विशेष / दुर्गा भाभी : वह लौह महिला, जिसने अंग्रेजों की नींद हराम कर दी थी

Zoom News : Oct 08, 2019, 07:00 AM
भारतीय क्रान्तिकारी इतिहास की स्मृतियों में दुर्गा भाभी अर्थात दुर्गावती देवी का जिक्र नहीं होगा तो यह इतिहास की पुस्तकों के साथ नाइंसाफी होगी। लौह महिला! सियासत ने यह खिताब किसी को दिया होगा, लेकिन बिना सरकारी घोषणा के यह अलंकरण दुर्गा भाभी के नाम किया जाए तो गलत नहीं होगा। आज उनकी जयंती है। 
मात्र 11 साल की उम्र में भगवतीचरण बोहरा के साथ लाहौर में ब्याही गई दुर्गावती देवी को क्रान्तिकारियों ने दुर्गा भाभी कहना शुरू किया और वही उनकी पहचान बन गया। वह देश की उन कुछ महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं जिन्होंने सत्तारूढ़ ब्रिटिश राज के खिलाफ सशस्त्र क्रांति में सक्रिय रूप से भाग लिया था। 

भगतसिंह की पत्नी का किरदार 
सांडर्स की हत्या के बाद भगतसिंह को अंग्रेज लाहौर में ढूंढ रहे थे। परन्तु सुखदेव और भगतसिंह इन्हीं दुर्गा भाभी की मदद से लाहौर से निकल पाए। सॉन्डर्स को मारने के दो दिन बाद, 19 दिसंबर 1928 को, सुखदेव ने देवी को मदद के लिए बुलाया, जो वह करने के लिए तैयार हो गई। उन्होंने अगली सुबह तड़के लाहौर से बठिंडा के रास्ते हावड़ा (कलकत्ता) जाने के लिए ट्रेन पकड़ने का फैसला किया। उसने भगत सिंह की पत्नी के रूप में पेश किया और अपने बेटे सचिन्द्र को अपनी गोद में ले लिया, जबकि राजगुरु ने उनके सामान को अपने नौकर के रूप में रखा। इससे पहले जब नौजवान भारत सभा ने 16 नवंबर 1926 को लाहौर में करतार सिंह सराभा की शहादत की 11 वीं वर्षगांठ मनाने का फैसला किया। तो दुर्गा भाभी ने सक्रिय रूप से इसमें शिरकत की। 

जतिन दास का अंतिम संस्कार 
महिलाएं अंतिम संस्कार में शामिल नहीं हुआ करती थी। उस जमाने में तो यह बहुत ही बड़ा मुश्किल था। परन्तु 63 दिनों की जेल की भूख हड़ताल में जतिन दास की मृत्यु के बाद उन्होंने लाहौर से कलकत्ता तक जतिंद्र नाथ दास के अंतिम संस्कार का नेतृत्व किया। पूरे रास्ते, अंतिम संस्कार जुलूस में भारी भीड़ शामिल हुई।

लॉर्ड हैली की हत्या का प्रयास
1929 में विधानसभा में बम फेंकने की घटना के बाद भगत सिंह द्वारा आत्मसमर्पण करने के बाद। दुर्गा भाभी ने लॉर्ड हैली की हत्या करने का प्रयास किया परन्तु वह बच गया। उसके कई साथियों की मौत हो गई। पुलिस ने पकड़ लिया और तीन साल की कैद हुई। उसने अपने गहने और रुपए भी भगतसिंह तथा उनके साथियों को बचाने के लिए मुकदमे पर खर्च किए। इससे पहले उन्होंने अपने पति के साथ दिल्ली के कुतुब रोड में 'हिमालयन टॉयलेट्स' (बम बनाने का एजेंडा छिपाने के लिए एक स्मोकस्क्रीन) नाम से एक बम फैक्ट्री चलाने में एचएसआरए के सदस्य विमल प्रसाद जैन की मदद की। इस कारखाने में, उन्होंने पिकरिक एसिड, नाइट्रोग्लिसरीन और मर्करी की पूर्ति वे करती थी। 

आजादी के बाद गुमनाम
आजादी के बाद भारत के अन्य क्रांतिकारियों की तरह उन्होंने भी गुमनाम जीवन जीया। उन्होंने एक आम नागरिक के रूप में गाजियाबाद में रहना शुरू कर दिया। बाद में उन्होंने लखनऊ में गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल खोला। 15 अक्टूबर 1999 को 92 साल की उम्र में गाजियाबाद में दुर्गा का निधन हो गया। उनके चरित्र का एक छोटा सा अंश राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 2006 की फ़िल्म 'रंग दे बसंती' में देखा गया था, जहाँ सोहा अली खान ने उनकी भूमिका निभाई थी। देश के लिए सब कुछ न्यौछावर करने वाली ऐसी महान शख्सियत को वह मुकाम हासिल नहीं हो पाया, जिसे वे डिजर्व करती थीं, लेकिन उन्होंने इस बात का कभी न तो अफसोस जताया और न ही कभी अपेक्षा ही की।

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