लाल कप्तान

Oct 18, 2019
कॅटगरी एक्शन ,ड्रामा
निर्देशक नवदीप सिंह
कलाकार जिया हुसैन,मानव विज,सैफ अली खान,सोनाक्षी सिन्हा
रेटिंग 3/5
निर्माता आनंद एल राय,सुनील लुल्ला
संगीतकार पति उद्दीन
प्रोडक्शन कंपनी रंग पीला प्रोडक्शंस

दो डाकू रात के अंधेरे में आग सेंक रहे हैं. अचानक एक चेहरा सामने दिखता है. ये गुसाईं है. नागा साधु. ‘साधु को क्या चाहिए? चिलम के लिए आग’, कहकर गुसाईं इन डाकुओं के बगल में बैठ जाता है. डाकू निश्चितं हो जाते हैं. इस सीन में उसके बाद क्या होगा आप गेस कर लेते हैं. पूरी मूवी में ‘सस्पेंस’ का यही हाल है. हो सकता है कि कुछ सस्पेंस हमें अंत तक न पता लगें, लेकिन जब वो भी पौने तीन घंटे लंबे खिंच जाते हैं तो हमारा उत्साह और हमारी उत्सुकता जाती रहती है.

कहानी-

1764 के अक्टूबर महीने में बक्सर का युद्ध हुआ था. बंगाल के नवाब मीर कासिम और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच. ‘लाल कप्तान’ इसके बाद की कहानी है. लेकिन जहां बक्सर का युद्ध वास्तिवकता थी, ‘लाल कप्तान’ पूरी तरह काल्पनिक है, और ये बात मूवी के शुरू में बता दी जाती है. मूवी में हर कोई हर किसी से लड़ रहा है. अफगान, रोहिल्ला, मराठा, मुगल, अंग्रेज़. साथ में डाकू भी हैं और ठाकुर भी हैं. इसी मारकाट के बीच एक नागा साधु, जिसे लोग गुसाईं भी कहते हैं, बड़ी शिद्दत से रहमत खान को ढूंढ रहा है. [‘नागा साधु’ पुरातन काल से धर्म की रक्षा के लिए तय किए गए लड़ाके साधु हुआ करते हैं.] अब ये नागा साधु रहमत खान को क्यूं ढूंढ रहा है, उसका क्या करना चाहता है, और क्या वो अपने मकसद में सफल हो पाता है, इन सारे सवालों के उत्तर फिल्म के लास्ट सीन में मिलते हैं.

चूहे-बिल्ली का खेल खेल रहे रहमत और गुसाईं के अलावा सांचो, रहमत की पत्नी और एक अनाम किरदार जिसे ज़ोया हुसैन ने निभाया है, जैसे दो-तीन और करैक्टर्स भी हैं, जो कहानी के मज़बूत करैक्टर्स हैं. लेकिन कहानी खुद कितनी मज़बूत है, इस सवाल का उत्तर नेगटिव है.

एक्टिंग-

सैफ अली खान नागा साधु बने हैं. जब फिल्म का शुरुआती प्रोमो आया था, तब से ही उनके गैटअप की तुलना, ‘जैक स्पैरो’ के गेटअप से होने लगी थी. होने को मुझे नहीं लगता कि जैक स्पैरो को कॉपी करने की दोबारा ‘डेलिब्रेट’ कोशिश की गयी होगी. खास तौर पर ‘ठग्स ऑफ़ हिंदुस्तान’ का हश्र देखकर. तो भी गलती से ही सही, वो जैक स्पैरो की एक ‘कमतर कॉपी’ तो लगते ही हैं. लेकिन अच्छी बात ये है कि सैफ अपनी ऐक्टिंग और हावभाव से ‘ओंकारा’ के अपने लंगड़ा त्यागी वाले कैरेक्टर को सरपास कर जाते हैं. काफी रॉ लगे हैं और उनके किरदार की रूथलेसनेस उनकी एक्टिंग में झलकती है.

दूसरी तरफ रहमत खान का रोल मानव विज ने किया है. उनके रोल की मांग थी कि वो सैफ के बराबर या उससे भी एक दो डिग्री ज़्यादा संगदिल दिखें. और बेशक उन्होंने ऐसा प्रोजेक्ट करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है, लेकिन उनके किरदार को स्क्रिप्ट ने ही इतना कन्फ्यूज्ड बना दिया है कि न वो ढंग से क्रूर ही दिख पाते हैं न पूरी तरह बुरे. दिक्कत ये है कि उनकी रूथलेसनेस को कुछ सीन्स के माध्यम प्रोजेक्ट करने की कोशिश की गयी है न कि ओवर-ऑल करैक्टर आर्क या एक यात्रा के माध्यम से.

