बाटला हाउस

Aug 15, 2019
कॅटगरी एक्शन ,ड्रामा,थ्रिलर
निर्देशक निखिल आडवाणी
कलाकार जॉन अब्राहम
रेटिंग 3.5/5
निर्माता जॉन अब्राहम,दिव्या खोसला कुमार,भूषण कुमार
संगीतकार अंकित तिवारी,तनिष्क बागची,रोशाक कोहली
प्रोडक्शन कंपनी एम्मे एंटरटेनमेंट

19 सितंबर, 2008 को दिल्ली पुलिस की एक टीम ने बाटला हाउस में एनकाउंटर किया था। यहां से पकड़े और मारे गए लोगों को पुलिस ने आतंकवादी संगठन इंडियन मुजाहिद्दीन का हमलावर बताया था। हालांकि इस एनकाउंटर को फर्जी और मारे-पकड़े गए लोगों के बेकसूर स्टूडेंट होने की बात कही गई। घटना के 11 साल बाद इस पर आधारित फिल्म ‘बाटला हाउस’ सिनेमाघरों में लगी है। लेकिन बात ये है कि फिल्म की शुरुआत में ही ये लिखकर आता है कि इस घटना को परदे पर उतारने लिए क्रिएटिव फ्रीडम लिए गए हैं। इसलिए हम सिर्फ सिनेमा की बात करेंगे, जो हमने देखी है।

कहानी

कहानी है दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल के बारे में जो बाटला हाउस में एक एनकाउंटर करती है। इस एनकाउंटर में दो लड़के मारे जाते हैं, दो भाग जाते हैं और एक गिरफ्तार कर लिया जाता है। साथ ही इस मुठभेड़ में स्पेशल सेल का एक ऑफिसर के।के। सिंह भी मारा जाता है। लेकिन इस ऑपरेशन को मीडिया, ओपोजिशन पार्टियां और ह्यूमन राइट्स वाले फर्जी करार देते हैं। और मामला जटिल हो जाता है। जहां पुलिस को कई बम धमाकों के आरोपियों को पकड़ने और उनका एनकाउंटर करने के लिए बधाई मिलनी चाहिए था, वहां उनकी नीयत पर शक किया जाता है। कहा जाने लगता है कि दिल्ली पुलिस हमलों के बारे में कुछ पता नहीं लगा पाई, तो मीडिया को शांत कराने के लिए एक फर्जी का एनकाउंटर कर दिया। लेकिन बात अटकती है उस भागे हुए लड़के पर जिसकी गिरफ्तारी के बाद मामला दिल्ली पुलिस के कंट्रोल में आ जाएगा। फिल्म में ये सारी धर-पकड़ उस कथित आतंकवादी को पकड़ने के बारे में है। जिस दौरान हमें इस केस को लीड करने वाले ऑफिसर की कहानी भी जानने को मिलती है। और इतना सब होने के बाद फिल्म फाइनली काफी ज्ञानप्रद तरीके से खत्म हो जाती है।

एक्टिंग

इसके बारे में ये कहना होगा फिल्म में काफी मीडियॉकर परफॉरमेंसेज़ हैं। आप स्क्रीन पर फर्जी या कम रियल एक्सप्रेशन के बारे में बात कर सकते हैं। लेकिन बिना एक्सप्रेशन के आदमी को कैसे जज किया जाए। संजय कुमार जॉन अब्राहम फिल्म के सिर्फ एक सीन में ये साबित कर पाते हैं, कि वो एक्टिंग के बिज़नेस में है। उनकी पत्नी के रोल में हैं मृणाल ठाकुर जिन्हें हमने सुपर 30 में देखा था। एक तो वो जॉन से उम्र में काफी छोटी लगती है, जिससे आपका ये भरोसा करना मुश्किल हो जाता है कि ये इनकी शादी को लंबा समय हो चुका है। पहला झटका तो यही है।

दूसरी बात कि ये फीमेल कैरेक्टर फिर से एक बार दिक्कतभरे मर्द को उसकी परेशानियों से निकालने यानी रिहैबिलिटेशन सेंटर का काम करती है। वो अपने लिए फिल्म में कुछ नहीं करती है। उसके बारे में तभी कोई बात होती, जब उसके पति यानी एनकाउंटर वाले ऑपरेशन को हेड करने वाले ऑफिसर संजय कुमार के बारे में बात होती है।

