कुत्ते

Jan 13, 2023
कॅटगरी एक्शन ,थ्रिलर
निर्देशक आसमान भारद्वाज
कलाकार अर्जुन कपूर,कुमुद मिश्रा,कोंकणा सेन शर्मा,तब्बू,नसीरुद्दीन शाह,राधिका मदान,शर्दुल भारद्वाज
रेटिंग 2/5
निर्माता कृष्ण कुमार,भूषण कुमार,लव रंजन,विशाल भारद्वाज
संगीतकार विशाल भारद्वाज
प्रोडक्शन कंपनी लव फिल्म्स

पिता ने ‘कमीने’ बनाई तो बेटा ‘कुत्ते’ ही बनाएगा। गुलजार से पारिवारिक रिश्ता है तो गाने वह लिखेंगे ही। क्या लिख रहे हैं, ऐसा क्यों लिख रहे हैं, इसके लिए वह उन लोगों को जिम्मेदार बताते हैं जिनके लिए वह ‘पूज्य’ रहे हैं, लेकिन खुद गुलजार के शब्दों में ‘चश्म ए बद दूर’ का मतलब ये नहीं समझते। आसमान को नजर न लगे लेकिन उनकी पहली फिल्म ‘कुत्ते’ का पहला सीन जिस तरह से उन्होंने शूट किया है, वह उनकी मौलिकता का प्रमाण है। अपने पिता, मां और दानाजी (गुलजार) के आभामंडल से बाहर रहकर वह फिल्में बनाएंगे तो दूर तक जाएंगे। लेकिन, इन दिग्गजों की अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के बारे में सीमित समझ के भ्रमजाल में फंसे रहे तो उनकी आगे की राह मुश्किल है। फिल्म ‘कुत्ते’ का पहला सीन छोड़कर आखिर तक ये फिल्म विशाल भारद्वाज का ही सिनेमा लगती है। क्लाइमेक्स पर आकर नोटबंदी पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण पर की गई फिल्म के नायक की टिप्पणी बहुत ही आपत्तिजनक है। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की तरफ से फिल्म देखने वालों को ये समझ में भी आई होगी, लगता नहीं है।


ये फिल्म नहीं कॉरपोरेट प्रोजेक्ट है

हिंदी सिनेमा की कॉरपोरेट दुनिया का अगला नमूना है फिल्म ‘कुत्ते’। एक निर्माता किसी तरह सितारे जोड़कर फिल्म बना लेता है। दूसरा निर्माता आकर मिडिलमैन बन जाता है। दोनों मिलकर किसी ऐसी कंपनी के पास पहुंचते हैं जिसके पास ओटीटी और सैटेलाइट चैनलों की तरफ से कंबल ओढ़ाकर ली गई मंजूरी (ब्लैनकेट अप्रूवल) पहले से है। फिल्म में जो पैसा लगा, वह बस इन दो अधिकारों को बेचकर आ गया। अब क्या फिल्म का प्रचार और क्या इसका प्रसार! न मुंबई में फिल्म ‘कुत्ते’ के कलाकारों को रिलीज से पहले मीडिया से मिलाने का जतन हुआ और न उनको दिल्ली ले जाने की योजना सिरे चढ़ी। इन दिनों निर्माताओं का दिमाग अच्छी कहानी तलाशने में नहीं, बल्कि फिल्म की रिलीज से पहले प्रचार पर होने वाले खर्च को घटाने में लग रहा है। हां, फिल्म के संगीत की एक महफिल जरूर मुंबई में जमी जिसमें इस फिल्म के लिए ‘आवारा डॉग्स’ लिखने वाले गुलजार ने इस तरह के गाने लिखे जाने पर अपनी ये सफाई दी, ‘जिस समय में लोगों को चश्मेबद्दूर का मतलब ही न पता हो, उस समय में ऐसे ही गाने लिखे जा सकते हैं।’


कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा

खैर, गुलजार साहब, गुलजार साहब हैं, वह अपने श्रोताओं और पाठकों पर ये लांछन लगा सकते हैं। लेकिन, चश्मेबद्दूर का मतलब न समझने वाले हिंदी सिनेमा के कथित दर्शक सिर्फ मां, बहन की गालियों से ही भाव विभोर हो जाएंगे, ये बात उनके खेमे के सारे लोगों को समझनी बहुत जरूरी है। फिल्म ‘कुत्ते’ शुरू होते ही इस नाम का मतलब समझाने की कोशिश करती है कि जंगल में शेर, बकरी और कुत्ता मिलकर शिकार करते हैं। बकरी शिकार के तीन हिस्से लगाती है तो शेर गुस्सा होकर बकरी को खा जाता है। कुत्ते के हिस्से लगाने की बारी आती है तो वह पूरा शिकार शेर की तरफ खिसकाकर बकरी की बची हड्डियां चूसने लगता है। लोकतंत्र की अराजक स्थिति पर ये बहुत बड़ी टिप्पणी है। लेकिन फिर कहानी एक भ्रष्ट पुलिस अफसर, उसके प्यादे, नशीली दवाओं की तस्करी वाले गिरोहों, एक और भ्रष्ट महिला पुलिस अफसर, एटीएम में पैसा पहुंचाने वाली वैन, वैन में रखे करोड़ों रुपये, इन रुपयों पर टिकी पुलिस वालों की नजर पर टिक जाती है। बीच में एक निहायत दोयम दर्जे का चुटकुला भी मेंढक और बिच्छू वाला चलता रहता है। हां, वही फिल्म ‘डार्लिंग्स’ वाला। यहां डंक मारने के बाद जब मेंढक अपनी पीठ पर सवार बिच्छू से इसका लॉजिक पूछता है तो वह इसे अपना कैरेक्टर बताता है।


हिंदी फिल्म में उपेक्षित हिंदी

फिल्म ‘कुत्ते’ के नाम पर न भी जाएं तो भी इसके निर्देशक आसमान से उम्मीदें बहुत रही हैं। नेपोटिज्म की बात यहां करना बेमानी है क्योंकि हर पिता अपने पुत्र को कामयाब देखना चाहता है और बेटा अगर अपने पिता का पेशा अपनाए तो ये उसकी अपनी पसंद है। लेकिन, अपनी पहली ही फिल्म में आसमान ने जिस तरह से हिंदी की उपेक्षा की है, वह पाप से कम नहीं है। उनका अपना नाम फिल्म में आस्मान लिखकर आता है। मेकअप की हिंदी मेकयूपी हो जाती है। वैसे आसमान को हिंदी से बहुत ज्यादा कोई प्रेम मोहब्बत हो ये भी तय नहीं है। जाहिर है कि अगर ‘कुत्ते’ की म्यूजिक महफिल में कोई उनसे ही चश्म ए बद दूर का मतलब पूछ लेता तो शायद ही वह बता पाते। गलती इसमें उनकी नहीं है। गलती उन लोगों की जिनके साये में उनकी परवरिश हुई। काबिल लोग अगर अपने आसपास रहने वालों को काबिल नहीं बना पाते हैं तो ये उनके नेतृत्व की विफलता है। फिल्म ‘कुत्ते’ भी सिनेमा की इसी परवरिश का रिपोर्ट कार्ड है। आसमान कहते हैं कि वह ब्रिटिश निर्देशक गाय रिची के अनुयायी हैं। झलक उनके सिनेमा में दर्शकों को टैरेंटिनो की मिलती है।


लॉजिक मत तलाशिये, ये कैरेक्टर है!

फिल्म ‘कुत्ते’ नए साल के दूसरे शुक्रवार को रिलीज हुई दो हिंदी फिल्मों में पहले नंबर पर मानी जा रही थी। दो स्टार पाकर भी ये पहले नंबर पर ही है क्योंकि इसके साथ रिलीज हुई फिल्म ‘लकड़बग्घा’ इतनी खराब फिल्म निकली कि उसकी रेटिंग और नीचे चली गई है। फैज अहमद फैज की नज्म ‘कुत्ते’ की रूह तलाशती इस फिल्म के बाकी गाने गुलजार ने लिखे हैं। विशाल भारद्वाज ने संगीतबद्ध किए हैं और एक भी गाना ऐसा नहीं है जिसे ‘आवारा डॉग्स’ समझने वाले भी समझ सकें। कुछ याद रह जाता है तो बस पुराना गाना ‘ढेन टे णां’ जिसे सबने मिलकर नया चोला पहना दिया है। ए श्रीकर प्रसाद ने फिल्म को दो घंटे से कम का रखा है, ये भी उनका एक तरह का एहसान ही है दर्शकों पर क्योंकि एक बार फिल्म जो पटरी से उतरती है तो आखिर तक किसी को कुछ नहीं पता होता कि क्या चल रहा है परदे पर। लेकिन, लॉजिक का क्या, ये तो इन दिनों हिंदी सिनेमा का ही कैरेक्टर है।




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