सांड की आंख

Oct 25, 2019
कॅटगरी जीवनी,ड्रामा
निर्देशक तुषार हीरानंदानी
कलाकार तापसी पन्नू ,भूमि पेडनेकर
रेटिंग 3.5/5
निर्माता आमिर खान
संगीतकार विशाल मिश्रा
प्रोडक्शन कंपनी रिलायंस एंटरटेनमेंट चाक और चीज़ फिल्म्स

चन्द्रो तोमर और प्रकाशी तोमर। इन दो गंवार औरतों को अलवर की महारानी ने अपने शानदार महल में डिनर के लिए बुलाया है। खाना खा चुकने के बाद ये दोनों फिंगर बाउल में हाथ धोने की बजाय उसमें नींबू निचोड़कर उसे पी जाती हैं। अलवर की महारानी ये देखती हैं तो अपने फिंगर बाउल के साथ भी ऐसा ही करती हैं। फिर उनके हसबेंड और फाइनली डाइनिंग टेबल पर बैठा हर गेस्ट भी फिंगर बाउल में हाथ धोने की बजाय उसे पी जाता है। ये बड़ा हार्ट वार्मिंग मोमेंट है। ऐसे ही कई दिल को पिघला देने वाले मोमेंट्स से सजी हुई मूवी है ‘सांड की आंख’।

कहानी-

यूपी के बागपत जिले के एक गांव में तीन शादीशुदा भाई रहते हैं। इनके घर में कई बाल-बच्चे हैं। घर को अगर राजपाल यादव देख लें तो कहें कि इसे जिला क्यूं नहीं घोषित कर देते। परिवार घोर पितृसत्तात्मक है। घर में सबसे बड़े भाई की सबसे ज़्यादा चलती है। वो गांव का सरपंच भी है। अब ऐसे डिप्रेसिंग माहौल में घर की मझली और छोटी बहुएं (चन्द्रो तोमर, प्रकाशी तोमर) कैसे शूटिंग में अपना नाम कमाती हैं, कैसे सबसे बड़ी वाली बहू उनकी हेल्प करती है और जब तीन भाइयों को पता चलता है तब क्या होता है, इस सब को ही बड़े खूबसूरत तरीके से सांड की आंख में दर्शकों के सामने पेश किया गया है। फिल्म चंद्रो तोमर (शूटर दादी) और प्रकाशी तोमर (रिवॉल्वर दादी) नाम के रियल लाइफ करैक्टर्स पर बेस्ड है।

 नज़रबट्टू-

मूवी की तारीफ़ कहां से शुरू की जाए ये समझ में नहीं आता। इसलिए सबसे पहले इसके एकमात्र फ्लॉ की बात कर लेते हैं। इन्फेक्ट उसका रिविज़न कर लेते हैं। रिविज़न इसलिए क्यूंकि इसके बारे में पहले ही कई लोग कई सारी बातें कर चुके हैं। और वो है एक्टर्स का मेकअप। दादी बनीं भूमि पेडणेकर और तापसी पन्नू का बुढ़ापा और उनकी चेहरे की झुर्रियां ही नहीं उनके कोच बने विनीत कुमार सिंह की दाढ़ी की सफेदी भी एक बार में ही नकली लगने लगती है। ये मूवी परफेक्शन के इतने नज़दीक है कि कभी-कभी तो लगता है कि मेकअप वाली गड़बड़ी जानबूझकर की गई हो। एक ‘नज़रबट्टू’ सरीखी।

एक्टिंग-

फिल्म में कई सीन्स ऐसे हैं जिनमें तापसी और भूमि की एक्टिंग और केमिस्ट्री देखकर ‘ब्रोमांस’ शब्द की तर्ज़ पर ‘बहनापा’ जैसा एक नया शब्द गढ़ने का मन कर जाता है। मसलन वो सीन जिसमें दोनों को एक्टिंग करने की एक्टिंग करनी है, और फिर वो वाला जहां दोनों गले लग के रो रही होती हैं। एक दूसरे को किए गए उनके इशारे बातों से ज़्यादा कम्यूनिकेट कर जाते हैं।

भूमि पेडणेकर ने जेठानी के रूप में इतना एक्सेप्शनल काम कर दिखाया है कि उनके सामने तापसी की बेहतरीन एक्टिंग भी औसत लगने लगती हैं। इसे ऐसे समझिए कि जहां भूमि पेडणेकर अपनी एक्टिंग के माध्यम से मेकअप वाले दोष को छुपा ले जाती हैं वहीं, तापसी का युवापन कहीं-कहीं एक्टिंग और मेकअप से भी झांकने लग पड़ता है।

