पाली / Haifa Day तोपों के सामने तलवारों से घोड़ों पर लड़ा गया वह युद्ध जिसने दुश्मन के छक्के छुड़ा दिए

Zoom News : Sep 23, 2019, 11:29 AM
जयपुर. आज से 101 साल पहले घोड़ों पर आखिरी युद्ध लड़ा गया। इसमें एक ओर तोपों और मशीनगनों से शोले आग उगल रहे थे और दूसरी ओर ​बिजली की गति से तलवारें लहराते हुए आ रहे जोधपुर लांसर्स के वीर। बारूद की गंध और उगलती आग के बीच किया गया यह शाका हैफा के युद्ध के नाम से जाना जाता है। भारत और इजराइल की दोस्ती की जड़ें इसी युद्ध से गहरी हुई। जोधपुर लांसर्स के मेजर दलपतसिंह शेखावत के नेतृत्व में छह सौ घुड़सवारों ने मात्र एक घंटे में इजराइल का हैफा शहर जर्मनों—तुर्कों से मुक्त करवा लिया था। कहा जाता है कि दो सेनाओं के बीच घोड़ों पर लड़ा गया यह आखिरी युद्ध था। 
हैफा दिवस इजराइल में शान से मनाया जाता है और वहां दलपतसिंह का चरित्र पाठ्यक्रम में भी शामिल है। परन्तु भारत में उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं मिल पाया। हैफा दिवस की शती पर भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इजराइल गए थे। इस वीर के सम्मान में राजस्थान के पाली शहर में मूर्ति का अनावरण किया जा रहा है।
हाइफा का युद्ध 23 सितंबर 1918 को लड़ा गया था। यह युद्ध प्रथम विश्व युद्ध के दौरान शांति के लिए सिनाई और फिलस्तीन के बीच चलाए जा रहे अभियान के अंतिम महीनों में लड़ा गया था। इस दिन भारतीय वीरों ने जर्मनी और तुर्कों की सेनाओं को हाइफा शहर से बाहर खदेड़ दिया गया था। 

प्रथम विश्वयुद्ध के समय भारत की 3 रियासतों मैसूर, जोधपुर और हैदराबाद के सैनिकों को अंग्रेजों की ओर से युद्ध के लिए तुर्की भेजा गया। हैदराबाद रियासत के सैनिक मुस्लिम थे, इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें तुर्की के खलीफा के विरुद्ध युद्ध में हिस्सा लेने से रोक दिया। केवल जोधपुर व मैसूर के सैनिकों को युद्ध लड़ने का आदेश दिया।

मारवाड़ के घुड़सवार ने जर्मन सेना की मशीनगनों का मुकाबला करते हुए इजरायल के हाइफा शहर पर महज एक घंटे में कब्जा कर लिया था। इस युद्ध का नेतृत्व जोधपुर लांसर के मेजर दलपतसिंह शेखावत और कैप्टन अमान सिंह जोधा किया था। तलवार और भालों से लड़ी गई ये लड़ाई आधुनिक भारत की बड़ी और आखिरी जंग थी। इसी जंग ने इजरायल राष्ट्र के निर्माण के रास्ते खोल दिए। 14 मई 1948 को यहूदियों का नया देश इजरायल बना। 

जर्मन मशीनगनों पर भारी पड़ी तलवारें और भाले
उस वक्त जोधपुर रियासत के घुड़सवारों के पास हथियार के नाम पर मात्र बंदूकें,  लेंस (एक प्रकार का भाला) और तलवारें थी । वहीं, जर्मन सेना तोपों तथा मशीनगनों से लैस थी। लेकिन राजस्थान के रणबांकुरों के हौसले के आगे दुश्मन पस्त हो गया। इस दौरान मेजर दलपत सिंह शहीद हो गए।

मेजर दलपत सिंह
हाइफा में शहीद हुए मेजर दलपत सिंह शेखावत पाली जिले के नाडोल के निकट देवली पाबूजी के जागीरदार ठाकुर हरि सिंह के पुत्र थे। ठाकुर दलपत सिंह को पढ़ाई के लिए जोधपुर के Prime Minister सर प्रताप ने इंग्लैंड भेजा था। 18 साल की उम्र में वे जोधपुर लांसर में बतौर घुड़सवार भर्ती हुए और बाद में मेजर बने।

भारतीय सैनिकों ने एक हजार से ज्यादा सैनिकों को बंदी बनाया
1,350 जर्मन और तुर्क कैदियों पर भारतीय सैनिकों ने कब्जा कर लिया था. इसमें दो जर्मन अधिकारियों, 35 ओटोमन अधिकारियों, 17 तोपखाने बंदूकें और 11 मशीनगनें भी शामिल थे. इस दौरान, आठ लोग मारे गए और 34 घायल हुए, जबकि 60 घोड़े मारे गए और 83 अन्य घायल हुए।

मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रॉस
वहीं इस युद्ध में मेजर दलपत सिंह के समेत 6 घुड़सवार शहीद हुए, जबकि टुकड़ी के 60 घोड़े भी मारे गए। जोधपुर लांसर सवार तगतसिंह, सवार शहजादसिंह, मेजर शेरसिंह आईओएम, दफादार धोकलसिंह, सवार गोपालसिंह और सवार सुल्तानसिंह भी इस युद्ध में शहीद हुए थे। मेजर दलपत सिंह को मिलिट्री क्रॉस जबकि कैप्टन अमान सिंह जोधा को सरदार बहादुर की उपाधि देते हुए आईओएम (इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट) तथा ओ.बी.ई (ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंपायर) से सम्मानित किया गया था।

SUBSCRIBE TO OUR NEWSLETTER