की शर्त पूरी नहीं करतीं। इसका सीधा अर्थ यह है कि राज्य की केवल 8 से 10 प्रतिशत पहाड़ियां ही कानूनी रूप से 'अरावली' मानी जाएंगी, जबकि शेष लगभग 90 प्रतिशत पहाड़ियां संरक्षण कानूनों के दायरे से बाहर हो सकती हैं। पर्यावरणविदों का मानना है कि यह लड़ाई केवल अदालत या सरकार तक सीमित नहीं है, बल्कि समाज की साझा जिम्मेदारी है और अरावली का नुकसान स्थायी हो सकता है, क्योंकि एक बार पहाड़ कटे और जलधाराएं टूटीं तो उन्हें वापस लाने में सदियां लग जाती हैं। इसी कारण जनजागरण और सवाल उठाना आज भविष्य को सुरक्षित करने की जरूरत बन गया है।

सरकारी अधिकारियों की राय

इस मामले पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (GSI) के पूर्व महानिदेशक दिनेश गुप्ता ने अपनी राय व्यक्त की। उन्होंने बताया कि साल 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने अरावली में खनन गतिविधियों की सीमा निर्धारण को लेकर जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की एक कमेटी बनाई थी, जिसके वे स्वयं सदस्य थे और गुप्ता के अनुसार, 2008 में कमेटी ने सुप्रीम कोर्ट को रिपोर्ट दी थी कि अरावली में 100 मीटर कंटूर लेवल को 'नॉन-अरावली' माना जाए, और बाकी को अरावली का हिस्सा। सुप्रीम कोर्ट ने इस रिपोर्ट को स्वीकार भी किया था, लेकिन पर्यावरण कार्यकर्ताओं के विरोध के चलते यह मामला आगे नहीं बढ़ पाया। उन्होंने यह भी कहा कि इस मामले में आ रहे बयान बहकाने वाले हैं और ऐसा नहीं है कि अरावली पर खनन होने से रेगिस्तान को बढ़ावा मिलेगा, क्योंकि रेगिस्तान के बढ़ने के कई दूसरे कारण होते हैं।

राजनीतिक गलियारों में हलचल

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद यह मुद्दा पर्यावरणविदों से लेकर विपक्षी दलों तक एक बड़ी मुहिम का रूप ले चुका है। 'सेव अरावली' कैंपेन देश भर में शुरू हो चुका है,। जिसकी अगुवाई राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कर रहे हैं। गहलोत ने गहरी चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि जब अरावली के रहते हुए स्थिति इतनी गंभीर है, तो अरावली के बिना स्थिति कितनी वीभत्स होगी, इसकी कल्पना भी डरावनी है। उन्होंने अरावली को जल संरक्षण का मुख्य आधार बताते हुए कहा कि इसकी चट्टानें बारिश के पानी को जमीन के भीतर भेजकर भूजल रिचार्ज करती हैं। अगर पहाड़ खत्म हुए, तो भविष्य में पीने के पानी की गंभीर किल्लत होगी, वन्यजीव लुप्त हो जाएंगे और पूरी इकोलॉजी खतरे में पड़ जाएगी। गहलोत ने वैज्ञानिक दृष्टि से अरावली को एक निरंतर शृंखला बताया और कहा। कि इसकी छोटी पहाड़ियां भी उतनी ही अहम हैं जितनी कि बड़ी चोटियां।

उन्होंने आगाह किया कि अगर दीवार में एक भी ईंट कम हुई, तो सुरक्षा टूट जाएगी। गहलोत ने अरावली को प्रकृति की बनाई हुई 'ग्रीन वॉल' बताते हुए कहा कि यह थार रेगिस्तान की रेत और गर्म हवाओं (लू) को दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उपजाऊ मैदानों की ओर बढ़ने से रोकती है। यदि 'गैपिंग एरिया' या छोटी पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया गया, तो रेगिस्तान हमारे दरवाज़े तक आ जाएगा और तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि होगी। उन्होंने यह भी जोड़ा कि ये पहाड़ियां और यहां के जंगल एनसीआर और आसपास के शहरों के लिए फेफड़ों का काम करते हैं, धूल भरी आंधियों को रोकते हैं और प्रदूषण कम करने में अहम भूमिका निभाते हैं। दूसरी तरफ, भाजपा इस मुद्दे को लेकर कांग्रेस पर सियासत करने के आरोप लगा रही है। अलवर से भाजपा सांसद और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव ने एक कार्यक्रम में कहा कि अशोक गहलोत के कार्यकाल में वर्ष 2002 में 1968 की लैंड रिफॉर्म रिपोर्ट पेश की गई थी और अब वे इस मामले में ज्ञापन दे रहे हैं।

भाजपा नेता राजेंद्र राठौड़ का बयान

इस बीच, कुछ भाजपा नेताओं ने भी अब सरकार की मंशा पर सवाल खड़े कर दिए हैं। राजस्थान में भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने बयान दिया है कि सरकार को अरावली के मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिव्यू पिटिशन दायर करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि अरावली की परिभाषा को केवल ऊंचाई के तकनीकी पैमाने तक सीमित न किया जाए,। क्योंकि निचली पहाड़ियां, रिज संरचनाएं और जुड़े हुए भू-भाग भी पारिस्थितिक रूप से उतने ही महत्वपूर्ण हैं। राठौड़ ने चेतावनी दी कि यदि कानूनी मान्यता का दायरा बहुत संकीर्ण हो गया तो संरक्षण के प्रयास कमजोर पड़ सकते हैं और पिछले तीन दशकों में बनी पर्यावरणीय सुरक्षा व्यवस्था प्रभावित हो सकती है, इसलिए सरकार को पुनर्विचार याचिका डालनी चाहिए। यह पूरा मामला अब एक बड़े पर्यावरणीय और राजनीतिक बहस। का विषय बन गया है, जिसके दूरगामी परिणाम हो सकते हैं।