इमरजेंसी (2025 )

Jan 17, 2025
कॅटगरी ड्रामा
निर्देशक कंगना रनौत
कलाकार अनुपम खेर,कंगना रनौत,प्रियांशु जयसवाल,बादल यादव,महिमा चौधरी,मिलिंद सोमन,मोहित योद्धा,श्रेयस तलपड़े,सतीश कौशिक
रेटिंग 3/5
निर्माता कंगना रनौत
संगीतकार जी. वी. प्रकाश कुमार
प्रोडक्शन कंपनी ज़ी स्टूडियोज
छायाकार टेटसुओ नागाटा
संपादक रामेश्वर एस. भगत
लेखक रितेश शाह
रिलीज़ दिनांक 17-Jan-2025
अवधि 02:26:00

क्रैश कोर्स समझते हैं ना आप? किसी विषय को लेकर की गई पूरी तैयारी का फटाफट रिवीजन समझ लें या किसी विषय का सिंहावलोकन कराने के लिए कम समय में लेकिन बहुत ही संजीदगी से की गई मेहनत। फिल्म ‘इमरजेंसी’ ऐसी ही है। लगा तो यही था कि ये जी सिनेमा और कंगना रनौत की मिली जुली मेहनत से बनी एक और ऐसी फिल्म है जिसमें बीती सरकारों पर लांछन लगेंगे, इतिहास के कुछ पन्नों को नए सिरे से लिखने की कोशिश होगी और एक तयशुदा एजेंडे पर फिल्म आगे बढ़ेगी। लेकिन, आश्चर्य ये है कि कंगना रनौत ने ऐसा कुछ भी इस फिल्म में नहीं किया है। हो सकता है फिल्म की रिलीज में देरी की ये भी बड़ी वजह हो। चुनाव से पहले ये फिल्म रिलीज होती तो शर्तिया कांग्रेस को फायदा पहुंचाती। इंदिरा के बारे में जो कांग्रेसी विस्तार से न जानते हों, उन्हें ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए और देश के हर जाग्रत नागरिक को ये फिल्म इसलिए देखनी चाहिए कि इंदिरा गांधी नाम की जो महिला इस देश में जन्मी, उसने कैसे दुनिया की दिग्गज ताकतों की नाक के नीचे दुनिया के नक्शे पर एक नए देश का खाका खींच दिया।


15 अगस्त 1975 को पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में ऐसा क्या हुआ जिसने इंदिरा गांधी को भीतर तक हिला दिया और उन दिनों भारत में ऐसे क्या हालत बने जिनमें इंदिरा गांधी को लगा कि उनके पूरे परिवार की जान को खतरा हो सकता है? क्या देश में आपातकाल यानी इमरजेंसी लगाने की वजह इंदिरा का चुनाव निरस्त होना ही थी या फिर इसके पीछे और भी कारक काम कर रहे थे? क्या इंदिरा के बेटे संजय ने उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाया? और क्या इसी वजह से जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद जब इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं तो संजय गांधी का अपनी मां से भी मिलना मुश्किल हो गया था? सवाल ऐसे तमाम हैं। हर सीन में। 12 साल की इंदु के अपने दादा से अपनी बुआ को घर से निकालने की फरियाद से से लेकर अपनी आखिरी रैली में ‘खून का एक एक कतरा देश के काम आने तक’ की इंदिरा गांधी तक की ये कहानी है। अच्छी कहानी है। अच्छी फिल्म है।


फिल्म ‘इमरजेंसी’ में एक नारा लगता है ‘आधी रोटी खाएंगे, इंदिरा को वापस लाएंगे’। ये उस देश में लगा नारा है जिसमें अब मुफ्त का गेंहू आधे से ज्यादा आबादी को बंट रहा है। इस फिल्म में राजनीति का हर वो पहलू है जिस पर अमल करके बाद के तमाम नेताओं ने अखबारों और मीडिया में खुद को पेश करने के तरीके सीखे हैं। हाथी पर बैठकर इंदिरा गांधी का जंगल में बसे गांव पहुंच जाना मीडिया इवेंट जानबूझकर बनाया गया या ये एक स्वत: प्रेरित घटना थी? फ्रांस के राष्ट्रपति के साथ रात्रि भोज करते समय परोसे गए केक के टुकड़े को पैक कराकर ले जाने की बात कहने वाली इंदिरा की त्वरित बुद्धि को नजरअंदाज कर उन्हें ‘गुड़िया’ कहकर पुकारने वाले जे पी नारायण से मिलने पहुंची इंदिरा और उसके बाद बदली देश की राजनीति की अंतर्धारा ऐसी है कि देश की सियासत की जरा सी भी समझ रखने वाले के रोएं ये फिल्म देखते समय कई बार खड़े हो सकते हैं।


