हाउसफुल 4

Oct 25, 2019
कॅटगरी कॉमेडी ,ड्रामा
निर्देशक फरहाद समझ
कलाकार अक्षय कुमार,कृति सैनॉन,चंकी पांडे,बॉबी देओल,रितेश देशमुख
रेटिंग 2.5/5
निर्माता साजिद नाडियाडवाला
संगीतकार फरहाद समजी,संदीप शिरोडकर,सोहेल सेन
प्रोडक्शन कंपनी नाडियाडवाला ग्रैंडसन एंटरटेनमेंट

क्लाइमेक्स चल रहा है। अक्षय कुमार के किरदार को पीछे से चार चाकू लगे हुए हैं। इसी हालत में वो दौड़ रहे हैं, हंस रहे हैं, हिरोइन के गले लग रहे हैं और खूब कॉमेडी कर रहे हैं। या करने की कोशिश कर रहे हैं। ये सीन फिल्म का न तो इकलौता न सबसे ज़्यादा असंभव सा लगने वाला सीन है।

कहानी-

हैरी (अक्षय कुमार), रॉय (रितेश देशमुख) और मैक्स (बॉबी देओल) लंदन में रहते हैं। तीनों को माइकल (शरद केलकर) नाम के डॉन के रुपए चुकाने हैं। और इसलिए वो अमीर बाप की बेटियों से शादी करने का प्लान बनाते हैं। लड़कियों के पिता ठकराल (रंजीत) जब इस रिश्ते को अप्रूव कर देते हैं, तो सब शादी के लिए इंडिया के सीतमगढ़ नाम के काल्पनिक शहर आते हैं। यहां पर इन सभी का पिछला जन्म इनके वर्तमान को प्रभावित करने लगता है। पिछला जन्म यानी 600 साल पुराना फ़्लैशबैक। इसी सब में कहीं सिचुएशनल और कहीं स्लैप-स्टिक कॉमेडी का पुनर्जन्म होता है और मूवी अपनी परिणति यानी क्लाइमेक्स को प्राप्त होती है।

कॉमेडी की मात्रा-

‘लाफ्टर रॉयट’, ‘लाफ्टर राइड’ जैसे अंग्रेज़ी के मेटाफर उन फिल्मों को दिए जाते हैं, जो आपको हंसा-हंसाकर लोटपोट कर दें। ‘हाउसफुल 4’ में ऐसा नहीं है। अगर आप ट्रैक रखना चाहें, तो पौने तीन घंटे के लगभग की इस फिल्म में आप गिनकर बता सकते हैं कि कितने इंस्टेंट या कितने सीन ऐसे हैं जो आपको हंसाने का माद्दा रखते हैं।

’20 के बाद क्या आता है 21’ या ‘माइ-कल आने के बदले आज आ गया’ टाइप के पुराने या बहुत ही लेज़ी से पंचेज़ और उनका दूर-दूर छितरा होना हाउसफुल 4 को ‘कॉमेडी’ के लिहाज़ से बहुत ही औसत फिल्म बना देता है। राणा दग्गुबती के पिछले जन्म का कैरेक्टर है, जो बोलता है- ‘गामा मारेगा’। अब इस जन्म में वो गायक है, तो बोलता है ‘गा मा मा रे गा’। ये और इस जैसे ‘पन’ किसी स्टेंडअप कॉमेडी में अच्छे लगते हैं, किसी बिग बजट मूवी में नहीं। क्यूंकि इनको एप्रिशिएट करके ताली तो बजाई जा सकती है, लेकिन इनमें ‘लाफ्टर रॉयट’ वाली बात नहीं होती।

रिविज़न-

कई जगह रेफरेंसेज़ अच्छे हैं। जैसे, बॉबी देओल के पिछले जन्म के करैक्टर का नाम ‘धर्मपुत्र’ होना। या जैसे, नवाज़ुद्दीन का स्पेशल एपीयिरेंस वाला किरदार, जो भूत पकड़ता है, का नाम ‘रामसे बाबा’ होना। और जैसे, उनके करैक्टर का ‘अपुनिच भगवान है’ बोलना। साथ में जैसे, ‘बाहुबली’ के एक गीत की पैरोडी। लेकिन ये और ऐसे बाकी सारे रेफरेंसेज़ कॉमेडी की तरह ही शॉर्ट लिव्ड हैं।

कॉपी राईट-

स्क्रिप्ट की एक दिक्कत ये है कि अक्षय कुमार ने जो ‘बाला’ नाम का किरदार निभाया है, ‘दी डिक्टेटर’ मूवी में साशा बारन कोयन के किरदार ‘सुप्रीम लीडर अल्लादीन’ की ट्रू कॉपी है। फिर भी न तो उसके दसवें हिस्से के बराबर फनी है और न उसके सौवें हिस्से के बराबर व्यंगात्मक। लेकिन ये स्क्रिप्ट की न तो इकलौती और न सबसे बड़ी दिक्कत है। स्टेचू ऑफ़ लिबर्टी से भी ऊंची तो इस मूवी की सिनेमेटिक लिबर्टी है जहां से देखने पर लॉजिक का बड़ा सा समुद्र भी घिसी-पीटी कॉमेडी वाली तलैया लगता है। फरहाद सामजी के डायरेक्शन का हाल दिवाली की सोन पापड़ी सरीखा है। यानी कॉपी करना ही राईट है।

