पानीपत

Dec 06, 2019
कॅटगरी एक्शन ,ड्रामा इतिहास
निर्देशक आशुतोष गोवारिकर
कलाकार अर्जुन कपूर,कृति सैनॉन,जीनत अमान,पद्मिनी कोल्हापुरे ,संजय दत्त
रेटिंग 3/5
निर्माता रोहित शेलतकर,सुनीता गोवारीकर
संगीतकार अजय-अतुल
प्रोडक्शन कंपनी आमिर खान प्रोडक्शंस

इस हफ्ते अर्जुन कपूर की एक और कोशिश सिनेमाघरों में उतरी है। लड़ाई अर्जुन के करियर और ‘पानीपत’ दोनों की है। अर्जुन दोनों जगह हार जाते हैं। सवाल ये है कि आशुतोष गोवारिकर की मैग्नम ओपस ‘पानीपत’ अपना पानी बचा पाती है या इनकी भैंस भी पानी में चली जाती है? इसका जवाब अगर एक लाइन में दिया जा सकता, तो आशुतोष को 2 घंटे 53 मिनट की फिल्म नहीं बनानी पड़ती। फिल्म आपको अपने साथ रख पाती है कि नहीं, ये आपको नीचे तक हमारे साथ चलने के बाद पता चलेगा।

कहानी ये है कि पुणे में नानासाहब पेशवा (बालाजी बाजी राव) की आर्मी का कमांडर-इन-चीफ है सदाशिवराव भाऊ। नासाहेब और सदाशिव चचेरे भाई हैं। सदाशिव अभी-अभी उदगिर के निज़ाम को हराकर आया है। मराठों का पावर इतना बढ़ गया है कि वो दिल्ली में मुगलों को भी सिक्योरिटी देते हैं। लेकिन अगर दिल्ली की गद्दी से मुगलों को हटाना है, तो पहले उनके रक्षक मराठों को हराना होगा। नजीब-उद-दौला की इसी प्लानिंग का हिस्सा बनकर अफगानी शासक अहमद शाह अब्दाली हिंदुस्तान आ रहा है। इस मिशन की ज़िम्मेदारी सदाशिवराव भाऊ को मिलती है। वो सेना की एक छोटी सी टुकड़ी लेकर अब्दाली से लड़ने के लिए दिल्ली कूच करता है। रास्ते में मिलने कई और राज्यों के राजाओं की सेना को अपने साथ करते हुए वो अब्दाली के खिलाफ लड़ता है। हिस्ट्री 8वीं, 9वीं 10वीं में सबने पढ़ी है। इसलिए फिल्म का एंड आपको पता होगा। इसमें स्पॉयलर जैसा कुछ नहीं है।

अगर फिल्म में दिखे एक्टिंग परफॉर्मेंस की बात करें, तो ये फिल्म टोटली कृति सैनन के करियर का हाइलाइट रहेगी। वो बिलकुल एफर्टलेस हैं। वो हर दूसरी सीन में अचानक से अवतरित हो जाती हैं। फिल्म में इमोशन लेकर आती हैं। दूसरी तरफ हैं अर्जुन कपूर, जो शुरुआत से लेकर आखिर तक एंड़ी-चोटी का एफर्ट लगाए दिखाई देते हैं। पूरी फिल्म में वो कैरेक्टर को ऐसे ही घसीटते हैं। लेकिन फाइनल वॉर सीक्वेंस में उन्होंने अपनी सारी गलतियों का हिसाब-किताब कर दिया है। संजय दत्त ने अहमद शाह अब्दाली नाम के अफगानी शासक का रोल किया है। हालांकि ये वाला अफगानी कैरेक्टर पूरा चिकन हाथ में उठाकर नहीं खाता या मुंह पर ऑरेंज रंग का पाउडर नहीं मलता। लेकिन मुकुट से मारकर लोगों की जान ले लेता है। संजय दत्त उस पर्सनैलिटी और लेवल ऑफ क्रूरता को मैच करते हैं। लेकिन दिखने के अलावा किसी भी एंगल से वो अफगानी नहीं लगते। और एक्सेंट से तो बिलकुल नहीं। लेकिन वो कैरेक्टर को उसके पूरे वजन के साथ लेकर चलते हैं। बाकी एक्टर्स की लिस्ट बहुत लंबी है। उनका स्क्रीन टाइम नहीं। लेकिन मंत्रा का खास तौर पर ज़िक्र होना चाहिए, जिन्होंने नजीब-उद- दौला का रोल किया है।