कंगना रनौत से इस फिल्म को लेकर ज्यादा उम्मीदें शायद ही किसी ने पाली हों। इसे देखने वाले बीजेपी नेता भी फिल्म के उसी हिस्से की बात ज्यादा कर रहे हैं, जहां इमरजेंसी के दौरान हुए अत्याचारों की बात है, लेकिन ये हिस्सा फिल्म में बस कुछ मिनट का ही है। फिल्म का नाम ‘इमरजेंसी’ की बजाय अगर ‘इंदिरा’ होता तो शायद फिल्म की इतनी चर्चा नहीं होती। इंदिरा गांधी की छवि को नई रोशनी में पेश करने की कोशिश करने वाली फिल्म ‘इंदु सरकार’ से लेकर ‘इमरजेंसी’ तक इंदिरा गांधी के किरदार ने पूरा एक वृत्त देख लिया है। ‘इमरजेंसी’ इन सब में निष्पक्षता के निकट तक पहुंची सबसे प्रामाणिक फिल्म मानी जा सकती है। न तो ये इंदिरा का प्रशस्ति गान है और न ही उनकी आंख मूंदकर की गई आलोचना। और, इसी एक पैमाने पर खरी उतरकर ये फिल्म न सिर्फ दर्शनीय बन जाती है, बल्कि प्रशंसनीय भी है।


बतौर कथा लेखक, निर्देशक और अभिनेत्री कंगना रनौत ने फिल्म ‘इमरजेंसी’ में अपना अब तक सीखा पूरा सिनेमा उड़ेल दिया है। कहानी चूंकि 1929 से लेकर 1984 तक की इंदिरा गांधी के जीवन से जुड़ी सारी महत्वपूर्ण घटनाओं को समेटने की कोशिश करती है लिहाजा इसकी रफ्तार बहुत तेज है। पलक झपकते ही परदे का मंजर बदल जाता है। लेकिन, नई पीढ़ी को खासतौर से ये फिल्म इसलिए जरूर देखनी चाहिए ताकि वह इंदिरा गांधी की अहमियत समझ सकें। ये समझ सकें कि इस देश के एक प्रधानमंत्री ने अमेरिका के राष्ट्रपति तक की खुली धमकियों के आगे घुटने टेकने से इन्कार कर दिया था और इन दृश्यों में कंगना रनौत ने जो अभिनय किया है, उसके लिए अगर उन्हें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार नहीं मिलता है तो हैरानी ही होगी। कंगना ने इंदिरा के जीवन के करीब 25 वर्षों को परदे पर जिया है। बेअंत सिंह और सतवंत सिंह की गोलियों का शिकार होने वाले दृश्य में भी उनका अभिनय बहुत स्वाभाविक बन पड़ा है और संजय गांधी के हमलावर होने वाले सीन में तो कंगना ने कमाल कर दिया है।


बतौर लेखक, निर्देशक और मुख्य अभिनेत्री कंगना रनौत को सौ में सौ नंबर मिलते हैं, लेकिन जो चालीस नंबर फिल्म के कटते हैं, उनकी वजह हैं अनुपम खेर और श्रेयस तलपदे। दोनों ने जेपी नारायण और अटल बिहारी वाजपेयी की भूमिका संग न्याय नहीं किया। कंगना के बाद अभिनय में दूसरे नंबर पर यहां दिवंगत अभिनेता सतीश कौशिक रहे हैं जिन्होंने जगजीवन राम के किरदार में दिल को छू लेने वाला अभिनय किया है। संजय गांधी का किरदार करने वाले विशाक नायर से भी आने वाले दिनों की उम्मीदें बंधती हैं। इंदिरा जब संजय से मिलने से मना करती हैं, तो उस समय विशाक नायर और आर के धवन बने दर्शन पांड्या के बीच के संवाद भी गौर करने लायक हैं। दर्शन बिल्कुल आर के धवन ही नजर आए हैं पूरी फिल्म में। फिल्म के प्रोस्थेटिक्स सराहनीय हैं। मेकअप काबिले तारीफ है। संगीत पक्ष बेहद कमजोर है। इतना कमजोर कि क्रेडिट में इसके गीतकार का पूरा नाम सही लिखा है कि नहीं, किसी ने जांचने की जरूरत नहीं समझी। तेत्सुओ नगाता ने कैमरे की कमान संभालकर कंगना का फिल्म में कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया है।