एक्टिंग-

अक्षय कुमार की टाइमिंग अच्छी है। वही रितेश देश्मुख का भी फोर्टे है। बॉबी देओल को ‘जॉन स्नो नोज़ नथिंग’ टाइप का ये किरदार सूट करता है। तीनों फीमेल आर्टिस्ट में डिफरेंशिएट करना मुश्किल है। न केवल चेहरे-मोहरे और फिजिक के चलते बल्कि उनकी एक्टिंग के चलते। न ही कोई एक्सेप्शनल है, न ही कोई बिलो एवरेज। चंकी पांडे के हिस्से एक भी पंच नहीं आया है। रंजीत का रोल भी ‘स्पेशल एपियरेन्स’ वाली कैटेगरी में आता है। चाहे ये बात ऑफिशियली न कही गई हो। जॉनी लीवर अपने दोनों रोल्स में प्रभावित करते हैं। पहले विंस्टन चर्चगेट के किरदार में, जो शशी थरूर के लेवल की अंग्रेज़ी बोलता है, फिर एक ‘ट्रांसजेंडर’ टाइप किरदार में, जो एक लंबे सिंगल टेक शॉट में कई राज़ खोलता है। नवाज़ अपने स्पेशल एपीयरेन्स को ‘जस्टिफाई’ करके जाते हैं।

म्यूज़िक डिपार्टमेंट-

‘बाहुबली’ के ‘गली गली तेरी लौ जली’ गीत की पैरोडी और ‘देव डी’ के ‘इमोशन अत्याचार’ की हल्की सी बानगी के अलावा इस फिल्म में कुल 5 और गीत हैं। ‘बदला’ और ‘भूत’ गीत के लिरिक्स क्रिएटिव लगते हैं लेकिन एल्बम में न तो म्यूज़िक के लिहाज़ से कोई ऐसा गीत है जो डिस्कोथेक में सुनाई दे जाए और न लिरिक्स के लिहाज़ से ऐसा, जो इयरफोन लगाकर लूप में सुना जाए। भूत वैसे भी एक तेलुगु मूवी ‘खिलाड़ी नंबर 150’ के गीत ‘अम्माडू, लेट्स डू कम्माडू’ का ऑफिशियल रिमेक है।कोरियोग्राफी की बात की जाए तो ‘भूत’ गाना देखते वक्त श्रीदेवी का ‘कोई बताए, समझ में न आए’ गाना याद आ जाता है, ‘चालबाज़’ का। फर्क सिफ इतना है कि उसमें श्रीदेवी के फेशियल एक्सप्रेशंस का जलवा था। इसमें फूहड़ता है। वहीं ‘दी डिक्टेटर’ में अलादीन के करैक्टर को ही नहीं उसके एक स्टेप को भी ‘शैतान का साला’ गीत की कोरियोग्राफी में भी कॉपी कर लिया गया है।

स्पेशल इफ़ेक्ट-

स्पेशल इफ़ेक्ट इस मूवी का सबसे स्ट्रॉन्ग डिपार्टमेंट है। इसलिए क्यूंकि ये ‘क्रिएटिविटी’ से ज़्यादा ‘क्राफ्टमेनशिप’ मांगता है। इसीलिए कंप्यूटर ग्राफिक्स, वीएफएक्स या क्रोमा जैसी चीज़ों का परफेक्शन मूवी के बजट के सापेक्ष बढ़ता जाता है। फिल्म शुरु होने से पहले क्रेडिट्स वाले पार्ट में स्पेशल इफ़ेक्ट इतने अच्छे हैं कि गेम ऑफ़ थ्रोंस की याद दिलाते हैं। महल, गुफा, सेना सब कुछ बेहतरीन और असली दिखते हैं।

ओवरऑल फील-

दिवाली की छुट्टियां। एक हिट हो चुकी फ़्रेन्चाइज़ ‘हाउसफुल’ की चौथी क़िस्त। अक्षय कुमार जैसा सुपर स्टार और कॉमेडी। इन सब के साथ मूवी बनाना प्रोड्यूसर्स के लिए ऐसा ही है जैसे इंडिया नेपाल क्रिकेट मैच में इंडिया पर सट्टा लगाना। मतलब कैलकुलेटेड रिस्क।

बनाती होंगी स्क्रिप्ट, एक्टिंग, स्क्रीनप्ले, कोरियोग्राफी जैसी चीज़ें किसी मूवीज़ को कालजयी। लेकिन जो मूवी पूरी तरह कॉमर्शियल टारगेट्स को पूरा करने के लिए बनाई गई हो, उसे इन सब कसौटियों में कसना, मूवी के साथ अन्याय होगा। इसलिए सवाल सिर्फ ये कि क्या ये मूवी प्रोड्यूसर्स के साथ-साथ दर्शकों के लिए भी पैसा वसूल है? और उत्तर है- नहीं।


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