अगर फिल्म के म्यूज़िक और बैकग्राउंड की बात करें, तो एक गाना है ‘मन में शिवा’, इसकी कोरियोग्रफी से लेकर एड्रेनलीन पार्ट और बोल सब सही हैं। और ये गाना अपना और फिल्म दोनों का मान रखता है। साथ ही इसकी लिरिक्स में कैरेक्टर्स के नाम जैसे भाऊ और विश्वास को उनके मतलब और कैरेक्टर्स को मिक्स करके लिखा हुआ लगता है। वहीं फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक किसी सीन को भव्य कैसे बनाया जाए, उस काम में आता है। बाकी गाने नैरेटिव की लय बिगाड़ने के ही काम में आते हैं। ‘मन में शिवा’ यहां सुनिए:

जिन सीन्स को ये बैकग्राउंड म्यूज़िक भव्य बनाने की कवायद में लगे हैं, वो हैं वॉर सीक्वेंस। या वो सीन्स में जिनमें संजय दत्त दिखते हैं। लेकिन ये सीन पहले से ही काफी लैविश लगते हैं। वो वॉर सीक्वेंस काफी शानदार तरीके से फिल्माया गया है। लेकिन इन सीन्स में धूल बहुत उड़ते हैं। ऐसा लगा मानो दिल्ली से सटे रियल वाले पानीपत में ही शूट किया गया है। लेकिन ये चीज़ ऑथेंटिसिटी नाम की चिड़िया में आपका विश्वास बनाए रखती है। बड़ी साधारण सी बात है कि अगर आप एक ही जॉनर की फिल्म बना रहे हैं, तो आपका कंपैरिज़न होना तय। ‘निशाना नहीं चूका रिश्ता बीच में आ गया’, बाजीराव मस्तानी फिल्म का ये डायलॉग फिल्म देखने के 4 साल बाद भी याद है। ‘पानीपत’ में कोई भी ऐसी लाइन नहीं है, जिसे आप फिल्म खत्म होने के आधे घंटे बाद भी याद रख सकें।

फिल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि विज़ुअली काफी अपीलिंग है। लेकिन सिर्फ विज़ुअल्स के सहारे ही खेलने की कोशिश नहीं करती। थोड़ी लंबी है लेकिन दूसरे हिस्से में काफी एंगेजिंग है। ये फिल्म पानीपत के तीसरे युद्ध के बारे में नहीं है। वो युद्ध कैसे लड़ा गया या इतिहास में कोई भी युद्ध कैसे लड़ा जाता होगा, उस बारे में है। ये डिटेलिंग फिल्म को रिच बनाती है। साथ वो उस दौर की पॉलिटिक्स के बारे में बताती है। पावर पाना, उसे बचाए रखने के लिए जतन करना, गठबंधन बनाना, धोखा खाना और हार जाना।

खटकने वाली बात भी विज़ुअल्स वाले डिपार्टमेंट में ही सबसे पहले दिखती है। जब शनिवारवाडा या किसी सीक्वेंस में बर्ड आई व्यू एंगल रखा गया है, वो फिल्म का सबसे फेक पार्ट है। ये चीज़ फिल्म को विज़ुअली कमज़ोर करती है। हालांकि ऐसे व्यूज़ दो-चार ही हैं। फिल्म का टैगलाइन है ‘ग्रेटेस्ट बेट्रेयल’ यानी भयानक धोखे की कहानी। लेकिन ये चीज़ क्लाइमैक्स में बस 20-25 सेकंड के लिए आती है। उस समय तो आपको शॉक लगता है। लेकिन असल में वो अजीब लगता है कि क्योंकि ढाई घंटे गुज़र चुकी फिल्म में पहले कहीं उसका कोई ज़िक्र नहीं आता।

अगर फिल्म देखने के अनुभव की बात करें, तो आप फिल्म देखना शुरू करते हैं, तब आपके सामने अर्जुन कपूर और कृति सैनन की असलियत से काफी दूर वाली केमिस्ट्री देखने को मिलती है। कोल्ड ड्रिंक पॉपकॉर्न खाते-पीते सेकंड हाफ काफी तेजी से गुज़रता है। क्योंकि जो फिल्म देखने गए थे, वो अब कायदे से चालू हुई होती है। और फिल्म के खत्म होते-होते आपको आपका पैसा वसूल होने वाला भाव आना शुरू हो जाता है। लेकिन एक फीलिंग इस पूरी फिल्म को देखते हुए बनी रहती है। वो ये कि ये सब कुछ हम ‘जोधा-अकबर’ से लेकर ‘बाजीराव मस्तानी’ और ‘पद्मावत’ जैसी फिल्मों में देख चुके हैं। भारी भरकम कॉस्ट्यूम, भव्य वॉर सीक्वेंस। शानदार सेट। फर्जी कंप्यूटर ग्रैफिक्स। बहादुर मराठा। क्रूर मुसलमान। वो बात कहां है, जो देखने में हम थिएटर्स में आए थे।


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