- भारत,
- 17-Aug-2019 11:41 AM IST
- (, अपडेटेड 17-Aug-2019 12:20 PM IST)
देश में पहली बार किसी मंदिर के प्रसाद को जीआई टैग मिला है। मिजोरम के खास दो वस्त्रों और केरल के पान के पत्ते को भी इसमें शामिल किया गया हैं। जीआई टैग क्या है और उससे क्या फायदे हैं। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि चाय, चावल और यहां तक कि एक तरह के मुर्गे को भी देश में जीआई टैग मिल चुका है। हालांकि जगन्नाथपुरी मंदिर के प्रसाद रसगुल्ले को लेकर प. बंगाल और उड़ीसा में पहले कानूनी लड़ाई हो चुकी है। जीआई टैग राजस्थान में कोटा की डोरिया साड़ी और बीकानेरी भुजिया को भी मिल चुका है।
उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग ने हाल ही में 4 नये भौगोलिक संकेतकों (जीआई) को पंजीकृत किया है। तमिलनाडु राज्य के डिंडीगुल जिले के पलानी शहर के पलानीपंचामिर्थम, मिजोरम राज्य के तल्लोहपुआन एवं मिजोपुआनचेई और केरल के तिरुर के पान के पत्ते को पंजीकृत जीआई की सूची में शामिल किया गया है।
जीआई टैग या पहचान उन उत्पादों को दी जाती है जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में ही पाए जाते हैं और उनमें वहां की स्थानीय खूबियां अंतर्निहित होती हैं। दरअसल जीआई टैग लगे किसी उत्पाद को खरीदते वक्त ग्राहक उसकी विशिष्टता एवं गुणवत्ता को लेकर आश्वस्त रहते हैं।
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के पलानी शहर की पलानी पहाडि़यों में अवस्थित अरुल्मिगु धान्दयुथापनी स्वामी मंदिर के पीठासीन देवता भगवानधान्दयुथापनी स्वामीके अभिषेक से जुड़े प्रसाद को पलानीपंचामिर्थम कहते हैं। इस अत्यंत पावन प्रसाद को एक निश्चित अनुपात में पांच प्राकृतिक पदार्थों यथा केले, गुड़-चीनी, गाय के घी, शहद और इलायची को मिलाकर बनाया जाता है।पहली बार तमिलनाडु के किसी मंदिर के प्रसादम को जीआई टैग दिया गया है।
तवलोहपुआन मिजोरम का एक भारी, अत्यंत मजबूत एवं उत्कृष्ट वस्त्र है जो तने हुए धागे, बुनाई और जटिल डिजाइन के लिए जाना जाता है। इसे हाथ से बुना जाता है। मिजो भाषा में तवलोह का मतलब एक ऐसी मजबूत चीज होती है जिसे पीछे नहीं खींचा जा सकता है। मिजो समाज में तवलोहपुआन का विशेष महत्व है और इसे पूरे मिजोरम राज्य में तैयार किया जात है। आइजोल और थेनजोल शहर इसके उत्पादन के मुख्य केंद्र हैं।
मिजोपुआनचेई मिजोरम का एक रंगीन मिजो शॉल/ वस्त्र है जिसे मिजो वस्त्रों में सबसे रंगीन वस्त्र माना जाता है। मिजोरम की प्रत्येक महिला का यह एक अनिवार्य वस्त्र है और यह इस राज्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण शादी की पोशाक है। मिजोरम में मनाये जाने वाले उत्सव के दौरान होने वाले नृत्य और औपचारिक समारोह में आम तौर पर इस पोशाक का ही उपयोग किया जाता है।
केरल के तिरुर के पान के पत्ते की खेती मुख्यत:तिरुर, तनूर, तिरुरांगडी, कुट्टिपुरम, मलप्पुरम और मलप्पुरम जिले के वेंगारा प्रखंड की पंचायतों में की जाती है। इसके सेवन से अच्छे स्वाद का अहसास होता है और इसके साथ ही इसमें औषधीय गुण भी हैं। आम तौर पर इसका उपयोग पान मसाला बनाने में किया जाता है और इसके कई औषधीय, सांस्कृतिक एवं औद्योगिक उपयोग भी हैं।
जीआई टैग वाले उत्पादों से दूरदराज के क्षेत्रों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था लाभान्वित होती है, क्योंकि इससे कारीगरों, किसानों, शिल्पकारों और बुनकरों की आमदनी बढ़ती है।
GI टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग
भारतीय संसद ने 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत 'जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स' लागू किया था, इस आधार पर भारत के किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाली विशिष्ट वस्तु का कानूनी अधिकार उस राज्य को दे दिया जाता है।
बनारसी साड़ी, मैसूर सिल्क, कोल्हापुरी चप्पल, दार्जिलिंग चाय इसी कानून के तहत संरक्षित हैं.जैसा कि नाम से स्पष्ट है, जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग्स का काम उस खास भौगोलिक परिस्थिति में पाई जाने वाली वस्तुओं के दूसरे स्थानों पर गैर-कानूनी प्रयोग को रोकना है.किसको मिलता है GI?