कभी अगर दीपक डोबरियाल के पूरे करियर की बात हुई, तो कमज़ोर किरदारों में सांचो पांजा के किरदार का ज़िक्र भी ज़रूर आएगा. गंध सूंघ के लोगों को ढूंढ निकालना, ये उसका काम है. वो इसके पैसे लेता है और इस मामले में वो किसी का सगा नहीं है. बार-बार ‘हाउ डू डू डू’ और ‘नई गंध, नई सुबह…’ जैसे डायलॉग रिपीट करता है. सांचो पांजा जिस एक्सेंट में बात करता है, लगता है कि पंकज कपूर की मिमिक्री कर रहा है. कुछ अच्छे डायलॉग भी इस करैक्टर के हाथ लगे हैं जैसे- ‘तुम्हारा शिकार, तुम्हारा मालिक है. वो जिधर जाता है, तुम उधर जाते हो.’ लेकिन चूंकि उनका कैरेक्टर, गेटअप से लेकर डायलॉग्स तक का एक टेंपलेट फॉलो करता है तो, दीपक के पास एक्टिंग के स्तर पर कुछ ज़्यादा करने को नहीं होता.

सोनाक्षी सिन्हा इस फिल्म में क्यूं थीं, ये समझ से परे है. बहुत मुख्तसर वक्फे के लिए आती हैं और कहानी के डेवलपमेंट में कोई योगदान नहीं करतीं. इसे एडिटिंग के वक्त डिलीट कर दिया जाता तो कहीं कोई दिक्कत नहीं आनी थी. सोनाक्षी को भी ख़ुशी ही होती.

ज़ोया हुसैन का किरदार एक शॉर्ट टर्म सस्पेंस क्रियेट तो करता है लेकिन फिर मूल कहानी में होते हुए भी कहीं डायल्यूट होने लगता है. अच्छी बात है कि अनलाइक सोनाक्षी सिन्हा, ज़ोया के किरदार को एक एंडिंग दी गई है. लेकिन बुरी बात ये कि वो एंडिंग बहुत ही काल्पनिक और गले न उतरने वाली लगती है. ज़ोया ने बुन्देलखंड की भाषा और एक्सेंट तो अच्छा पकड़ा है लेकिन उनकी एक्टिंग में एक दोहराव लगता है, पिछले कुछ ऐसे ही करैक्टर्स का. जैसे सोनचिड़िया की भूमि पेडनेकर.

पता नहीं क्यूं ये लगता है कि हर कोई अपने डायलॉग्स रुक-रुक के बोल रहा है. हर दो शब्दों के बीच औसत से ज़्यादा पॉज़ लेते हुए.

डायरेक्शन/प्रोडक्शन/स्क्रिप्ट और डायलॉग्स-

दीपक और नवदीप, कुल दो लोगों ने स्क्रिप्ट लिखी है. इंट्रेस्टिंग विरोधाभास ये है कि मूवी को रियलस्टिक बनाने के लिए स्क्रिप्ट में खूब सिनेमैटिक लिबर्टी ले ली गई है. दो लोगों द्वारा लिखे पोटैटो वेफर सरीखे पतले ‘स्क्रीनप्ले’ के ऊपर औसत सी टॉपिंग्स करने से जो प्रोडक्ट बनता है वही ‘लाल कप्तान’ है. ये आपको बोर करती है, और जगाने के लिए भी इसके पास कोई शॉकिंग मोमेंट्स नहीं हैं.

डायलॉग्स हालांकि एक बंदे ने ही लिखे हैं. सुदीप शर्मा ने. लेकिन लगता है कि दो लोगों ने लिखे होंगे. क्यूंकि कहीं-कहीं वो बेहतरीन और फिलॉसोफिकल हैं तो कहीं-कहीं औसत से भी कमतर. शायद ‘ह्यूमर कोशेंट’ को डालने के चक्कर में लेखक कैरिड अवे हो गए हों. जैसे एक तरफ ‘मौत की तैयारी पैदा होते ही शुरू हो जाती है.’ जैसे डायलॉग्स हैं, दूसरी तरफ ऐसे डायलॉग्स भी सुनने में आते हैं जिसमें ‘खजाना, जनाना और पखाना’ की बेहूदा राइमिंग की गयी है.