के।के। सिंह के रोल में हैं रवि किशन। और उनका कैरेक्टर भी फिल्मी पुलिस ऑफिसर जैसा है, जो करता तो बकर ही है। लेकिन देश के लिए अपनी जान देने को भी तैयार रहता है। पीछे कई बार वैसे किरदार देखे गए हैं, तो कनेक्ट करना काफी ईज़ी हो जाता है। इन दोनों के अलावा फिल्म में राजेश शर्मा और मनीष चौधरी जैसे एक्टर्स नज़र आते हैं। जिनके करने के लिए बहुत नहीं है फिर भी वो अपनी उपस्थिति का भान करवाते हैं। हालांकि राजेश शर्मा के किरदार के साथ कुछ ज़्यादा ही क्रिएटिव फ्रीडम ले लिया गया है। वो कथित आतंकवादी के लिए केस लड़ते हैं और सामने वाली टीम के लिए केस खुद ही सॉल्व कर देते हैं।

डायलॉग्स-कैमरा

‘बाटला हाउस’ निखिल आडवानी एंड ग्रुप (मिलाप जावेरी और गौरव चावला) ब्रैंड ऑफ फिल्म से अलग है। कम जिंगोइज़्म झाड़ता है। लेकिन फिर भी काफी ड्रमैटिक है। लेकिन इस बार निराश करने से कुछ कदम पहले रुक जाता है। लेकिन क्लाइमैक्स में फिल्म में ‘हिमायत’ और ‘मुखालफत’ जैसे शब्द इस्तेमाल करके इतना अच्छा फील करने लगती है कि अपनी ही कही बात पर लिटरली ताली बजाने लगती है। इस आत्ममुग्धता को पचा पाना कतई मुमकिन नहीं है।

फिल्म में आपको एनकाउंटर वाले सीन तीन अलग-अलग एंगल से देखने को मिलते हैं। लेकिन इसे अलग-अलग तरीके से दिखाने के अलावा इस दौरान काफी रचनात्मकता भी बरती गई है। जैसे एनकाउंटर में गोली चलने से बाथरूम के दरवाज़े में हुए छेद में कैमरा घुसाकर जॉन का अनएक्स्प्रेसिव चेहरा और कमरे की हालत बड़े इंट्रेस्टिंग तरीके से कैप्चर की गई है। दूसरी ये वैरिएशन फिल्म के नैरेटिव में भी जोड़-घटाव करता रहता है।

म्यूज़िक-बैकग्राउंड स्कोर

इस फिल्म के म्यूज़िक को देखते हुए लगता है जैसे ‘सत्यमेव जयते’ का म्यूज़िक रीपीट कर दिया गया है। एक रोमैंटिक सा सैड सॉन्ग। एक नोरा फतेही का पॉपुलर रीमेक-डांस नंबर। और फाइनली एक ‘ताजदार-ए-हरम’ टाइप ‘जाको राखे साइयां’। ‘साकी साकी’ अपने समय का ब्लॉकबस्टर सॉन्ग रह चुका है। उसकी रिकॉल वैल्यू ही है कि आप उसे दोबारा देख पाते हैं। बैकग्राउंड में अधिकतर टाइम गोलियों चलने की आवाज़ आती हैं। चाहे उतनी हिंसक घटना सीन में घट रही हो या नहीं। जॉन चार-पांच बार सिर्फ गोली लगने वाली फीलिंग को महसूस कर लेते हैं। बाकी माहौलानुसार म्यूज़िक तो सब करते हैं, इन्होंने भी किया है। अगर कुछ अलग ढूंढ़ रहे हैं, तो आपकी तलाश ज़ारी रहेगी। साकी साकी गाना आप यहां सुन सकते हैं:

ओवरऑल एक्सपीरियंस

फिल्म अपनी पेस ठीक रखती है। पकने और झेलने जैसे मोमेंट्स नहीं आाते। असल घटना से प्रेरित होते हुए भी असलियत के बहुत करीब नहीं है। लेकिन नकली होने की शिकायत भी इससे नहीं की जा सकती। क्योंकि ये फिल्म वो करती है, जिसका वादा फिल्म का ट्रेलर कर के गया था। बिलकुल ही न देखने जाने वाली कैटेगरी से काफी दूर है। सिर्फ इसीलिए एक बार देखी जा सकती है।


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