किसी भी वस्तु को GI टैग देने से पहले उसकी गुणवत्ता, क्वालिटी और पैदावार की अच्छे से जांच की जाती है. यह तय किया जाता है कि उस खास वस्तु की सबसे अधिक और ओरिजिनल पैदावार निर्धारित राज्य की ही है। इसके साथ ही यह भी तय किए जाना जरूरी होता है कि भौगोलिक स्थिति का उस वस्तु की पैदावार में कितना हाथ है. कई बार किसी खास वस्तु की पैदावार एक विशेष स्थान पर ही संभव होती है. इसके लिए वहां की जलवायु से लेकर उसे आखिरी स्वरूप देने वाले कारीगरों तक का हाथ होता है।भारत में GI टैग्स किसी खास फसल, प्राकृतिक और निर्मित सामानों को दिए जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि एक से अधिक राज्यों में बराबर रूप से पाई जाने वाली फसल या किसी प्राकृतिक वस्तु को उन सभी राज्यों का मिला-जुला GI टैग दिया जाए। यह बासमती चावल के साथ हुआ है। बासमती चावल पर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों का अधिकार है।
GI के अधिकार हासिल करने के लिए चेन्नई स्थित GI-डेटाबेस में अप्लाई करना पड़ता है। इसके अधिकार व्यक्तियों, उत्पादकों और संस्थाओं को दिए जा सकते हैं एक बार रजिस्ट्री हो जाने के बाद 10 सालों तक यह GI टैग मान्य होते हैं, जिसके बाद इन्हें फिर रिन्यू करवाना पड़ता है। पहला GI टैग साल 2004 में दार्जिलिंग चाय को दिया गया था।
कड़कनाथ मुर्गे को मिलाकर भारत में अभी तक 272 वस्तुओं को GI टैग दिया गया है. ये लिस्ट हर दो सालों अपडेट की जाती है। 2016 से अबतक इस लिस्ट में 12 वस्तुएं शामिल की गईं जिनमें उत्तराखंड की तेजपात, सोलापुर के अनार और कश्मीर की हाथ से बुनी गई कारपेट शामिल है। कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जिसके पास सबसे अधिक 40 वस्तुओं के GI अधिकार हैं।
रसगुल्लों पर भी हुआ था GI का विवादरसगुल्लों की मिठास से शायद ही कोई अछूता रहा हो लेकिन यह मिठास पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच खटास का कारण बन गई थी। ये दोनों राज्य साल 2015 से इस विवाद में थे कि रसगुल्लों का GI टैग उनके प्रदेश को दिया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि रसगुल्ले को सबसे पहले नोबिन चंद्र दास नाम के हलवाई ने 1860 के दशक में बनाया था, वहीं ओडिशा का कहना है कि 12वीं शताब्दी से जगन्नाथ पुरी मंदिर में भोग लगाने के लिए रसगुल्लों का प्रयोग किया जाता था।बंगाल की अमानत हैं रसगुल्ले
आखिरकार 2 सालों की इस कानूनी लड़ाई में जीत हुई थी पश्चिम बंगाल की। पश्चिम बंगाल में बनने वाले रसगुल्लों को अन्य प्रदेशों के रसगुल्लों से नरम और स्वादिष्ट मानते हुए रसगुल्लों का GI अधिकार दिया गया।मुर्गों के लिए दो राज्य लड़ बैठे
पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच रसगुल्ले की लड़ाई के बाद जीआई टैग के लिए एक दिलचस्प लड़ाई छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बीच हुई। आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में मुर्गा लड़ाई के कई नजारे आपने देखे होंगे। ये दो राज्य कड़कनाथ नामक मुर्गे की प्रजाति को लेकर आपस में दावे प्रस्तुत कर लड़ बैठै। पिछले साल कड़कनाथ का जीआई टैग मध्यप्रदेश को मिला। GI टैग्स के फायदे
GI टैग मिलने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में उस वस्तु की कीमत और उसका महत्व बढ़ जाता है. इस वजह से इसका एक्सपोर्ट बढ़ जाता है. साथ ही देश-विदेश से लोग एक खास जगह पर उस विशिष्ट सामान को खरीदने आते हैं. इस कारण टूरिज्म भी बढ़ता है। किसी भी राज्य में ये विशिष्ट वस्तुएं उगाने या बनाने वाले किसान और कारीगर गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं। GI टैग मिल जाने से बढ़ी हुई एक्सपोर्ट और टूरिज्म की संभावनाएं इन किसानों और कारीगरों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाती हैं।पेटेंट क्या हैं?