सरपंच रतन सिंह बने प्रकाश झा ने पितृसत्ता की दहशत को पर्दे में बड़ी खूबी से उतारा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बोली को भी बाकी एक्टर्स से ज़्यादा बेहतर ढंग से पकड़ा है। उनका तकिया कलाम, ‘ये तो होणा ही था’ आपको अंदर तक हिलाने की क्षमता रखता है। विनीत कुमार सिंह के किरदार डॉक्टर यशपाल का अच्छापन पूरे सिनेमाहॉल में अपना एक ऑरा बनाने का सामर्थ्य रखता है।

 डायलॉग्स-

फिल्म का दूसरा स्ट्रॉन्ग डिपार्टमेंट है- इसके डायलॉग्स। एक जगह जब औरतों का अपनी उम्र छुपाने वाले घिसे पिटे जोक का ज़िक्र आता है तो चन्द्रो तोमर बोलती हैं– असल में औरत उस उम्र का सही हिसाब कहां लगा पाती है, जो उसने अपने लिए जी हो।

स्क्रिप्ट/डायरेक्शन-

फिल्म का सबसे स्ट्रॉन्ग पॉइंट है इसका सब्जेक्ट, इसका मैसेज और एट दी सेम टाइम स्क्रिप्ट का इंट्रेस्टिंग और क्रिस्प होना। इसके लिए डायरेक्टर तुषार हीराचंदानी के डायरेक्शन और पूरे स्क्रिप्ट/स्क्रीनप्ले डिपार्टमेंट की पीठ थपथपाई जानी चाहिए। पिछले एक दो दशकों में ‘स्त्री विमर्श’ से जुड़ी इतनी सशक्त मूवी कम ही आई होंगी। फिल्म यूं दर्शकों से कनेक्ट करती है कि जो ज्वालामुखी महिला किरदारों के अंदर दबा रहता है वो धीरे-धीरे दर्शकों के दिल में भी क्लोन होने लगता है। और फिर इन किरदारों की हर हार, हर जीत में दर्शक अपने को रूट करते, किरदारों के साथ खुद को हंसते और रोते पाते हैं।

प्रोडक्शन-

अनुराग कश्यप के प्रोडक्शन का ये असर पड़ा कि इसका ट्रीटमेंट ‘उड़ान’ मूवी की याद दिलाता है। एक टीनएजर के लिए जो ‘उड़ान’ थी, वही एक स्त्री के लिए ‘सांड की आंख’ है। इसमें भी खलनायक घर का ही है। और इसमें भी उसे उसी के खेल में हराया जाता है। वहां खेल ‘रेस’ थी यहां ‘शूटिंग’ है। वहां भी नायक अंत तक खलनायक से डरा हुआ था, यहां भी नायिकाओं का यही हाल है।

म्यूज़िक-

बेहतरीन चीज़ों को और भी प्रोमिनेंट बनाने में फिल्म का ‘म्यूज़िक’ डिपार्टमेंट भी कोई-कोर कसर नहीं छोड़ता। बहुत दिनों बाद आशा भोसले की आवाज़ सुनने को मिलती है। ‘आसमां’ गीत, दरअसल एक खूबसूरत कविता है। जिसका हर मेटाफर फिल्म में अपने सबसे उजले रंगों में प्रकट होता है। ये गीत आपको रंग दे बसंती के गीत ‘लुका छिपी’ का नॉस्टेल्जिया देगा-

तुझको उड़ता देखने को हम भी आएंगे,

साथ उन ऊंचाइयों पर मुस्कुराएंगे।

उजली सुबह तेरी खातिर आएगी, हां आएगी,

रात है गहरी बड़ी पर जाएगी, हां जाएगी।

‘वोमनिया’, ‘बेबी गोल्ड’ और ‘उड़ता तीतर’… जैसे गीत एक बैकग्राउंड म्यूज़िक की तरह ठीक वहां पर जोश का संचार करते हैं जहां पर स्क्रिप्ट में इसकी स्पेस है।

‘झुन्ना-झुन्ना’ गीत के लिरिक्स और म्यूज़िक काउन्टर इंटीयूटीव है। मतलब जहां लिरिक्स डिप्रेसिंग हैं वहीं म्यूज़िक मोटिवेशनल। यूं राज शेखर की लिरिक्स और विशाल मिश्रा की कम्पोज़िंग्स एक दूसरे को ख़ूबसूरती से कॉम्प्लीमेंट करती हैं।

ओवर ऑल फील-

लोकेशन्स और सिनेमाटोग्राफी के चलते फ़िल्म रियल्टी के काफी करीब लगती है। साथ देती है पश्चिमी उत्तर प्रदेश के रहन सहन पर की गयी रिसर्च। लेकिन रियल्टी से दूर ले जाता है एक्टर्स का मेकअप। कुल मिलाकर ढाई घंटे की ये मूवी पैसा वसूल है। तब तो और भी जब इसके टिकट ‘टैक्स फ्री’ होकर और ज़्यादा सस्ते हो गए हों। कम से कम यूपी में तो हो ही गए हैं।


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