विचित्र / सदियों से चली आ रही है परंपरा यहाँ आज भी पत्थर के सिक्के चलते है

AMAR UJALA : Dec 10, 2019, 03:55 PM
इंसान सदियों से करेंसी यानी मुद्रा का इस्तेमाल खरीद-फरोख्त और कारोबार के लिए करता आया है। एक दौर था जब महंगे रत्नों में कारोबार हुआ करता था। लोग मोती, कौड़ियां और दूसरे रत्न देकर चीजें खरीदा करते थे। फिर सिक्कों का चलन शुरू हुआ। सोने-चांदी, तांबे, कांसे और अल्यूमिनियम के सिक्के तमाम साम्राज्यों और सभ्यताओं में ढाले गए। सिक्कों के साथ ही नोटों का चलन भी शुरू हुआ। पर, क्या कभी आपने करेंसी के रूप में बड़े-बड़े पत्थरों के इस्तेमाल की बात सुनी है? नहीं न! तो, चलिए आज आप को ऐसी जगह की सैर पर ले चलते हैं, जहां की करेंसी पत्थर है और सदियों से ऐसा होता आ रहा है।

इसके लिए आप को प्रशांत महासागर के माइक्रोनेशिया इलाके में जाना पड़ेगा। यहां पर बहुत छोटे-छोटे जजीरे आबाद हैं। इन्हीं में से एक द्वीप है यप। ये छोटी सी जगह है, जहां कुल मिलाकर 11 हजार लोग रहते हैं। मगर इसकी शोहरत ऐसी है कि 11वीं सदी में मिस्र के एक राजा के हवाले से यप का जिक्र मिलता है। इसी तरह मशहूर यूरोपीय यात्री मार्को पोलो ने तेरहवीं सदी में लिखी अपनी एक किताब में इसका जिक्र किया है। इन दोनों ही मिसालों में कहीं भी यप का नाम नही लिखा है। मगर दोनों साहित्यों में एक ऐसी जगह का जिक्र है, जहां की करेंसी पत्थर हुआ करती थी।

जब आप यप पहुंचेंगे, तो आपका सामना घने जंगलों, दलदले बागों और बेहद पुराने दौर के हालात से होगा। दिन भर में सिर्फ एक फ्लाइट है, जो यप के छोटे से हवाई अड्डे पर उतरती है। हवाई अड्डे से बाहर निकलते ही आप को कतार से लगे छोटे-बड़े ढले हुए पत्थर दिखेंगे। इनके बीच मे छेद होता है, ताकि इन्हें कहीं लाने-ले जाने में सहूलियत हो। पूरे यप द्वीप पर ऐसे छोटे-बड़े पत्थर जहां-तहां पड़े दिख जाते हैं। 

यप द्वीप की मिट्टी दलदली है। यहां चट्टानें नहीं हैं। फिर भी पत्थर की इस करेंसी का चलन यहां सदियों से है। किसी को नहीं पता कि इसकी शुरुआत कब हुई थी। लेकिन, स्थानीय लोग बताते हैं कि आज से सैकड़ों साल पहले यप के बाशिंदे डोंगियों में बैठकर चार सौ किलोमीटर दूर स्थित पलाऊ द्वीप जाया करते थे। वहां से वो चट्टानें काटकर ये पत्थर तराशा करते थे। फिर इन्हें नावों में लाद कर यहां यप लाया जाता था। इन्हें राई कहा जाता है। पिछली कई सदियों से इन पत्थरों को करेंसी के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। पहले यप के आदिवासी इन पत्थरों को बड़े बेढंगे तरीके से काटकर यहां लाते थे। फिर हथियारों के विकास से पत्थरों को सुघड़ तरीके से ढालकर यहां लाया जाने लगा। 

उन्नीसवीं सदी में जब यप पर स्पेन का कब्जा हो गया, तब भी यहां पर पत्थरों से कारोबार थमा नहीं। जब पलाऊ जाने वाले नाविक अपने साथ ढले हुए पत्थर लाते थे, तो वो इन्हें यप के बड़े सरदारों को सौंप देते थे। फिर वो सरदार इन पत्थरों को अपना या अपने परिवार के किसी सदस्य का नाम देकर लाने वाले को सौंप देते थे। पांच में से दो पत्थर ये सरदार खुद रखते थे और तीन पत्थर लाने वाले को दे दिये जाते थे।

आज इन पत्थरों की करेंसी का इस्तेमाल रोजाना के लेन-देन में नहीं होता। बल्कि समाज में इसे कभी माफीनामे और कभी शादी-संबंध को मजबूत करने के लिए दिया जाता है। पत्थर के इन सिक्कों का आकार सात सेंटीमीटर से लेकर 3.6 मीटर तक होता है। इन सिक्कों का मोल इस बात पर निर्भर करता है कि वो किस काम में इस्तेमाल होता है और किसको दिया जाता है। कबीले के सरदार, आने वाली नस्लों को पत्थर के हर सिक्के का इतिहास बताते हैं। 

यहां पिछले 200 सालों से पत्थर की इन करेंसी का इतिहास आने वाली नस्लों को जबानी याद कराया जा रहा है। अब पत्थर के इन सिक्कों को एक म्यूजियम में रखा गया है। जहां टूटे-फूटे पत्थर की इन करेंसी का भी इतिहास दर्ज किया गया है। ये किस गांव के हैं, इनका किस परिवार से नाता है। 

अब भी कुछ नए पत्थर के सिक्के ढाले जा रहे हैं। मगर अब इनकी तादाद बहुत कम हो गई है। दिलचस्प बात ये है कि इन बहुमूल्य सिक्कों को चुराए जाने का डर नहीं है। जैसा कि नोटों या सिक्कों के साथ हो सकता है। ये इतने बड़े हैं और सब को इनके बारे में मालूम है, तो कोई इन्हें चुराकर ले भी कहां जा सकता है। आज पत्थर की ये करेंसी पीढ़ी दर पीढ़ी विरासत के तौर पर नई नस्ल को सौंपी जा रही है। 

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