पेटेंट का मतलब किसी व्यक्ति द्वारा खोजे, बनाए या पैदा किए गए किसी खास उत्पाद के उपयोग, प्रयोग और उत्पादन के कानूनी अधिकार. इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (IPR) के तहत तीन कैटेगरीज में पेटेंट के लिए अप्लाई किया जा सकता है।
यूटिलिटी पेटेंट: यह सबसे आम किस्म का पेटेंट होता है. जब आप कोई नया सॉफ्टवेयर, दवाई, केमिकल या किसी भी तरह से उपयोग की जाने वाली वस्तु बनाते हैं, ये यूटिलिटी पेटेंट के अंतर्गत आता है।
प्लांट पेटेंट: किसी खास किस्म का पौधा उगाना, चाहे वो फसल के लिए हो या हाइब्रिड पौधा हो, उसके उत्पादन के कानूनी अधिकारों के लिए प्लांट पेटेंट दिया जाता है।
डिजाईन पेटेंट: चाहे घर की हो. कार की या किसी अन्य वस्तु की, डिजाईन को कानूनी रूप से प्रयोग करने के लिए डिजाईन पेटेंट दिया जाता है।
GI टैग्स भी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (IPR) का हिस्सा हैं जो पेटेंट्स से मिलते-जुलते ही हैं. जहां GI टैग किसी भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर दिए जाते हैं, पेटेंट नई खोज और आविष्कारों को बचाए रखने का जरिया हैं।
उद्योग एवं आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग ने हाल ही में 4 नये भौगोलिक संकेतकों (जीआई) को पंजीकृत किया है। तमिलनाडु राज्य के डिंडीगुल जिले के पलानी शहर के पलानीपंचामिर्थम, मिजोरम राज्य के तल्लोहपुआन एवं मिजोपुआनचेई और केरल के तिरुर के पान के पत्ते को पंजीकृत जीआई की सूची में शामिल किया गया है।
जीआई टैग या पहचान उन उत्पादों को दी जाती है जो किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र में ही पाए जाते हैं और उनमें वहां की स्थानीय खूबियां अंतर्निहित होती हैं। दरअसल जीआई टैग लगे किसी उत्पाद को खरीदते वक्त ग्राहक उसकी विशिष्टता एवं गुणवत्ता को लेकर आश्वस्त रहते हैं।
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले के पलानी शहर की पलानी पहाडि़यों में अवस्थित अरुल्मिगु धान्दयुथापनी स्वामी मंदिर के पीठासीन देवता भगवानधान्दयुथापनी स्वामीके अभिषेक से जुड़े प्रसाद को पलानीपंचामिर्थम कहते हैं। इस अत्यंत पावन प्रसाद को एक निश्चित अनुपात में पांच प्राकृतिक पदार्थों यथा केले, गुड़-चीनी, गाय के घी, शहद और इलायची को मिलाकर बनाया जाता है।पहली बार तमिलनाडु के किसी मंदिर के प्रसादम को जीआई टैग दिया गया है।
तवलोहपुआन मिजोरम का एक भारी, अत्यंत मजबूत एवं उत्कृष्ट वस्त्र है जो तने हुए धागे, बुनाई और जटिल डिजाइन के लिए जाना जाता है। इसे हाथ से बुना जाता है। मिजो भाषा में तवलोह का मतलब एक ऐसी मजबूत चीज होती है जिसे पीछे नहीं खींचा जा सकता है। मिजो समाज में तवलोहपुआन का विशेष महत्व है और इसे पूरे मिजोरम राज्य में तैयार किया जात है। आइजोल और थेनजोल शहर इसके उत्पादन के मुख्य केंद्र हैं।
मिजोपुआनचेई मिजोरम का एक रंगीन मिजो शॉल/ वस्त्र है जिसे मिजो वस्त्रों में सबसे रंगीन वस्त्र माना जाता है। मिजोरम की प्रत्येक महिला का यह एक अनिवार्य वस्त्र है और यह इस राज्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण शादी की पोशाक है। मिजोरम में मनाये जाने वाले उत्सव के दौरान होने वाले नृत्य और औपचारिक समारोह में आम तौर पर इस पोशाक का ही उपयोग किया जाता है।