जबरन ह्यूमर डालने का ये आग्रह केवल डायलॉग्स में ही नहीं स्क्रिप्ट में भी डाला गया है. और दीपक डोबरियाल का पूरा करैक्टर यही सिद्ध करता है.

फिल्म को आनंद एल राय ने प्रोड्यूस किया है. उन्होंने अतीत में तुम्बाड को भी प्रोड्यूस किया है. और ये चीज़ उन्होंने फिल्म के प्रोमोज़ में भी प्रमुखता से मेंशन की है. कोई आश्चर्य नहीं कि डायरेक्टर अलग होते हुए भी ‘लाल कप्तान’ में कुछ कलात्मक दृश्य हैं जो आपको तुम्बाड की याद दिलाते हैं. जैसे दीपक डोबरियाल और सैफ अली खान का तांडव या बारिश वाले कई सीन. लेकिन ये सारे सीन और सारी कलात्मकता ‘टू लिटिल टू लेट’ की कैटेगरी में आती हैं.

क्लिशे की भरमार-

फिल्म में इतने क्लिशे हैं कि लगता है ‘हाउ टू मेक अ मूवी’ या ‘मूवी मेकिंग फॉर बिगनर्स’ जैसी कोई किताब पढ़ने या कोर्स करने के तुरंत बाद एक आर्टहाउस मूवी बनाने का संकल्प लिया हो और उससे कमर्शियल सक्सेस की उम्मीद भी की जा रही हो. उदाहरण के तौर पर एक क्लिशे तो यही है कि एक नहीं बल्कि दो तीन बार एक मेन करैक्टर दूसरे को मारते-मारते रह जाता है. क्यूंकि अचानक से कोई दूसरी घटना घट जाती है- जैसे ठीक उसी वक्त डाकू या दुश्मन सेना का आक्रमण. मूवी के शुरुआती डायलॉग को अंत में दोहराना भी ‘रिकॉल वैल्यू’ को कैश कराने का एक क्लिशे प्रयास भर लगता है.

लोकेशंस के साथ-साथ पीरियड फिल्म में सिनेमैटोग्राफी का भी सबसे अहम किरदार होता है, लेकिन मूवी यहां भी अतीत में बनी कुछ मूवी की परछाई तले खड़ी दिखती है. कभी लगता है ये ‘लगान’ है, कभी ‘मंगल पांडे’ तो कभी ‘तुंबाड’. साथ में कई सीन्स में ऐसा लगता है कि ये ‘गुड बैड एंड अगली’, ’जैंगो अनचेंड’ या ‘बैले ऑफ़ बस्टर्स स्क्रूग्स’ जैसी ‘स्पैगिटी वेस्टर्न’ विधा की हॉलीवुड मूवीज़ से सीधे उठा लिए गए हों.

बाकी डिपार्टमेंट्स-

जैसे फिल्म अपने आप से खुद ही प्रभावित सी लगती है, वही दंभ मूवी के म्यूज़िक में भी दिखाई देता है. ‘तांडव’ गीत पहले कुछ बार सुनने में ठीक लगता है लेकिन फिर आपको इसके लिरिक्स की दिक्कतें परेशान करती हैं. ‘काल काल’ अच्छा लगता है. लेकिन कुल चार गीतों में न तो समीरा कोप्पिकर अपने म्यूज़िक से और न ही सौरभ जैन अपनी लिरिक्स से प्रभावित कर पाते हैं. बैकग्राउंड म्यूज़िक पाथ ब्रेकिंग न भी हो तो भी मूवी के कुछ सबसे सशक्त डिपार्टमेंट्स में से एक है. दूसरा सशक्त डिपार्टमेंट है लोकेशंस का चुनाव और तीसरा 300 साल पुराने प्रॉप्स और गेटअप्स.

ओवरऑल फील-

मुझे फिल्म देखने के दौरान बार-बार फाइट क्लब का डायलॉग याद आ रहा था- Everything is a copy of a copy of a copy. क्यूं? ये फिल्म देखते हुए आपको पता चल जाएगा, अगर फिल्म देखेंगे तो.


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