केरल के तिरुर के पान के पत्ते की खेती मुख्यत:तिरुर, तनूर, तिरुरांगडी, कुट्टिपुरम, मलप्पुरम और मलप्पुरम जिले के वेंगारा प्रखंड की पंचायतों में की जाती है। इसके सेवन से अच्छे स्वाद का अहसास होता है और इसके साथ ही इसमें औषधीय गुण भी हैं। आम तौर पर इसका उपयोग पान मसाला बनाने में किया जाता है और इसके कई औषधीय, सांस्कृतिक एवं औद्योगिक उपयोग भी हैं।
जीआई टैग वाले उत्पादों से दूरदराज के क्षेत्रों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था लाभान्वित होती है, क्योंकि इससे कारीगरों, किसानों, शिल्पकारों और बुनकरों की आमदनी बढ़ती है।
GI टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग
भारतीय संसद ने 1999 में रजिस्ट्रेशन एंड प्रोटेक्शन एक्ट के तहत 'जियोग्राफिकल इंडिकेशंस ऑफ गुड्स' लागू किया था, इस आधार पर भारत के किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाली विशिष्ट वस्तु का कानूनी अधिकार उस राज्य को दे दिया जाता है।
बनारसी साड़ी, मैसूर सिल्क, कोल्हापुरी चप्पल, दार्जिलिंग चाय इसी कानून के तहत संरक्षित हैं.जैसा कि नाम से स्पष्ट है, जियोग्राफिकल इंडिकेशंस टैग्स का काम उस खास भौगोलिक परिस्थिति में पाई जाने वाली वस्तुओं के दूसरे स्थानों पर गैर-कानूनी प्रयोग को रोकना है.किसको मिलता है GI?
किसी भी वस्तु को GI टैग देने से पहले उसकी गुणवत्ता, क्वालिटी और पैदावार की अच्छे से जांच की जाती है. यह तय किया जाता है कि उस खास वस्तु की सबसे अधिक और ओरिजिनल पैदावार निर्धारित राज्य की ही है। इसके साथ ही यह भी तय किए जाना जरूरी होता है कि भौगोलिक स्थिति का उस वस्तु की पैदावार में कितना हाथ है. कई बार किसी खास वस्तु की पैदावार एक विशेष स्थान पर ही संभव होती है. इसके लिए वहां की जलवायु से लेकर उसे आखिरी स्वरूप देने वाले कारीगरों तक का हाथ होता है।भारत में GI टैग्स किसी खास फसल, प्राकृतिक और निर्मित सामानों को दिए जाता है। कई बार ऐसा भी होता है कि एक से अधिक राज्यों में बराबर रूप से पाई जाने वाली फसल या किसी प्राकृतिक वस्तु को उन सभी राज्यों का मिला-जुला GI टैग दिया जाए। यह बासमती चावल के साथ हुआ है। बासमती चावल पर पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों का अधिकार है।
GI के अधिकार हासिल करने के लिए चेन्नई स्थित GI-डेटाबेस में अप्लाई करना पड़ता है। इसके अधिकार व्यक्तियों, उत्पादकों और संस्थाओं को दिए जा सकते हैं एक बार रजिस्ट्री हो जाने के बाद 10 सालों तक यह GI टैग मान्य होते हैं, जिसके बाद इन्हें फिर रिन्यू करवाना पड़ता है। पहला GI टैग साल 2004 में दार्जिलिंग चाय को दिया गया था।
कड़कनाथ मुर्गे को मिलाकर भारत में अभी तक 272 वस्तुओं को GI टैग दिया गया है. ये लिस्ट हर दो सालों अपडेट की जाती है। 2016 से अबतक इस लिस्ट में 12 वस्तुएं शामिल की गईं जिनमें उत्तराखंड की तेजपात, सोलापुर के अनार और कश्मीर की हाथ से बुनी गई कारपेट शामिल है। कर्नाटक एक ऐसा राज्य है जिसके पास सबसे अधिक 40 वस्तुओं के GI अधिकार हैं।
रसगुल्लों पर भी हुआ था GI का विवादरसगुल्लों की मिठास से शायद ही कोई अछूता रहा हो लेकिन यह मिठास पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच खटास का कारण बन गई थी। ये दोनों राज्य साल 2015 से इस विवाद में थे कि रसगुल्लों का GI टैग उनके प्रदेश को दिया जाना चाहिए। पश्चिम बंगाल ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था कि रसगुल्ले को सबसे पहले नोबिन चंद्र दास नाम के हलवाई ने 1860 के दशक में बनाया था, वहीं ओडिशा का कहना है कि 12वीं शताब्दी से जगन्नाथ पुरी मंदिर में भोग लगाने के लिए रसगुल्लों का प्रयोग किया जाता था।बंगाल की अमानत हैं रसगुल्ले
आखिरकार 2 सालों की इस कानूनी लड़ाई में जीत हुई थी पश्चिम बंगाल की। पश्चिम बंगाल में बनने वाले रसगुल्लों को अन्य प्रदेशों के रसगुल्लों से नरम और स्वादिष्ट मानते हुए रसगुल्लों का GI अधिकार दिया गया।मुर्गों के लिए दो राज्य लड़ बैठे
पश्चिम बंगाल और ओडिशा के बीच रसगुल्ले की लड़ाई के बाद जीआई टैग के लिए एक दिलचस्प लड़ाई छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के बीच हुई। आमतौर पर ग्रामीण इलाकों में मुर्गा लड़ाई के कई नजारे आपने देखे होंगे। ये दो राज्य कड़कनाथ नामक मुर्गे की प्रजाति को लेकर आपस में दावे प्रस्तुत कर लड़ बैठै। पिछले साल कड़कनाथ का जीआई टैग मध्यप्रदेश को मिला। GI टैग्स के फायदे
GI टैग मिलने के बाद अंतर्राष्ट्रीय मार्केट में उस वस्तु की कीमत और उसका महत्व बढ़ जाता है. इस वजह से इसका एक्सपोर्ट बढ़ जाता है. साथ ही देश-विदेश से लोग एक खास जगह पर उस विशिष्ट सामान को खरीदने आते हैं. इस कारण टूरिज्म भी बढ़ता है। किसी भी राज्य में ये विशिष्ट वस्तुएं उगाने या बनाने वाले किसान और कारीगर गरीबी की रेखा के नीचे आते हैं। GI टैग मिल जाने से बढ़ी हुई एक्सपोर्ट और टूरिज्म की संभावनाएं इन किसानों और कारीगरों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाती हैं।पेटेंट क्या हैं?
पेटेंट का मतलब किसी व्यक्ति द्वारा खोजे, बनाए या पैदा किए गए किसी खास उत्पाद के उपयोग, प्रयोग और उत्पादन के कानूनी अधिकार. इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (IPR) के तहत तीन कैटेगरीज में पेटेंट के लिए अप्लाई किया जा सकता है।
यूटिलिटी पेटेंट: यह सबसे आम किस्म का पेटेंट होता है. जब आप कोई नया सॉफ्टवेयर, दवाई, केमिकल या किसी भी तरह से उपयोग की जाने वाली वस्तु बनाते हैं, ये यूटिलिटी पेटेंट के अंतर्गत आता है।
प्लांट पेटेंट: किसी खास किस्म का पौधा उगाना, चाहे वो फसल के लिए हो या हाइब्रिड पौधा हो, उसके उत्पादन के कानूनी अधिकारों के लिए प्लांट पेटेंट दिया जाता है।
डिजाईन पेटेंट: चाहे घर की हो. कार की या किसी अन्य वस्तु की, डिजाईन को कानूनी रूप से प्रयोग करने के लिए डिजाईन पेटेंट दिया जाता है।
GI टैग्स भी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स (IPR) का हिस्सा हैं जो पेटेंट्स से मिलते-जुलते ही हैं. जहां GI टैग किसी भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर दिए जाते हैं, पेटेंट नई खोज और आविष्कारों को बचाए रखने का जरिया हैं।
